सर्व प्रथम, यह पाखण्ड नहीं है.

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sahityaसंगोष्ठी (सम्मान वापसी -प्रतिरोध या पाखंड?)
सर्व प्रथम, यह पाखण्ड नहीं है.
आज यह प्रश्न उठ रहा है या उठाया जा रहा है कि अवार्ड इस समय ही क्यों लौटाए जा रहे हैं,पहले क्यों नहीं?आम लोगों को यह प्रश्न स्वाभाविक लग रहा है,पर मेरे विचार से यह प्रश्न एक सिरे से अस्वाभाविक है.यह प्रश्न उन लोगों द्वारा उठाया जा रहा है, जो न कला को समझते हैं, न साहित्य को और न समझ रहे हैं आज के वातावरण को.इनमें कुछ लोग ऐसे भी है जिनकी इस वातावरण को तैयार करने में भागीदारीहै.वे या तो साहित्य कारों या कलाकारों को समझ नहीं पा रहे हैं या न समझने का ढोंग कर रहे है .सीधे सीधे कहा जाये तो ये संवेदन हीन लोग हैं.
मुझे १९५६ की एक घटना याद आ रही है. उस समय मैं एक उच्च विद्यालय का छात्र था.मेरे विद्यालय से करीब १२ मील की दूरी पर एक कालेज था,जहाँ पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आने वाले थे.आज तो यह असहज लगेगा,पर हम कुछ छात्र जिनको साहित्य से जबरदस्त लगाव था,पैदल ही वहां पहुँच गए.चूंकि हमलोग उनके आने के समय से पहले पहुंचे थे,अतः उनका इन्तजार करते रहे ,पर बाद में निराशा हाथ लगी,निराला ने अंतिम क्षणों में वहां आने से इंकार कर दिया था.किसी ने पूछा,” क्यों नहीं जा रहे हैं?”उनका जबाब था,”उस इलाके में गुंडे हैं.”निराला उच्च दर्जे के कवि थे,कलाकार थे,अतः आम आदमी उनकी गिनती पागलों में भी कर सकता है.मैं मानता हूँ कि शायद आज के साहित्यकार उस ऊंचाई पर नहीं पहुंचे हैं,पर क्या इसीलिये हम उन्हें अपमानित करें?
निराला के बारे में एक दूसरी वाकया भी याद आ रही है. एकबार महात्मा गांधी ने रवींद्र नाथ टैगोर की बड़ाई करते हुए निराला और कुछ अन्य हिंदी साहित्यकारों के सामने ही कह दिया था कि टैगोर कि टक्कर का कोई कवि या लेखक हिंदी में नहीं है.अन्य लोग तो चुप रहे, पर निराला ने तुरतकहा,”क्यों नहीं हैं?”और तुलसी,सूर से लेकर समकालीन कवियों और लेखकों के भी नाम गिना डाले.कहा कि यहीं बैठे हुए में मैं हूँ,, प्रसाद हैं पंत हैं,महादेवी वर्मा हैं.कौन उनसे कम है?ऐसा नहीं कि निराला ने योंही उत्तर दिया होगा.वे बांग्ला के अच्छे ज्ञाता थे और उन्होंने टैगोर को अच्छी तरह पढ़ा होगा.यह है बानगी एक कवि की,एक कलाकार की और साहित्य कार की.अगर आज निराला होते तो पुरस्कार लौटाते या नहीं यह तो मैं नहीं जानता,पर इतना अवश्य जानता हूँ किवे किसी के कहने या विरोध किये जाने की परवाह नहीं करते . उनका जो दिल करता,वे वही करते.अतः यह प्रश्न एकदम अस्वाभाविक है कि पहले क्यों नहीं? अभी क्यों?
अब मैं इस परिचर्चा को आगे बढ़ाता हूँ.जो साहित्य या साहित्यकार को नहीं जानता वह इस प्रश्न के छलावे में अवश्य आएगा.वह यह कभी नहीं समझेगा कि राजनीती घबड़ाई हुई है और अपने बचाव का मार्ग ढूंढ़ रही है.राजनीति साहित्य का सम्मान करे या नहीं पर वह जानती है कि साहित्यकार उसके जड़ को हिला सकता है.मस्तिष्क चाहे वह जितना भी उन्नत हो जाए,पर दिल के आगेवह अधिकतर हारा ही है.
इस प्रश्न का संतोषप्रद उत्तर शायद अभी शेष है कि आज ही क्यों? पहले क्यों नहीं?एक साहित्यकार के रूप में इसका एक ही उत्तर है कि साहित्य या साहित्यकार किसी का गुलाम नहीं कि वह अपने मालिक की इच्छानुसारअपना विरोध प्रकट करे.फिर भी साहित्य और साहित्यकार की मानसिकता से भी अलग हट कर सोचा जाए ,तो आज की परिस्थितियां पिछली परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न हैं.दूर जाने की आवश्यकता नहीं, गोधरा और गुजरात के दंगों की हीं बात की जाए.गोधरा काण्ड पर कोई चर्चा क्यों नहीं करता या उसके लिए अवार्ड क्यों नहीं लौटाता? क्योंकि गोधरा काण्ड के बाद जो नर संहार हुआ ,वह अत्यंत निंदनीय और भयानक था.कोई सोच भी नहीं सकता था कि वह शासन जो गोधरा काण्ड को रोकने मेंतो असमर्थ रहा ही,पर आगे इतना नपुंसक सिद्ध होगा कि तीन दिवस तक कत्लेआम पर काबू नहीं पा सकेगा.ठीक है,गोधरा कांड न सही,गुजरात के दंगे के कारण तो अवार्ड लौटाया जा सकता था.फिर भी क्यों वैसा विरोध नहीं हुआ,जबकि इतिफाक से उस समय भी केंद्र में एन.डी ए. का ही शासन था. अब बात आती है उस समय के प्रधान मंत्री और आज के प्रधान मंत्री की.यानि वाजपेई और नमो की.वाजपेई ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त कि और जिस तरह राज्य सरकार से जबाब तलब किया उसको दोहराने की आवश्यकता मैं नहीं समझता.उसके बाद तो अवार्ड लौटाने की बात ही नहीं हो सकती थी.आज भी अगर नमो ने वाजपेई वाली निष्कपटता दिखाई होती तो शायद इसकी नौबत नहीं आती.
एक अन्य प्रश्न भी बीच में आया है कि लोग गोष्ठियों में गुजरात के दंगे कि चर्चा तो करते हैं,पर गोधरा का क्यों नहीं?छोटा जबाब तो यह है कि गुजरात के दंगे ने बिना काटे छांटें गोधरा की लकीर को छोटा कर दिया था. वृहद उत्तर तो बहुत बदहो जायेगा,पर मेरे विचार से दोनों कांडों में राज्य सरकार की असफलता झलकती है.
पर अभी भी प्रश्न का निर्णायक उत्तर आना शेष है.उसके लिए अब आज की परिस्थितियों को व्यापक रूप में देखना होगा.आज की युवा पीढ़ी जो आज के भारत के जनसँख्या का बहुमत के साथ सबसे मुखर हिस्सा है,उसको यह नहीं समझ में आ रहा है कि क्या आज की परिस्थितियां आपातकाल से भी खराब है?इसका उत्तर बिना विवाद हाँ है.लोग डरे हुए हैं और उनको पता भी नहीं चल रहा है कि वे क्यों डरे हुए हैं?आपातकाल में भी लोग डरे हुए थे. हो सकता है इससे ज्यादा डरे हुए हों,पर उनको पता था कि वे क्यों डरे हुए हैं?उस समय उन्हें पता था कि उन्हें शासन से डरना चाहिए,क्योंकि वह किसी को भी बिना कारण पूछे जेल भेज सकता हैं,पर जिंदगी जाने का डर नहीं था. आज तो वातावरण यह है कि लोग यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कौन सुरक्षित है और कहाँ सुरक्षित है? कबतक सुरक्षित है?कहीं भी कभी भी किसी की हत्या हो सकती है और शासन उस पर कार्रवाई करेगा कि नहीं उसकी इच्छा पर निर्भर है.वह इसपर निर्भर है कि किसकी हत्या हुई है और हत्यारा कौन है? ज्वलंत प्रश्नों पर प्रधान मंत्री की चुप्पी वातावरण को और भयावह बना रही है.ऐसा कभी भी नहीं हुआ था,एक लेखक मार दिया जाता है,क्योंकि उसकी विचार धारा हमारे रास्ते का रोड़ा बन रही है.आगे एलान भी कर दिया जाता है कि उसी विचार धारा वाले दूसरे की भी हत्या कर दी जाएगी .आखिर विचार वैभिन्य से इतना डर क्यों?आखिर सबको भेड़ बनाने की यह योजना क्यों?एक मुसलमान की हत्या केवल अफवाह के कारण कर दी जाती है और उसको उचित सिद्ध करने की भी कोशिश की जाती है.दोनों घटनाएँ दो जगह घटती है,पर क्या ये दोनों व्यक्ति मात्र हैं क्या आम जनता के निरीहता के प्रतीक नहीं हैं.क्या आम आदमी ने अपने को कभी इतना निरीह महसूस किया था?मैंने आपातकाल देखी है .और उसका अपने ढंग से दूसरों के साथ कन्धा मिला कर विरोध भी किया था, क्योंकि मालूम था कि ज्यादा से ज्यादा क्या होगा और कौन उसको अंजाम देगा?,पर आज तो यह भी मालूम नहीं है कि अंत क्या होगा?यह अनिश्चितता वातावरण को और भयावह बना रही है. ऐसा कभी नहीं हुआ था.यह भी तर्क दिया जा रहा है कि कालमुर्गी की हत्या कर्णाटक में हुई और अख्लाख़ उत्तर प्रदेश में मारा गयाऔर इसमे कहीं भी भाजपा का शासन नहीं है,पर क्या इतना ही कह देना प्रधान मंत्री को उनकी जिम्मेवारी से मुक्त कर देता है?कालमुर्गी की हत्याके बाद धमकियाँ दी गयी कि ऐसा अन्य के साथ भी हो सकता है.आखिर कौन हैं ये धमकियाँ देने वाले?उनपर लगाम क्यों नहीं कसा जा रहा है?क्या ऐसा पहले हुआ था?अख्लाख़ की हत्या तो ऐसी हत्या है,जो सम्पूर्ण राष्ट्र में अशांति का वातावरण करने में सक्षम है.जब एक झूठे अफवाह पर किसी की हत्या हो सकती है,तो ऐसा कहीं भी कभी भी हो सकता है.हम कहाँ सुरक्षित महसूस करें? उसपर जन प्रतिनिधियों की प्रतिक्रिया ?
नहीं संयोजक जी,यह एक ऐसा भयावह वातावरण है जैसा कभी नहीं था.यहाँ तक कि आपातकाल में भी नहीं था.ज्ञात दुश्मन सेलड़ने में आसानी होती है और आपातकाल में ऐसा ही था,मैंने उस वातावरण को झेला है,पर आज तो यह भी ज्ञात नहीं है कि दुश्मन कौन है और कब वार करेगा?आज तो यह भी ज्ञात नहीं है कि एक हिन्दू मुसलमान पर वार करेगा या एक मुसलमान हिन्दू पर?या कि दलित एक अगड़े पर कि एक अगड़ा पिछड़े पर वार करेगा?वातावरण किसके पक्ष में बन रहा है यह भी तो ज्ञात नहीं?प्रचार किया जा रहा है कि यह सरकार उच्च वर्गीय और धनी हिन्दू पुरुषों के लिए है,पर क्या वे भी अगर दूसरी विचार धारा वाले हैं तो इस वातावरण में असुरक्षित नहीं हैं क्या?अतः चंद लोगों को छोड़कर जब सम्पूर्ण राष्ट्र डरा हुआ है,तो एक साहित्यकार उस आंच को सबसे ज्यादा महसूस करेगा,क्योंकि उसके पास एक संवेदनशील दिल भी तो है.उसके पास प्रतिरोध या विरोध का जो सबसे बड़ा हथियार है,वह उसको इस्तेमाल करने पर वाध्य हो गया है. अवार्ड लौटाना क्या उतना आसान है जितना हम और आप समझ रहे हैं?
अतः विद्य जनों से यही निवेदन है कि इन घटना क्रमो की तह तक जाएँ और उन साहित्यकारों की पीड़ा को समझें.पर उसके लिए संवेदनशीलता की शर्त भी है संवेदन विहीन इंसान(?)इस पीडा को कभी नहीं समझ पायेगा.

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  1. लोग कहते हैं कि असहिष्णुता नहीं बढ़ी है और डर का कोई कारण नहीं,तो यह क्या हैं? जब इन महानुभाव को खुली छूट मिली हुई है यह सब कहने की,तो लोग कैसे नहीं डरेंगे? क्या इनके विरुद्ध अभी तक कोई कार्रवाई की गयी?इसीलिए मैं कहता हूँ कि आज स्थिति आपातकाल से ज्यादा खराब है.https://crimeindiaonline.com/news.php?news_id=927

  2. पिछले कई वर्षों में मैंने लेखक के विचारों को समझने का प्रयास किया है| हर बात पर मेरे नाम से खिन्न और मुझे आईना देखने को कहते बे-पेंदे लोटे के समान अस्थिर महाशय जी स्वयं एक पाखण्ड हैं|

    • जो आदमी स्वयं स्वीकार करता है कि अधेड़ावस्था के कारण वह आलेख को पूरा पढ़ नहीं पाता है,उसकी टिप्पणियों का मैं क्या उत्तर दूँ और क्यों उत्तर दूँ?दूसरी बात,जो बिना सोचे समझे और विश्लेषण किये भक्ति गान अलापता रहता है,उसकी टिप्पणियों का उत्तर देना भी मैं वाजिब नहीं समझता.रह गयी नाम और पाखंड की,तो ठीक है,आपका नाम अगर आपके माता पिता ने इंसान ही रखा है,तो मुझे क्या ऐतराज?जहाँ तक पाखण्ड का प्रश्न है,मैं तो अपने को पाखण्ड और पाखंडियों का दुश्मन समझता हूँ,फिर भी मैं आपको पाखंड नजर आता हूँ,तो उस नजर को आप कायम रखिये.

  3. मेरे इस आलेख पर कुछ टिप्पणियां तो आयी हैं,पर उम्मीद से कुछ कम हैं,पर हैं अपेक्षा के अनुरूप हीं.ऐसे भी कुछ टिप्पणियां ऐसी है,जो साधारणतया, चकित करती है,पर मैं अब इन सब बातों का इतना अभ्यस्त हो चूका हूँ कि मुझ पर प्रभाव नहीं पड़ता,.
    सबसे पहले डाक्टर मधुसूदन की टिप्पणी है और सबसे मजेदार और हंसी योग्य भी वही है.डाक्टर साहिब अगर अपनी टिप्पणी पढ़ेंगे तो उनको स्वयं समझ में आ जाएगा कि वे लड़कपन कर गए.ऐसे यह टिप्पणी इस योग्य नहीं है कि इस पर आगे विचार विमर्श किया जाये,पर उनकी जानकारी के लिए मैं यह बतादूं कि मैं भागने वालों में से नहीं हूँ.मैंने बहुत बार पहले भी जान हथेली पर रख कर कम किया है.अब तो मैं जिंदगी के उस पड़ाव पर हूँ,जिपर मैं प्रत्येक क्षण मैं उसको गले लगाने को तैयार हूँ.
    आगे तथाकथित इंसान की दो टिप्पणियां हैं,जो उनके उस मष्तिष्क की उपज है जिसमे इतना धैर्य भी नहीं है की वे आलेख को पूरा पढ़ सकें,तो वैसे आदमी की बातों की और ध्यान ही क्यों देना. पर एक सलाह अवश्य दूंगा कि आदमियों में अपनी गिनती कराने के लिए कभी कभी दर्पण भी देख लें,तो उनको पता चलेगा कि वह टिप्पणी जो उन्होंने अन्य के लिए की है,वह उनके स्वयं के लिए ज्यादा उपयुक्त है.
    अब सामने आती है,श्री महेंद्र सिंह की टिप्पणी यह एक कट और पेस्ट टिप्पणी है ,अतः साधारणतः ऐसे टिप्पणियों को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता ,पर आज मैं कुछ समय से मलेशिया में हूँ और इस छोटे प्रवास में मैंने मलेशिया को समझने का प्रयास किया है.मैं जहाँ रहता हूँ,वहां कुछ अन्य प्रवासी हिन्दू भी हैं और कुछ यहाँ बहुत अरसे से बसे हुए हिन्दू भी हैं.पच्चास साथ वर्षों पहले बना हुआ एक मंदिर भी है यहाँ.वहां नवरात्री में विधिवत दुर्गा पूजा हुई और दशमी को रावण दहन भी हुआ.इतना ही नहीं.इस छोटे प्रवास में मैं करीब एक तरफ तीन सौ किलोमीटर और दूसरी तरफ करीब आठ सौ किलोमीटर मलेशिया का चक्कर भी लगा चुका हूँ .यहाँ मुझे बहुत से मंदिर देखने को मिले.पता चला कि यहाँ भारत से,खासकर तमिळनाडू से आकर बहुत से हिन्दू परिवार स्थाई रूप से बस गए हैं और मलेशियन इंडियन के रूप में जाने जाते हैं,वे मुख्य रूप से हिन्दू है.क्या यह आश्चर्य नहीं है कि एक मुस्लिम देश में आकर हिन्दू अच्छी तरह से रह रहे हैं.पता चला कि यहाँ यहां का दूसरा सबसे धनी आदमी मलेशियन इंडियन ही है.तमिल यहाँ के सरकारी भाषाओं में से है.
    अंत में जो टिप्पणी आयी है वह श्री बी.एन.गोयल की टिप्पणी है.एक संतुलित टिप्पणी है.गोयल जी ने अपने ढंग से इसे विश्लेषण किया है,जिससे बहुत हद तक सहमति जताई जा सकती है,पर गोयल जी ने जो सभी असहयोग करने वालों को ब्रैंडेड करने की कोशिश की है,वह गलत है.उसमे ऐसे लोग भी हैं ,जिसका कोई राजनैतिक झुकाव नहीं है.यह तो उसी तरह का हो गया कि अगर कोई कहता है कि वह नास्तिक है,तो लोग तुरत कह देते है कि वह कम्युनिष्ट है,पर वास्तविकता इससे परे है. यह कोई आवश्यक है कि जो अवार्ड नहीं लौटा रहे हैं,उनमे कोई कम्युनिष्ट नहीं है?

    • आज आपात्काल से भी खराब स्थिति है, यह, कहना आपका असत्य है।

      आ. सिंह साहब आप निम्न प्रश्नों का उत्तर क्रमवार दीजिए। फैला कर नहीं।

      श्री. सिंह कहते हैं =>(१)**परिस्थितियां आपातकाल से भी खराब है। इसका उत्तर बिना विवाद हाँ है.लोग डरे हुए हैं**
      मधुसूदन कहता है==> तो आपको यह आलेख लिखनेपर डर ही, लगता होगा? {उत्तर दीजिए)
      पर, प्रवक्ता आपका यह डरवाला आलेख बिना संकोच प्रसारित भी करता है।(कैसे? स्पष्ट कीजिए।)
      (२) क्या, आप भी इस डर के मारे मलेशिया पहुंचे है ? (सच? सुसंगत उत्तर दीजिए)
      (२अ) फिर भी शासन के विरोध में लिख ही रहे हैं ? (कैसे? सुसंगत उत्तर दीजिए)
      (५) वापस नहीं जाएंगे क्या? (कोई सुसंगत स्पष्टीकरण है?)
      (६) (टिप्पणी मधुसूदन की)यदि वापस आ रहे हैं, महाराज, स्पष्ट है, कि, आप को डर नहीं लग रहा।
      तो डर की बात आप कर रहे हैं, वह ही असत्य है।
      ===================================================
      आप स्वयं ही, स्वयं के आलेख में असंगत लिखकर अपनी ही बात काट रहे हैं। आपके पास उत्तर नहीं है; तो स्वीकार कीजिए। आप गलती भी कर सकते हैं। बुरा ना मानें।
      (७) आप बिलकुल निडरता से आलेख लिख रहे हैं। और आपात्काल जैसी भी स्थिति नहीं है।
      आपका पासपोर्ट तो अपहृत नहीं हुआ है।
      (८) आपात्काल में इन्दिरा गांधी ने अमरिका में विरोधी प्रवासी भारतीयों के पासपोर्ट अपहृत ( जप्त) किए थे। जानते हैं आप?
      मधुसूदन

      • डाक्टर मधुसूदन,आपने बहुत से प्रश्न एक साथ पूछ डाले हैं .
        मेरी सरकार मेरे इस आलेख के लिए क्या सजा तय करेगी,यह मेरे और मेरी सरकार के बीच का मामला है,इसमें आप दखल देने वाले कौन होते हैं?आपातकाल के बारे में मैंने क्या लिखा है,उसको फिर से पढ़िए,तब पता चलेगा कि वह सब बातें वहां लिखी हुई है ,जो आप यहाँ अपनी धून में अलापे जा रहे हैं.
        आपको पता नहीं कितनी समझ है एक साहित्यकार,कवि या लेखक को,पर अब तो दायरा बहुत बड़ा होता जा रहा है.आप जैसे प्रवासी भारतीय अपने सुरक्षित माहौल में क्या सोच रहे हैं,उससे तो कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखाई देता.
        .मैं तो आपातकाल में भी नहीं डरा और उस ग्रुप का हिस्सा था ,जो इंदिरा सरकार के विरुद्ध काम कर रहा था.
        ऐसे भी फेशबुक पर आ रहा है कि आज के माहौल में सबसे सुरक्षित उच्च जाति का पुरुष वर्ग है.उस लिहाज से भी मैं बहुत हद तक सुरक्षित हूँ.
        आप बिन्दुवार टिप्पणी की बात बहुधा करते रहते हैं.चाहे वह आपके आलेख से सम्बंधित हो,या दूसरे का. मेरी विनम्र सलाह यही है कि इसको अपने ही आलेख तक सीमित रखें.आलेख का रचयिता किसी भी टिप्पणी का बिन्दुवार उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं है,वह भी तब जब उसने सब कुछ साफ़ साफ़ लिखा हुआ है.ऐसे भी मैंने अपने आलेख की परिणति इसी वाक्य से की है कि कोई भी संवेदन हीन व्यक्ति इस भावना को नहीं समझ सकता.इसके बाद भी कुछ कहने के लिए शेष रह जाता है क्या?

        • अच्छा।
          (१) आप बिन्दूवार उत्तर नहीं दे सकते; ये तो स्वीकार किया। (अब पलट न जाइएगा।)
          (२) आलेख का लेखक विषय चुनने में अवश्य स्वतंत्र होता है, पर जो लिखता है, उसकी सच्चाई के लिए उत्तरदायी होता है; उस उत्तरदायित्व से वह भाग नहीं सकता।
          (३) टिप्पणी कार और लेखक के उत्तरदायित्व का अंतर होता है।
          (४) जो छात्र विषय नहीं जानता; वह पूछे हुए प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता, तो, गोल गोल बाते लिख देता है। ऐसा मेरा बृहत अनुभव है। मैं मात्र मेरा अनुभव कह रहा हूँ।
          (५) आप को मैं अंतिम टिप्पणी का अवसर देता हूँ।
          आप के पास उत्तर हो, तो, उसी टिप्पणी में पूछे गए, प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
          मात्र अपवादात्मक स्थिति में ही प्रत्युत्तर दूंगा।

          • मैं किसी बिंदु या सम्पूर्ण वाग्धारा पर विचार करने से न कभी भागा हूँ ,न कभी भागूंगा.मेरी यह टिप्पणी प्रवक्ता.कॉम के प्रबंधकों के द्वारा संशोधित होने के बाद प्रकाश में आई है,नहीं तो आपको तो ऐसी मिर्ची लगती कि आप तड़प उठते.खैर आप बकवास को बिंदु कहेंगे और उसपर उत्तर मांगेंगे,तो .मेरी तरफ से आपको निराशा मिलेगी.अब मैं फिर से आपके बिन्दुओं को देखता हूँ,पर पता नहीं ये उत्तर आप तक पहुंचेंगे या नहीं.
            अब आपकी एक से छह तक की बकवास का उत्तर .हाँ हालत आपातकाल से भी खराब हैं और क्यों हैं इसका उत्तर मेरे आलेख में मौजूद है.या अंश का अवलोकन कीजिये:”उसको यह नहीं समझ में आ रहा है कि क्या आज की परिस्थितियां आपातकाल से भी खराब है?इसका उत्तर बिना विवाद हाँ है.लोग डरे हुए हैं और उनको पता भी नहीं चल रहा है कि वे क्यों डरे हुए हैं?आपातकाल में भी लोग डरे हुए थे. हो सकता है इससे ज्यादा डरे हुए हों,पर उनको पता था कि वे क्यों डरे हुए हैं?उस समय उन्हें पता था कि उन्हें शासन से डरना चाहिए,क्योंकि वह किसी को भी बिना कारण पूछे जेल भेज सकता हैं,पर जिंदगी जाने का डर नहीं था. आज तो वातावरण यह है कि लोग यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कौन सुरक्षित है और कहाँ सुरक्षित है? कबतक सुरक्षित है?कहीं भी कभी भी किसी की हत्या हो सकती है और शासन उस पर कार्रवाई करेगा कि नहीं उसकी इच्छा पर निर्भर है.वह इसपर निर्भर है कि किसकी हत्या हुई है और हत्यारा कौन है? ज्वलंत प्रश्नों पर प्रधान मंत्री की चुप्पी वातावरण को और भयावह बना रही है.ऐसा कभी भी नहीं हुआ था,एक लेखक मार दिया जाता है,क्योंकि उसकी विचार धारा हमारे रास्ते का रोड़ा बन रही है.आगे एलान भी कर दिया जाता है कि उसी विचार धारा वाले दूसरे की भी हत्या कर दी जाएगी .आखिर विचार वैभिन्य से इतना डर क्यों?आखिर सबको भेड़ बनाने की यह योजना क्यों?एक मुसलमान की हत्या केवल अफवाह के कारण कर दी जाती है और उसको उचित सिद्ध करने की भी कोशिश की जाती है.दोनों घटनाएँ दो जगह घटती है,पर क्या ये दोनों व्यक्ति मात्र हैं क्या आम जनता के निरीहता के प्रतीक नहीं हैं.क्या आम आदमी ने अपने को कभी इतना निरीह महसूस किया था?मैंने आपातकाल देखी है .और उसका अपने ढंग से दूसरों के साथ कन्धा मिला कर विरोध भी किया था, क्योंकि मालूम था कि ज्यादा से ज्यादा क्या होगा और कौन उसको अंजाम देगा?,पर आज तो यह भी मालूम नहीं है कि अंत क्या होगा?यह अनिश्चितता वातावरण को और भयावह बना रही है.”
            अब मैं
            आपके दो से छःतक के बिन्दुओं का एक साथ उत्तर देता हूँ.मेरी मलेशिया यात्रा का इस आलेख से कोई लेना देना नहीं है,और मेरा यह कार्यक्रम छः महीने पहले से तय था.रही बात डरने की,तो आपातकाल और मेरे कार्यक्रम का विवरण भी उपरोक्त अंश में है.मैं मलेशिया से अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार लौटूंगा, पर इसमें आपके अनाधिकार दखल का उत्तर देने को मैं बाध्य नहीं हूँ और न इस बकवास का इस आलेख से कोई सम्बन्ध है.
            इसके बाद आपने लिखा है कि आप डर नहीं रहे हैं,तो इसका मतलब आपातकाल से स्थिति खराब नहीं है.यह आप नहीं, आपकी भक्ति बोल रही है,क्योंकि आपने मेरा लिखा हुआ पढ़ा ही नहीं ,कि मैं आपातकाल में क्या करता था.डाक्टर मधुसूदन मैं मौत से नहीं डरता,अतःकिसी भी भयावह परिस्थिति में मेरे डरने की बात ही कहा उठती है?.

          • डाक्टर साहिब इसका उत्तर मैं ७ नवम्बर को दे चूका हूँ,पर अभी भी इसके बारे में आ रहा है किYour comment is awaiting moderation.प्रवक्ता प्रबंधक जब इसको क्लियर कर देंगे,तभी न आप जान पाइएगा कि मैं उत्तर देने में कतरा रहा हूँ या नहीं ?

  4. आप के लेख से ऐसा आभास हो रह है जैसे भारत देश में बिलकुल अराजकता फ़ैल गयी है. लोग डरे हुए हैं
    “आपातकाल से भी अधिक डरे हुए हैं” – मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि आपातकालीन के भुक्त भोगी अभी काफी लोग हैं । मैंने वह मंज़र स्वयं देखा है । आप कहते हैं की “आज तो वातावरण यह है कि लोग यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कौन सुरक्षित है और कहाँ सुरक्षित है? कबतक सुरक्षित है? कहीं भी कभी भी किसी की हत्या हो सकती है और शासन उस पर कार्रवाई करेगा कि नहीं उसकी इच्छा पर निर्भर है।” क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है । आप कहते हैं कि “एक लेखक मार दिया जाता है,क्योंकि उसकी विचारधारा हमारे रास्ते का रोड़ा बन रही है. आगे एलान भी कर दिया जाता है कि उसी विचार धारा वाले दूसरे की भी हत्या कर दी जाएगी” – क्या ऐसा एलान किया है किसी ने – प्रश्न है उस राज्य की सरकार क्या कर रही है? राज्य में शांति व्यवस्था किस का उत्तरदायित्व है? वास्तव में आप का लेख अधिक डरावना है। मैं किसी दल विशेष का व्यक्ति नहीं हूँ लेकिन मैं यह कह सकता हूँ की यह वातावरण ‘वामपंथी विद्वानों’ की देन है। उन्हें चिंता अपने अस्तित्व की है । इन्हीं लोगों ने अपनी ही पार्टी के एक हीरा जैसे व्यक्ति – सोम नाथ चैटर्जी – को अपने दल से निष्कासित कर दिया था । यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि सत्तासीन व्यक्ति भी दूध के धुले नहीं हैं । पुणे के फिल्म संस्थान के निदेशक को लेकर वे जो थूका फजीहत करा रहें हैं वह भी अक्षम्य है । ग़ालिब का एक शेर है – या रब न वो समझे हैं, न समझेंगे मेरी बात। दे उन को दिल और, जो न दे मुझे ज़ुबान और ।।

  5. आज मोदी शासन विरोधी निबंध श्रृंखला में प्रस्तुत कुलेख मुझे अतीत में ले जा भारतीय उप महाद्वीप के मूल निवासियों की याद दिलाता है जिन्हों के स्वैच्छिक सहयोग और सहायता के बिना फिरंगी सदियों तक भारतीय भूखंड पर कभी न रह पाते|

    मैं व्यक्तिगत रूप से मोदी-भक्त नहीं हूँ केवल राष्ट्रवादी हूँ| कल तक अरविन्द केजरीवाल जी को राष्ट्रवादी मान भ्रष्टाचार-की-जननी कांग्रेस का छाया कहते बीजेपी का विरोध करता रहा हूँ| भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर नरेन्द्र मोदी जी के उजागर होने पर मुझे विश्वास हो चला था कि केजरीवाल जी की आआप और मोदी जी के नेतृत्व में बीजेपी दोनों मिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विकल्प बन भारत का पुनर्निर्माण कर पाएंगे| लेकिन भारतीय राजनैतिक इतिहास में तथाकथित नेताओं ने राष्ट्रवाद का उल्लंघन कर सदैव राष्ट्र-विरोधी तत्वों का साथ दिया है और परिणामस्वरूप आज हम सब दीमक के टीले पर बैठ राष्ट्रवादी मोदी जी का विरोध करने में किंचित भी संकोच नहीं करते हैं|

    मेरी न भी मानो, तनिक सोचो मोदी जी दीमक के टीले को और कितनी क्षति पहुंचा पाएंगे? जब चिरकाल से लुटेरों, आक्रमणकारियों, और कांग्रेस के बीच स्थिर बैठे रहे हो तो मोदी जी भी हमारे आपके नगण्य अस्तित्व को अस्थिर नहीं कर पाएंगे| क्या हुआ जो हम और आप भी थाली लौटा लिए देश के उन दो-तिहाई जनसमूह के संग कतार में बैठ जाएंगे जो कांग्रेस की राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम २०१३ के आश्रय हो गए हैं| परन्तु अनंत प्रश्न बना रहेगा, अपना कीमती वोट किसे देंगे? मन में राष्ट्रवाद होगा तो प्रश्न का उत्तर वह सुंदर समृद्ध भारत होगा जिसकी कल्पना अभी केवल एक निठल्ला भारतीय कवि ही कर सकता है| निर्वाचनों में बहुसंख्यक समर्थन प्राप्त कर मोदी जी १२५-करोड भारतीयों में कर्मशील संगठित लोगों को उनके साथ चलने का आह्वान करते कवि की कल्पना को साकार करने का कह रहे हैं| उन्हें मत रोको|

  6. Hum to ise pakhand hi kahenge. Aap jaise logon ke chalte Kashmir Hindu viheen
    ho gaya, Bangladesh ho hi raha hai, Assam or Bengal kagaar par haim. In kalakoron ki samvedna nahi jagrook nahin hui jab Hinuon a mass murder Godhra mein hua, jiske chalte riot ki vibhishika hui. Aap jaise logon ki aawaz kahan chali gayi thi? Uspar aap Godhra ke liye Rajya sarkar ko dosh dete hain.

    Gandhi ne jitna nuksaan Hinduon ka kiya utna kam hi logon ne kiya.

    – Mahendra

  7. आलेख में एक सशोधन:.मेरी असावधानी से कालबुर्गी जगह काल मुर्गी लिख गया था,वह ज्यों का त्यों आ गया है,प्रवक्ता प्रबंधकों ने हमेशा की तरह कलम का सम्मान किया है और आलेख को बिना संशोधन प्रवेक्षों के सामने लाने का प्रयत्न किया है. लेखकों और टिप्पणी कारों के लिए इसी स्वतंत्रता ने तो मुझे प्रथम दिवस से ही प्रवक्ता के युवा प्रबंधकों का प्रसंशक बना दिया है.

    • आ. सिंह साहब आप कहते हैं:
      आज =>**परिस्थितियां आपातकाल से भी खराब है?इसका उत्तर बिना विवाद हाँ है.लोग डरे हुए हैं** तो आपको यह आलेख लिखनेपर डर ही, लगता होगा? पर, प्रवक्ता आपका यह डरवाला आलेख बिना संकोच प्रसारित भी करता है। और, आप भी इस छद्म डर के मारे मलेशिया पहुंचे है ? फिर भी शासन के विरोध में लिख ही रहे हैं ? वापस नहीं जाएंगे क्या? क्या स्पष्टीकरण है।
      बहुत प्रश्न है, बस इसीका उत्तर पहले दें।
      मधुसूदन

      • नहीं जी, देश के बाहर आवास करते रमश सिंह जी को कुलेख लिखते कोई डर नहीं लगता है| डर तो इन्हें उन सभी अच्छे और बुरे लोगों के समान लगता है जिनके कारण देश में फैली गंदगी और गरीबी के दूषित वातावरण में उनकी संतान खुल कर सांस भी नहीं ले पाएंगी| जहाँ तक मोदी-शासन के विरोध की बात है, विरोध तो इनकी पीढ़ी के भारतीय चरित्र में फिरंगी अवशेष चिरकाल तक बने रहेंगे|

      • आज से करीब एक वर्ष पहले आपने यह लिखा था.उसके बाद लौट कर भारत में वही सब लिखता रहा,जो मलेशिया से लिखता था.कभी कभी तो उससे भी ज्यादा.खासकर फेसबुक और ट्विटर पर.अब मैं आपके देश में पहुँच रहा हूँ और वहां भी कुछ दिन बीता कर फिर अपने देश में वापस आ जाऊँगा.

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