
ये जो संस्कृति हमारी खत्म होती जा रही है गांव से
वो घूंघट सिर पे लाने को चलो अब कुछ किया जाये।
मकां हैं ईंट के पक्के और तपती सी दीवारें
वो छप्पर फिर से लाने को चलो अब कुछ किया जाये।
मचलते थे बहुत बच्चे भले काला सा फल था वो
वो फल जामुन का लाने को चलो अब कुछ किया जाये।
हुआ जो शाम तो इक दूसरे का दर्द सुनते थे
चौपालें ऐसी लाने को चलो अब कुछ किया जाये।
पिटाई खाया वो बच्चा शरण में मां के रहता था
वो ममता प्रेम लाने को चलो अब कुछ किया जाये।
बड़ों की आहटें सुनकर बहुरिया छोड़ती आसन
वो आदर फिर से लाने को चलो अब कुछ किया जाये।
पुरानी आम की बगिया बिछी रहती थी जो खटिया
वो फिर से छांव लाने को चलो अब कुछ किया जाये।
वो बच्चे धूल में खेलें कबड्डी पकड़ा पकड़ी भी
मोबाइल से बचाने को चलो अब कुछ किया जाये।
जो बैलों का चले कोल्हू वो गन्नों का पड़ा गट्ठर
वो रस गन्ने का लाने को चलो अब कुछ किया जाये।
पहली बारिश की जो धारा लगे बच्चो को वो प्यारा
वो खुश्बू मिट्टी की लाने चलो अब कुछ किया जाये।
सभी की थे सभी सुनते नही अब बाप की सुनते
वो आज्ञाकारिता लाने चलो अब कुछ किया जाये।
अमीरी था नही कोई लुटाते जान सब पर थे
वही फिर भाव लाने को चलो अब कुछ किया जाये।
नही था नल नही टुल्लू मगर प्यासे नही थे वो
अभी इस प्यास से बचने चलो अब कुछ किया जाये।
समय जो आने वाला है बड़ा लगता भयंकर है
वो एहसासे बचाने को चलो अब कुछ किया जाये।
- अजय एहसास
सुलेमपुर परसावां
अम्बेडकर नगर( उ०प्र०)