शोकाकुल अर्जुन को गीता वाणी से मिली मुक्ति

            आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार

युद्ध क्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित सेना के मध्य सभी सगे सम्बंधियो को महाभारत युद्ध में शामिल देख अर्जुन शोक से ग्रसित हो गया तब श्रीभगवान श्रीकृष्ण उन्हें गीता के ज्ञान द्वारा युद्ध के लिए प्रेरित करते है किन्तु अर्जुन को भगवान्‌ की वाणी सुनायी नहीं पड़ती;  किन्तु कृष्ण ने देखा की जिस तत्त्व का साक्षात्कार वे अर्जुन को कराने की इच्छा रखकर बोलते हैं उसे अर्जुन समझ नही पता है तब वे उसे धर्मानुष्ठान रूप से उसके कर्तव्य का पालन कराने हेतु उसके चित्त की वासना से उसे मुक्त कराना शुरू करते है ताकि उनकी वाणी को अर्जुन सुन समझ सके। भगवन श्रीकृष्ण अर्जुन के चित्त को वासनारहित अर्थात उसके अन्तःकरण की शुद्धि कर , जब उसका हृदय वासना के उपराग से रहित कर, अपने ज्ञान-चन्द्र पर राग का उपराग का ज्ञान कराते तब श्रीकृष्ण की वाणी को ग्रहण करने में अर्जुन सक्षम हो पाता है. ध्यान देने वाली बात है कि जब प्रथम बार अर्जुन, जो श्रीकृष्ण के परम मित्र और चचेरे भाई भी थे, भगवान श्रीकृष्ण को अपना गुरु बनने की प्रार्थना करते हैं तब अर्जुन श्रीकृष्ण के सम्मुख यह स्वीकार करते हैं कि उन पर ‘कार्पण्यदोष’ हावी हो गया है अर्थात उनका आचरण कायरों जैसा हो गया है इसलिए वह श्रीकृष्ण को अपना गुरु बनने और उन्हें धर्म के पथ पर चलने का उपदेश देने के लिए निवेदन करते हैं।

अर्जुन जैसे शिष्य का दोष गुरु श्रीकृष्ण के समक्ष आ जाता है जिसमे अर्जुन न तो सफाई देते है न कोई प्रतिवाद करते है कि ‘मुझे मोह नहीं है।’  अर्जुन का यह स्वीकारना गीता के अध्याय 2 श्लोक 7 में देखा जा सकता है- कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः। यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥  अर्थात अर्जुन स्वीकार करता है कि मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ और गहन चिन्ता में डूब कर कायरता दिखा रहा हूँ। मैं आपका शिष्य हूँ और आपके शरणागत हूँ। कृपया मुझे निश्चय ही यह उपदेश दें कि मेरा हित किसमें है। अर्जुन श्रीकृष्ण की शरण में जाता तो है किन्तु शरणागत नही होता जबकि “सत्य को जानने के लिए उसे श्रीकृष्ण गुरु की शरण पाकर श्रद्धापूर्वक उनसे तत्त्व ज्ञान प्राप्त करना था जो वह अपने को प्याज के छिलकों की तरह अनावृत कर रहा था और गीता का अमृतपान कर रहा था। गीता का परमज्ञान प्रकाशस्वरूप, आनन्दरूप चन्द्र है जिसपर राग-वासनासक्ति से ग्रहण लग जाता है। हमारे भीतर ज्ञानरूप से स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान हैं- बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् | बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ||7-10|| गीता में वे स्पष्ट करते है की वे ही समस्त जीवों का आदि बीज है और बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूँ ।’ हमारे हृदय में बुद्धि बनकर भगवान् बैठे हैं; किन्तु उनकी बात हम सुनते कहाँ है?  यह पुत्र हैं,  यह धन है, यह परिवार है, यह व्यापार है आदि में आसक्ति करके हम भगवान्‌ श्रीकृष्ण की वाणी कहाँ सुन पाते है जो अनित्य हैं।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण की वाणी जब कहती है धन, पुत्र, परिवार, शरीर में आसक्त होना उचित नहीं है, तब हम कहाँ उसे सुनते है? जब तक अन्तःकरण में राग है,  श्रीकृष्ण की वाणी सुनायी नहीं पड़ती। सुनायी पड़ने पर भी जैसे प्रारम्भ में अर्जुन को समझ में नहीं आती, तब हमारी अर्जुन से क्या तुलना? अगर हमारी समझ में आ भी जाए तो हम उसे मानने को राजी नही होते है, इसलिए हम नित्य प्रार्थना करते हैं, कितुं इसके बाबजूद भी हमारी प्रार्थना में कभी मन की स्थिरता न होने से दृष्टि की शुद्धता का अभाव होता है। हम किसी का पाप; किसीकी बुराई लिए होते है इसलिए हमारी दृष्टि शुद्धता में दोष आ जाता है और हृदय में मित्रभाव तिरोहित रहता है। श्रीकृष्ण की वाणी सुनने के लिए हृदय को रागद्वेष रहित करना होता है अन्तः करणकी शुद्धिके लिये स्थूल शरीर की-इन्द्रियों की प्रवृत्ति शुद्ध हो, यह प्रार्थना की जाती है। राग-द्वेष की निवृत्ति से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। वासनानुसार व्यवहार से अन्तःकरण की शुद्धि नहीं होती और काम, क्रोध, लोभ, मोह से आबद्ध हम मनुष्य श्रीकृष्ण की वाणी को सुन-समझ  नहीं पाते है। गीता की यह वाणी जीव की वाणी नहीं है। जो पापी-पुण्यात्मा है, जो काम-क्रोध, लोभ-मोह से ग्रस्त है, जो परिच्छिन्न है उसकी नहीं, यह श्रीकृष्ण भगवान्‌ की वाणी है। यह अपौरुषेय वेदवाणी है, ब्रह्म से तादात्म्या पत्र की वाणी है। यह उसकी वाणी है, जिसकी दृष्टि में अविद्या कभी थी ही नहीं। यह भगवान्‌की वाणी कैसी है?- सारं सुष्ठ मितं मधु. वाणी में इन चार गुण की प्रधानता होने चाहिये।

      सारं अर्थात सार-सार कहना, यानी जो कहना उसमें सभी बातें आ जाए सुष्ठ अर्थात् वाणी दोषरहित हो निर्दोष हो, तीसरा मितं अर्थात जो कहना हो उसे कम शब्दों में कोह अनावश्यक बातें न हो और चौथा मधु अर्थात मधुर बोलो, प्रिय लगने वाले शब्दों में कहो . जो दूसरों के हृदय को चोट पहुँचाए, वह वाणी नहीं, वाण है। परमात्मा निर्वाण है। उसमें वाण का-दुःख का लेश भी नहीं है। वह किसीको दुःख नहीं दे सकता;  क्योंकि दुःख उसके पास है ही नहीं। यह वाणी वाण की घरवाली है। इसे सावधानी से सम्हालकर रखो और याद रखों वाणी किसी को पीड़ा देने-वेधने के लिये नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण की वाणी-सारं सुष्ठ मितं मधु’ है, उनका प्रत्येक शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ही नहीं अपितु उपनिषद भाष्य से कम नहीं है। उनके प्रत्येक शब्द पर पूरा पूरा ध्यान रखा जाकर कई विद्वान् उनके वाणीभाष्य श्रीमद गीता के अथाह सागर में डुबकी लगाने उतरे तो उतनी ही गीताभाष्य हमारे सामने है और आज महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक की गीताभाष्य उसके प्रमाण है, जो सबके अपने अपने ज्ञान बुद्धि की घोषणा करते है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को इस प्रकार के ज्ञान का भ्रम न पालने के उद्देश्य को सिरे से खारिज कर गीता उपदेश में अध्याय-4 श्लोक 37 में कहते है कि -ज्ञान सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देनेवाली अग्नि है- यथैधांसिसमिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥4.37॥  अर्थात जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि लकड़ी को स्वाहा कर देती है उसी प्रकार से हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों से प्राप्त होने वाले समस्त फलों को भस्म कर देती है। श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि ज्ञान में वह शक्ति होती है कि वह इस जन्म में ही हमारे संचित कर्मों की गठरी को भस्म कर सकता है क्योंकि आत्मा का ज्ञान और भगवान के साथ इसका संबंध हमें भगवान की शरणागति की ओर ले जाता है। जब हम भगवान की शरणागति प्राप्त करते हैं तब वे हमारे अनंतकाल के संचित कर्मों को भस्म कर देते हैं और हमें लौकिक बंधनों से मुक्त कर देते हैं। यहाँ  ‘कुरुतः’  शब्द आया है जिसपर बहुत कुछ लिखा गया है की यह शब्द कहाँ से आया !जब श्रीकृष्ण कह रहे है और अर्जुन जिज्ञासु है तब अर्जुन के आक्षेप और जुगुप्सा के लिए यह शब्द आया है जहाँ श्रीकृष्ण जिज्ञासु अर्थात प्रश्नकर्ता नहीं है और न ही अर्जुन से जिज्ञासा करते है.बल्कि श्रीकृष्ण आक्षेप कर रहे हैं कि हे अर्जुन यह तुम्हारे भीतर आने योग्य बात नहीं थी।

 कठोपनिषद् में भी कहा है कि -उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरात्रिबोधत । क्षुरस्यधारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति॥1.3.16 अर्थात -उठो ! जागो ! महापुरुषोंके समीप जाकर जानो; क्योंकि आत्मदर्शी पुरुष आत्मज्ञान के मार्ग को छुरे की धार के समान तीक्ष्ण एवं दुर्गम बतलाते हैं। ‘त्वां’- अर्जुन ! और यह मोह तुम्हें हुआ (यह अधिकारीपर आक्षेप है) तुम इन्द्र देवता-कर्म के अधिष्ठातृ देवता के पुत्र हो और तुम धनुष फेंककर निष्क्रिय होना चाहते हो, यह कैसे योग्य है? अर्जुनका एक अर्थ होता है सीधा। शाल वृक्ष को अर्जुन और धवल कहते हैं। वह एकदम सीधा ऊपर जाता है। बिना मुड़े सीधे उन्नति करनेवाला अर्जुन। अर्जुन’ अर्जनात् अर्जुनः’  अर्जुन जो उपार्जन करनेवाले हो। अर्जन करने  से अर्जुनका नाम धनञ्जय पड़ा है। कीर्ति का उपार्जन भी अर्जुन ने सबसे अधिक किया और यहाँ युद्धारम्भ में भी अर्जुन उपार्जन ही कर रहा है। यहाँ जिस ज्ञानका उपार्जन अर्जुन ने किया, वह महावीर कर्ण, आचार्य द्रोण, परम भागवत भीष्म तथा धर्मराज युधिष्ठिर भी नहीं कर सके। इस प्रकार जो सरल है, उज्वल है और अर्जनशील है, उसमें कश्मल मोह क्यों आना चाहिये ? फिर अर्जुन तो श्रीकृष्ण के परम सखा है।

श्रीकृष्ण को अर्जुन ने अपना सारथी बनाया है। प्रश्न पैदा होता है की श्रीकृष्ण जिसके जीवन रथ के सारथी हों, उसमें मोह कैसे आ सकता है? भगवान्‌के भक्त में भी मोह नहीं आता और अर्जुन के लिये वह स्वयं कहते हैं-‘ भक्तोऽसि मे सखा चेति।’ जो दैवी सम्पत्ति में उत्पन्न हुआ है, उसमें भी मोह नहीं आना चाहिये। अर्जुन के लिये श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण गीता को प्रकट कर दिया तथा गीता के अध्याय-16 श्लोक-5 में अर्जुन को केंद्र में रखकर कहा कि- दैवी संपद्धिमोक्षाय निवन्धायासुरी मता। मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥ अर्थात- दैवीय गुण मुक्ति की ओर ले जाते हैं जबकि आसुरी गुण निरन्तर बंधन की नियति का कारण होते हैं। श्रीकृष्ण कहते है हे अर्जुन! शोक मत करो क्योंकि तुम दैवीय गुणों के साथ जन्मे हो। अतः किसी भी प्रकार अर्जुन में मोह का आना उचित नहीं है। विशेषकर तब जब अर्जुन कर्म के अधिष्ठातृ देवता इन्द्र के पुत्र हो तब उन जैसे विशिष्ट दैवीय गुणों के अधिकारी को गांडीव धनुष बाण का परित्याग कर देना, मोह के दलदल में डूब जाना सर्वथा अशोभनीय है।’ यह अलग बात है की जब साधारण लोगोंको रोना आता है तो वे एकान्तमें रो लेते हैं जिससे उनका दिल हलका हो जाता है। कुछ लोग क्रोध आने पर सिर पीट लेते हैं, अपनी वस्तुएँ तोड़-फोड़ देते हैं।

यह क्या  मोह है? या कहिये कि जीवन्मुक्तकी भाँति मोह आ ही गया है तो उसे दूर करनेका प्रयत्न क्यों न करें ? और यही श्रीकृष्ण करते हुए अर्जुन से कहते है -प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव। न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति ॥ अध्याय 14 श्लोक 22 अर्थात परम पुरुषोत्तम भगवान ने कहा-हे अर्जुन! तीनों गुणों से गुणातीत मनुष्य न तो प्रकाश, (सत्वगुण से उदय) न ही कर्म, (रजोगुण से उत्पन्न) और न ही मोह (तमोगुण से उत्पन्न) की बहुतायत उपलब्धता होने पर इनसे घृणा करते हैं और न ही इनके अभाव में इनकी लालसा करते हैं। अर्जुन को यह समझाना कि –प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह में से कोई आये तो उससे द्वेष नहीं, कोई जाय तो उसे रखने की इच्छा नहीं, यह जीवन्मुक्त का स्वभाव है। अतः यदि मोह आया ही है तो उसे क्यों हटाया जाय?  इसका उत्तर भगवान् देते हैं कि- जब हथियार चलने ही वाले हैं। ‘माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ‘ (1.14) युद्धमें विजयदायी मंगल सूचक शंखनाद हो चुका। अपने बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर को युद्धभूमि में तुम ला चुके। तुम्हारे ही भरोसे वे युद्धोद्यत हुए, भीष्म पितामह तथा दूसरे प्रतिपक्षियोंको शंख बजाकर युद्धकी चुनौती दे चुके और ऐसे कुअवसर में यह मोह आया !

क्षुब्द अर्जुन युद्ध की चुनौती को अस्वीकार कर शस्त्र डाल दे और शारीरिक चेतना के कारण मन क्षुब्ध करने वाले विचार प्रस्तुत करता हो और नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाये तो यह हल नही हुआ बल्कि विषाक्त विचारों से स्वयं को क्षति पहुँचाने की अनुमति देना हुआ लोकातीत अवस्था को प्राप्त मनुष्य गुणों के प्रभाव से मन में उठने वाले सभी नकारात्मक विचारों से दूरी बनाए रखने की कला में पारंगत होता है और यही अर्जुन ने किया उसका पहला विचार अनागत था अर्थात् आपत्ति आने से पहले ही उससे बचने का उपाय सोच लिया, दुसरे लोग होते है वे विपत्ति आ जाने पर बचने का मार्ग निकाल लेते है और तीसरे वे लोग जो दीर्घसूत्री अर्थात समय पर कुछ सोच नहीं पाने वाले, जो सोचने में ही रह जाते हैं और अवसर हाथ से निकल जाता है। ‘अकीर्तिकरं’ कहो कि परलोक में भले हितकारी न हो, इस लोक में सुख देता होगा; सो भी नहीं है। इस लोक में भी यह अपयश ही देनेवाला है। यदि यह सोचो कि युद्ध न करेंगे तो सब स्वजन जीवित रहेंगे, ऐसी बात नहीं है। सब कभी जीवित नहीं रहते। सबको छोड़ना ही पड़ता है। अतः पहलें से छोड़ने की तैयारी रहनी चाहिये।श्रीमद्भागवतमें कहा गया है-‘प्रपायामिव संगमः,’ जैसे दूसरे चलकर आये और प्याऊपर बैठ गये, इधर-उधरसे आये दूसरे यात्रियोंसे भेंट हुई, बातें हुई और फिर सबको अपने- अपने रास्ते जाना है, वैसे ही संसारमें ये स्वजन-सम्बन्धी मिल गये हैं। सबको अपने कर्मानुसार जाना है। यहाँ मोह कर लेने से दुःख ही होगा।गीता अध्याय 2 श्लोक-52-  यदा ते मोहकलिलं बुद्धिव्र्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ जब तुम्हारी बुद्धि मोह के दलदल को पार करेगी तब तुम सुने हुए और आगे सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक के भोगों के प्रति उदासीन हो जाओगे।

श्रीकृष्ण यह व्यक्त करते हैं कि प्रबुद्ध व्यक्ति स्वयं को गुणों की क्रियाशीलता से परे मानते हैं। जब प्रकृति के गुण अपनी प्रवृत्ति के अनुसार संसार में कार्यों को सम्पन्न करते हैं तब वे न तो दुखी और न ही हर्षित होते है। वास्तव में जब वे इन गुणों को अपने मन में भी देखते हैं तब भी वे विचलित नहीं होते। मन प्राकृत शक्ति से निर्मित है और माया के तीनों गुण उसमें निहित होते हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से मन को इन गुणों और इनके समरूप विचारों के प्रभुत्व में रहना पड़ता है।  समस्या यह है कि शारीरिक चेतना के कारण हम मन को अपने से अलग नहीं समझते और इसलिए जब मन क्षुब्ध करने वाले विचार प्रस्तुत करता है तब हम अनुभव नकारात्मक दृष्टिकोण से सोचते है।” हम विषाक्त विचारों से जुड़ते है और उन्हें अपने भीतर प्रश्रय देने की और स्वयं को क्षति पहुँचाने की अनुमति देते हैं। इसकी अति ऐसी होती है कि जब हमारा मन भगवान और गुरु के विरुद्ध विचार प्रस्तुत करता है तब हम उन्हें अपने विचार मान लेते हैं। उस समय हमें मन को अपने से अलग इकाई के रूप में देखना चाहिए, तभी हम नकारात्मक विचारों से स्वयं को आबद्ध करने के योग्य हो सकेंगे। तब फिर हम मन के ऐसे विचारों को इस प्रकार से अस्वीकार करेंगे। स्वर्गसे लेकर ब्रह्मलोकतक जितने लोक हैं, उनमें से भी कश्मल किसी की प्राप्तिका साधन नहीं है। स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति धर्माचरण और उपासना से होती है। नरक की प्राप्तिके लिये साधन नहीं किया जाता। वैसे तो आत्मा को भी शास्त्रोंमें कहीं-कहीं लोक कहा है; किन्तु यहाँ स्वर्गसे तात्पर्य अपने-आपसे भिन्न देश, कालमें स्थितिको कहा है। ऐसे किसी लोकका साधन यह मोह नहीं है।श्रीकृष्ण की वाणी अर्जुन के समस्त मोह को स्वाहा कर उसके शोक का नाश करती है जिससे वे अपने कर्मादि का पालन कर शोक से मुक्ति पाते है.

आत्माराम यादव पीव

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