✍️ डॉ. सत्यवान सौरभ
मैं वह बड़ा बेटा हूँ,
जिसने हँसकर जीवन की आग पिया है।
जिसने चुपचाप लुटा अपना यौवन,
और घर का भाग्य सिया है।
जो माँ की छाया बना रहा,
पिता की लाठी बन कर चला,
भाई की पढ़ाई में खो गया,
बहन की शादी में गल गया।
सपनों का शव ढोता रहा,
अपनों का ऋण ढोता रहा।
न मोल मिला, न बोल मिला,
बस जिम्मेदारियों का तोल मिला।
जब-जब थका, तो कह दिया गया —
“अब तू बदल गया है रे,
अब तू खुदगर्ज़ हो गया है!”
मेरे त्यागों को गिना नहीं गया,
मेरी गलतियाँ उभारी गईं।
मैं वह बेवकूफ बेटा हूँ,
जो घर की नींव में दबा था,
जिसके सपनों का चिता जलाया गया,
पर पूजा नहीं गया।
मैंने चूल्हा जलाया, तो रोटी सबने खाई,
मैंने छत बनाई, तो चैन सबने पाया,
पर जब अपने लिए छाया मांगी,
तो मुझे ही स्वार्थी कहकर ठुकराया।
हे समाज! तू क्यों मौन रहा,
जब मेरा अस्तित्व कुचला गया?
तू क्यों तालियाँ बजाता रहा,
जब मेरा आत्मसम्मान झुलसा गया?
अब मत रोक मुझे,
अब मत कह “कर्तव्य निभा”,
अब मैं भी जीऊँगा
अपने लिए,
अपनी राह चला।
अब जो बीत गया, वह बीत गया,
अब बड़ा बेवकूफ बेटा नहीं,
एक प्रश्न बनकर जीएगा।
अब हर घर में कोई बेवकूफ बेटा
मौन नहीं रहेगा —
बलिदान नहीं,
विचार करेगा,
प्रश्न करेगा,
विद्रोह करेगा।
— डॉ सत्यवान सौरभ