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सर्व प्रथम, यह पाखण्ड नहीं है.

sahityaसंगोष्ठी (सम्मान वापसी -प्रतिरोध या पाखंड?)
सर्व प्रथम, यह पाखण्ड नहीं है.
आज यह प्रश्न उठ रहा है या उठाया जा रहा है कि अवार्ड इस समय ही क्यों लौटाए जा रहे हैं,पहले क्यों नहीं?आम लोगों को यह प्रश्न स्वाभाविक लग रहा है,पर मेरे विचार से यह प्रश्न एक सिरे से अस्वाभाविक है.यह प्रश्न उन लोगों द्वारा उठाया जा रहा है, जो न कला को समझते हैं, न साहित्य को और न समझ रहे हैं आज के वातावरण को.इनमें कुछ लोग ऐसे भी है जिनकी इस वातावरण को तैयार करने में भागीदारीहै.वे या तो साहित्य कारों या कलाकारों को समझ नहीं पा रहे हैं या न समझने का ढोंग कर रहे है .सीधे सीधे कहा जाये तो ये संवेदन हीन लोग हैं.
मुझे १९५६ की एक घटना याद आ रही है. उस समय मैं एक उच्च विद्यालय का छात्र था.मेरे विद्यालय से करीब १२ मील की दूरी पर एक कालेज था,जहाँ पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आने वाले थे.आज तो यह असहज लगेगा,पर हम कुछ छात्र जिनको साहित्य से जबरदस्त लगाव था,पैदल ही वहां पहुँच गए.चूंकि हमलोग उनके आने के समय से पहले पहुंचे थे,अतः उनका इन्तजार करते रहे ,पर बाद में निराशा हाथ लगी,निराला ने अंतिम क्षणों में वहां आने से इंकार कर दिया था.किसी ने पूछा,” क्यों नहीं जा रहे हैं?”उनका जबाब था,”उस इलाके में गुंडे हैं.”निराला उच्च दर्जे के कवि थे,कलाकार थे,अतः आम आदमी उनकी गिनती पागलों में भी कर सकता है.मैं मानता हूँ कि शायद आज के साहित्यकार उस ऊंचाई पर नहीं पहुंचे हैं,पर क्या इसीलिये हम उन्हें अपमानित करें?
निराला के बारे में एक दूसरी वाकया भी याद आ रही है. एकबार महात्मा गांधी ने रवींद्र नाथ टैगोर की बड़ाई करते हुए निराला और कुछ अन्य हिंदी साहित्यकारों के सामने ही कह दिया था कि टैगोर कि टक्कर का कोई कवि या लेखक हिंदी में नहीं है.अन्य लोग तो चुप रहे, पर निराला ने तुरतकहा,”क्यों नहीं हैं?”और तुलसी,सूर से लेकर समकालीन कवियों और लेखकों के भी नाम गिना डाले.कहा कि यहीं बैठे हुए में मैं हूँ,, प्रसाद हैं पंत हैं,महादेवी वर्मा हैं.कौन उनसे कम है?ऐसा नहीं कि निराला ने योंही उत्तर दिया होगा.वे बांग्ला के अच्छे ज्ञाता थे और उन्होंने टैगोर को अच्छी तरह पढ़ा होगा.यह है बानगी एक कवि की,एक कलाकार की और साहित्य कार की.अगर आज निराला होते तो पुरस्कार लौटाते या नहीं यह तो मैं नहीं जानता,पर इतना अवश्य जानता हूँ किवे किसी के कहने या विरोध किये जाने की परवाह नहीं करते . उनका जो दिल करता,वे वही करते.अतः यह प्रश्न एकदम अस्वाभाविक है कि पहले क्यों नहीं? अभी क्यों?
अब मैं इस परिचर्चा को आगे बढ़ाता हूँ.जो साहित्य या साहित्यकार को नहीं जानता वह इस प्रश्न के छलावे में अवश्य आएगा.वह यह कभी नहीं समझेगा कि राजनीती घबड़ाई हुई है और अपने बचाव का मार्ग ढूंढ़ रही है.राजनीति साहित्य का सम्मान करे या नहीं पर वह जानती है कि साहित्यकार उसके जड़ को हिला सकता है.मस्तिष्क चाहे वह जितना भी उन्नत हो जाए,पर दिल के आगेवह अधिकतर हारा ही है.
इस प्रश्न का संतोषप्रद उत्तर शायद अभी शेष है कि आज ही क्यों? पहले क्यों नहीं?एक साहित्यकार के रूप में इसका एक ही उत्तर है कि साहित्य या साहित्यकार किसी का गुलाम नहीं कि वह अपने मालिक की इच्छानुसारअपना विरोध प्रकट करे.फिर भी साहित्य और साहित्यकार की मानसिकता से भी अलग हट कर सोचा जाए ,तो आज की परिस्थितियां पिछली परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न हैं.दूर जाने की आवश्यकता नहीं, गोधरा और गुजरात के दंगों की हीं बात की जाए.गोधरा काण्ड पर कोई चर्चा क्यों नहीं करता या उसके लिए अवार्ड क्यों नहीं लौटाता? क्योंकि गोधरा काण्ड के बाद जो नर संहार हुआ ,वह अत्यंत निंदनीय और भयानक था.कोई सोच भी नहीं सकता था कि वह शासन जो गोधरा काण्ड को रोकने मेंतो असमर्थ रहा ही,पर आगे इतना नपुंसक सिद्ध होगा कि तीन दिवस तक कत्लेआम पर काबू नहीं पा सकेगा.ठीक है,गोधरा कांड न सही,गुजरात के दंगे के कारण तो अवार्ड लौटाया जा सकता था.फिर भी क्यों वैसा विरोध नहीं हुआ,जबकि इतिफाक से उस समय भी केंद्र में एन.डी ए. का ही शासन था. अब बात आती है उस समय के प्रधान मंत्री और आज के प्रधान मंत्री की.यानि वाजपेई और नमो की.वाजपेई ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त कि और जिस तरह राज्य सरकार से जबाब तलब किया उसको दोहराने की आवश्यकता मैं नहीं समझता.उसके बाद तो अवार्ड लौटाने की बात ही नहीं हो सकती थी.आज भी अगर नमो ने वाजपेई वाली निष्कपटता दिखाई होती तो शायद इसकी नौबत नहीं आती.
एक अन्य प्रश्न भी बीच में आया है कि लोग गोष्ठियों में गुजरात के दंगे कि चर्चा तो करते हैं,पर गोधरा का क्यों नहीं?छोटा जबाब तो यह है कि गुजरात के दंगे ने बिना काटे छांटें गोधरा की लकीर को छोटा कर दिया था. वृहद उत्तर तो बहुत बदहो जायेगा,पर मेरे विचार से दोनों कांडों में राज्य सरकार की असफलता झलकती है.
पर अभी भी प्रश्न का निर्णायक उत्तर आना शेष है.उसके लिए अब आज की परिस्थितियों को व्यापक रूप में देखना होगा.आज की युवा पीढ़ी जो आज के भारत के जनसँख्या का बहुमत के साथ सबसे मुखर हिस्सा है,उसको यह नहीं समझ में आ रहा है कि क्या आज की परिस्थितियां आपातकाल से भी खराब है?इसका उत्तर बिना विवाद हाँ है.लोग डरे हुए हैं और उनको पता भी नहीं चल रहा है कि वे क्यों डरे हुए हैं?आपातकाल में भी लोग डरे हुए थे. हो सकता है इससे ज्यादा डरे हुए हों,पर उनको पता था कि वे क्यों डरे हुए हैं?उस समय उन्हें पता था कि उन्हें शासन से डरना चाहिए,क्योंकि वह किसी को भी बिना कारण पूछे जेल भेज सकता हैं,पर जिंदगी जाने का डर नहीं था. आज तो वातावरण यह है कि लोग यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कौन सुरक्षित है और कहाँ सुरक्षित है? कबतक सुरक्षित है?कहीं भी कभी भी किसी की हत्या हो सकती है और शासन उस पर कार्रवाई करेगा कि नहीं उसकी इच्छा पर निर्भर है.वह इसपर निर्भर है कि किसकी हत्या हुई है और हत्यारा कौन है? ज्वलंत प्रश्नों पर प्रधान मंत्री की चुप्पी वातावरण को और भयावह बना रही है.ऐसा कभी भी नहीं हुआ था,एक लेखक मार दिया जाता है,क्योंकि उसकी विचार धारा हमारे रास्ते का रोड़ा बन रही है.आगे एलान भी कर दिया जाता है कि उसी विचार धारा वाले दूसरे की भी हत्या कर दी जाएगी .आखिर विचार वैभिन्य से इतना डर क्यों?आखिर सबको भेड़ बनाने की यह योजना क्यों?एक मुसलमान की हत्या केवल अफवाह के कारण कर दी जाती है और उसको उचित सिद्ध करने की भी कोशिश की जाती है.दोनों घटनाएँ दो जगह घटती है,पर क्या ये दोनों व्यक्ति मात्र हैं क्या आम जनता के निरीहता के प्रतीक नहीं हैं.क्या आम आदमी ने अपने को कभी इतना निरीह महसूस किया था?मैंने आपातकाल देखी है .और उसका अपने ढंग से दूसरों के साथ कन्धा मिला कर विरोध भी किया था, क्योंकि मालूम था कि ज्यादा से ज्यादा क्या होगा और कौन उसको अंजाम देगा?,पर आज तो यह भी मालूम नहीं है कि अंत क्या होगा?यह अनिश्चितता वातावरण को और भयावह बना रही है. ऐसा कभी नहीं हुआ था.यह भी तर्क दिया जा रहा है कि कालमुर्गी की हत्या कर्णाटक में हुई और अख्लाख़ उत्तर प्रदेश में मारा गयाऔर इसमे कहीं भी भाजपा का शासन नहीं है,पर क्या इतना ही कह देना प्रधान मंत्री को उनकी जिम्मेवारी से मुक्त कर देता है?कालमुर्गी की हत्याके बाद धमकियाँ दी गयी कि ऐसा अन्य के साथ भी हो सकता है.आखिर कौन हैं ये धमकियाँ देने वाले?उनपर लगाम क्यों नहीं कसा जा रहा है?क्या ऐसा पहले हुआ था?अख्लाख़ की हत्या तो ऐसी हत्या है,जो सम्पूर्ण राष्ट्र में अशांति का वातावरण करने में सक्षम है.जब एक झूठे अफवाह पर किसी की हत्या हो सकती है,तो ऐसा कहीं भी कभी भी हो सकता है.हम कहाँ सुरक्षित महसूस करें? उसपर जन प्रतिनिधियों की प्रतिक्रिया ?
नहीं संयोजक जी,यह एक ऐसा भयावह वातावरण है जैसा कभी नहीं था.यहाँ तक कि आपातकाल में भी नहीं था.ज्ञात दुश्मन सेलड़ने में आसानी होती है और आपातकाल में ऐसा ही था,मैंने उस वातावरण को झेला है,पर आज तो यह भी ज्ञात नहीं है कि दुश्मन कौन है और कब वार करेगा?आज तो यह भी ज्ञात नहीं है कि एक हिन्दू मुसलमान पर वार करेगा या एक मुसलमान हिन्दू पर?या कि दलित एक अगड़े पर कि एक अगड़ा पिछड़े पर वार करेगा?वातावरण किसके पक्ष में बन रहा है यह भी तो ज्ञात नहीं?प्रचार किया जा रहा है कि यह सरकार उच्च वर्गीय और धनी हिन्दू पुरुषों के लिए है,पर क्या वे भी अगर दूसरी विचार धारा वाले हैं तो इस वातावरण में असुरक्षित नहीं हैं क्या?अतः चंद लोगों को छोड़कर जब सम्पूर्ण राष्ट्र डरा हुआ है,तो एक साहित्यकार उस आंच को सबसे ज्यादा महसूस करेगा,क्योंकि उसके पास एक संवेदनशील दिल भी तो है.उसके पास प्रतिरोध या विरोध का जो सबसे बड़ा हथियार है,वह उसको इस्तेमाल करने पर वाध्य हो गया है. अवार्ड लौटाना क्या उतना आसान है जितना हम और आप समझ रहे हैं?
अतः विद्य जनों से यही निवेदन है कि इन घटना क्रमो की तह तक जाएँ और उन साहित्यकारों की पीड़ा को समझें.पर उसके लिए संवेदनशीलता की शर्त भी है संवेदन विहीन इंसान(?)इस पीडा को कभी नहीं समझ पायेगा.