घर के भेदी

ये कौन लोग हैं जो मुल्क बेच आते हैं,
चंद सिक्कों में ज़मीर सरेआम ले जाते हैं।
न बम चले, न बारूद की ज़रूरत पड़ी,
अब तो दुश्मन को बस एक चैट भा जाती है।
जिसे पढ़ाया था कल देशभक्ति के पाठ,
वो ही फाइलें अब व्हाट्सऐप पे दिखा जाती है।
हमने ही अपने घर में दी थीं दीवारें,
अब उन्हीं से दरारें हर रोज़ बढ़ जाती हैं।
कभी मज़दूर, कभी छात्र, कभी गार्ड बना,
ये “भेदी” हर वेश बदलकर चला आता है।
हमें यक़ीन था अपनों पे, उसी ने तोड़ा,
अब हर पहचान, हर रिश्ता डर सा दिला जाता है।
देश की पीठ पे जो वार करते हैं छुपके,
वो फेसबुक पर ‘देशभक्त’ कहलाते हैं।
नए ज़माने की ये कैसी तालीम है साहब,
कि इम्तिहान में ईमान गिरवी रख आते हैं।
अब वर्दी भी सुरक्षित नहीं उस भीड़ से,
जो अपनी भूख में सरहद तक बेच आती है।
ज़रा पूछो उन माँओं से, जिनके बेटे नहीं लौटे,
जब जासूसी की ख़बर, गली में गूँज जाती है।

  • डॉ सत्यवान सौरभ

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