भारत विश्व का एक ऐसा देश है, जहां भाषाओं की विविधता पाई जाती है। यहां अलग-अलग समूहों द्वारा अनेक भाषाएं बोली,पढ़ी,लिखी व समझी जाती हैं, लेकिन भारत के संविधान में हिंदी को भारत की राजभाषा ( यानी कि आफिशियल लैंग्वेज) का दर्जा प्राप्त है। गौरतलब है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार, देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी को संघ की आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। यह(हिंदी)भारत की मातृभाषा भी है तो भारत की प्रथम राजभाषा भी। गौरतलब है कि भारत की द्वितीय राजभाषा अंग्रेजी है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि वर्ष 2011 की भाषायी जनगणना के अनुसार: भारत में 121 मातृभाषाएँ हैं। एक उपलब्ध जानकारी के अनुसार 55% आबादी हिंदी को या तो मातृभाषा के रूप में या अपनी दूसरी भाषा के रूप में जानती है तथा आज दुनिया में लगभग 60-65 करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं, जिससे यह विश्व में तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन चुकी है।सच तो यह है कि अंग्रेजी और मंदारिन(मंडारिन) चीनी के बाद हिंदी का स्थान प्रमुख है। हिंदी न केवल भारत में, बल्कि आज विश्व के कई अन्य देशों जैसे कि नेपाल, मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, और पाकिस्तान में भी बोली, पढ़ी, लिखी और समझी जाती है और विश्व के बहुत से देशों ने आज हिंदी के महत्व,इसकी वैज्ञानिकता,इसकी दमदार शब्दावली को सहज ही स्वीकार किया है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1971 से वर्ष 2011 के बीच हिंदी बोलने वालों की संख्या 2.6 गुना बढ़कर 20.2 करोड़ से 52.8 करोड़ हो गई। वर्ष 2011 के बाद से अब तक इस संख्या में बहुत अधिक इजाफा हुआ है और यह हम सभी को गौरवान्वित महसूस कराता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हिंदी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रभाव छोड़ रही है और निरंतर आगे बढ़ रही है। हाल ही में यानी कि 26 जून 2025 को नई दिल्ली स्थित भारत मंडपम में हमारे देश के केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने केंद्र सरकार के राजभाषा विभाग की स्वर्ण जयंती समारोह में भाग लिया। इस दौरान उन्होंने यह बात कही कि ‘हिंदी किसी भी भारतीय भाषा की विरोधी नहीं है, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं की मित्र है।’ बहरहाल, कहना चाहूंगा कि आज हमारे देश में भाषा को लेकर तरह-तरह की राजनीति की जाती है, इसे कदापि ठीक व जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। इससे बड़ी विडंबना की व दु:खद बात भला और क्या हो सकती है कि आज भाषाओं को लेकर कहीं भी कोई न कोई जुबानी जंग छिड़ जाती है। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि लोगों को आपस में जोड़ने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भाषा को ही माना जाता है और हिंदी हमारे देश की वह भाषा है, जो सदियों सदियों से हमारे देश भारत को एकता व अखंडता के सूत्र में पिरोए हुए हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि हिंदी किसी भी भाषा की विरोधी कतई नहीं है। हिंदी वह भाषा है, जिसमें हमारे देश की सनातन संस्कृति की झलक मिलती है, तथा यह हमारे सामाजिक ताने-बाने को मजबूत व सुदृढ़ रखे हुए है, स्वतंत्रता के पूर्व से लेकर, हमारे देश की स्वतंत्रता प्राप्ति और इसके बाद भी निरंतर अब तक हिंदी अपनी संस्कृतनिष्ठता,व्यवस्थितता और अपने लचीलेपन से इसका प्रयोग ज्ञान-विज्ञान से लेकर साहित्य, और संचार के विभिन्न माध्यमों में लगातार बढ़ता ही चला जा रहा है, जो हमें गौरवान्वित करती है। हमें अपनी मां बोली हिंदी पर या यूं कहें कि अपनी मातृभाषा पर गर्व करना चाहिए। हम अंग्रेजी का विरोध नहीं करें, क्यों कि कोई भी भाषा कभी भी अच्छी बुरी नहीं हो सकती है। सभी भाषाओं का अपना-अपना महत्व है। इसलिए हमें यह चाहिए कि हम सभी भाषाओं या ज्यादा से ज्यादा भाषाओं को सीखने का प्रयास करें, यह हमारे ज्ञान में बढ़ोत्तरी करेगा वहीं व्यवहार में भी ये भाषाएं हमारे कहीं न कहीं अवश्य काम में आयेंगी, लेकिन हमें यह चाहिए कि भारत के निवासी होते हुए हम सबसे ज्यादा तवज्जो अपनी मातृभाषा हिंदी को दें। अपनी मातृभाषा को छोड़कर,उसे तिलांजलि देकर, दूसरी भाषाओं को अपनाकर , या उन्हें सीखकर हम कभी भी आगे नहीं बढ़ सकते, क्यों कि जो बात हम अपनी मातृभाषा में सहजता और सरलता से कह सकते हैं, अभिव्यक्ति दे सकते हैं,वह शायद विश्व की किसी अन्य भाषा में नहीं। हिंदी भाषा भारत की विविध संस्कृतियों को एकजुट करने और सामाजिक एकीकरण की भावना पैदा करने में एक सेतु का काम करती है। महात्मा गांधी जी ने राष्ट्रभाषा के बारे में यह बात कही है कि ‘राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।’ हिंदी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है।आर्यों की सबसे प्राचीन भाषा हिन्दी ही है और इसमें तद्भव शब्द सभी भाषाओं से अधिक है। आज भाषा के नाम पर राजनीति होती है, यह बहुत ही ग़लत है। जापानियों ने जिस ढंग से विदेशी भाषाएँ सीखकर अपनी मातृभाषा को उन्नति के शिखर पर पहुँचाया है उसी प्रकार हमें भी मातृभाषा (हिंदी) का भक्त होना चाहिए। हाल फिलहाल, पाठकों को बताता चलूं कि
राजभाषा विभाग के स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान हमारे गृहमंत्री जी ने भी यह बात कही है कि ‘किसी भी विदेशी भाषा का विरोध नहीं होना चाहिए, लेकिन हमें अपनी मातृभाषा पर गर्व भी करना चाहिए।’ वास्तव में हमें यह चाहिए कि हम मातृभाषा में सोचने, बोलने के साथ-साथ उसे अभिव्यक्त करने की भावना को भी प्रोत्साहित करें।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में यह कहा है कि ‘…पिछले कुछ दशकों में भाषा का इस्तेमाल भारत को बांटने के साधन के रूप में किया गया। वे इसे तोड़ नहीं पाए, लेकिन प्रयास किए गए। हम सुनिश्चित करेंगे कि हमारी भाषाएं भारत को एकजुट करने का सशक्त माध्यम बनें।’ महाराष्ट्र और कर्नाटक समेत कई राज्यों में राजभाषा को लेकर सवाल उठाए गए, तमिलनाडु ने तो जैसे हिंदी विरोध में राजनीतिक मोर्चा खोल रखा है। वास्तव में यह बहुत दुखद है, ऐसा नहीं होना चाहिए। आज भारत दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है, जहां राजभाषा के लिए एक अलग विभाग है तथा इसके कार्यान्वयन के लिए अधिकारी व हिंदी अनुवादक मौजूद हैं। दुनिया में ऐसा उदाहरण कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। हम हमारे ही देश में भाषा की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि आज संचार की भाषा हिन्दी है, बाजार और सिनेमा से लेकर आज कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जहां हिंदी का प्रयोग नहीं किया जा रहा है। हमें यह चाहिए कि हम किसी विदेशी भाषा का विरोध कतई नहीं करें। भारत के वासी होते हुए हमारा यह परम कर्तव्य बनता है कि हम आग्रह अपनी भाषा(हिंदी) के गौरव का करें। जैसा कि केंद्रीय गृह मंत्री जी ने कहा है कि ‘आग्रह अपनी भाषा में सोचने का होना चाहिए। हमें गुलामी की मानसिकता से मुक्त होना चाहिए।’ सच तो यह है कि जब तक हम अपनी भाषा पर गर्व नहीं करेंगे, अपनी भाषा में अपनी बात नहीं कहेंगे, तब तक हम गुलामी की मानसिकता से मुक्त नहीं हो सकते हैं। दिल्ली में राजभाषा स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान हाल ही में गृहमंत्री जी ने सभी राज्य सरकारों से आग्रह किया है कि वे स्थानीय भाषाओं में चिकित्सा और इंजीनियरिंग जैसी उच्च शिक्षा प्रदान करने की पहल करें। उन्होंने आश्वासन दिया है कि केंद्र सरकार इस दिशा में राज्यों को हरसंभव सहयोग देगी।’ पाठकों को बताता चलूं कि गृह मंत्री जी ने इस बात पर भी जोर दिया कि प्रशासनिक कार्यों में भारतीय भाषाओं का अधिक से अधिक उपयोग किया जाए। आज यह देखने को मिलता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच प्रतिस्पर्धा है। प्रतिस्पर्धा अपने स्थान पर है, लेकिन हमें हिंदी के योगदान को हमेशा अपने जेहन में रखना चाहिए। हिंदी किसी भी भाषा की विरोधी नहीं है अपितु यह सहयोगी है। हिंदी सबको साथ लेकर चलती है। वास्तव में भाषाएं मिलकर देश के सांस्कृतिक आत्मगौरव को ऊंचाई तक ले जा सकती हैं। आज जरूरत इस बात की है कि हम मानसिक गुलामी की भावना से मुक्ति पाने पर जोर दें। हमें यह याद रखना चाहिए कि जब तक कोई व्यक्ति अपनी भाषा पर गर्व महसूस नहीं करता और खुद को उसी भाषा में अभिव्यक्त नहीं करता, तब तक वह पूरी तरह आजाद नहीं हो सकता। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 351 हिंदी भाषा के विकास और प्रसार के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देता है। इसका उद्देश्य हिंदी को भारत की ‘सामासिक संस्कृति’ के तत्वों को व्यक्त करने का एक माध्यम बनाना है। गौरतलब है कि अनुच्छेद 351 में, केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया है कि हिंदी भाषा का विकास इस तरह से हो कि वह भारत की समग्र संस्कृति को व्यक्त करने का एक माध्यम बन सके। इसके लिए, हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं और संस्कृत से शब्द भंडार और अभिव्यक्तियों को ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, ताकि यह अधिक समृद्ध और व्यापक बन सके। संक्षेप में कहें तो अनुच्छेद 351 हिंदी भाषा के विकास और प्रसार के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करता है। वास्तव में, यह सुनिश्चित करता है कि यह भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को प्रतिबिंबित करे और सभी भारतीयों के लिए एक सामान्य भाषा बन सके। अंत में यही कहूंगा कि हिन्दी संस्कृत की बेटियों में सबसे अच्छी और शिरोमणि है। महात्मा गांधी ने यह बात कही थी कि ‘हिंदुस्तान के लिए देवनागरी लिपि का ही व्यवहार होना चाहिए, रोमन लिपि का व्यवहार यहाँ हो ही नहीं सकता।’ वास्तव में राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है।अनंत गोपाल शेवड़े ने कहा है कि ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी का किसी क्षेत्रीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है।’ और यह बात हम सबको अपने जेहन में रखनी चाहिए।के.सी. सारंगमठ कहते हैं कि ‘दक्षिण की हिन्दी विरोधी नीति वास्तव में दक्षिण की नहीं, बल्कि कुछ अंग्रेजी भक्तों की नीति है।’सरलता, बोधगम्यता और शैली की दृष्टि से विश्व की भाषाओं में हिन्दी महानतम स्थान रखती है।
सुनील कुमार महला