तिलक यज्ञोपवीत और शिखा का माहात्म्य

सनातन परम्परा में हिन्दू देवी-देवताओं के ललाट पर धारित विभिन्न स्वरूप के तिलक हमें अपनी ओर आकर्षित कर एक सुखद अनुभूति प्रदान कर स्वयं तिलक धारण करने की सद्प्रेरणा प्रदान करता है परिणामस्वरूप हम उनकी पूजा-अर्चना, आराधना के समय तिलक धारण कर स्वयं को गौरवान्वित पाते है। तिलक की ही भॉति सिर के मध्य में शिखा-चोटी और यज्ञोपवीत का विधान शास्त्रों में है जहॉ बौधायनस्मृति में लिखा है- सदोपवीतिना भाष्य सदा बद्धशिखेन च। विशिखानुपवीती च यत्करोति न तत्कृतम।। अर्थात शिखा और यज्ञोपवीत सदा धारण करना चाहिये, इसके धारण किये बिना जो कर्म किया जाता है, व न किये के समान होता है। यहॉ शिखा का बड़ा महत्व है, तभी सोलह संस्कारों में चूड़ामन संस्कार (वपन क्रिया) के पश्चात शिखा का महत्व कपाल क्रिया तक दर्शाया गया है वही पर धर्मशास्त्रों के अनुसार सिख समुदाय सहित हिन्दु   धर्मावलम्बियों का एक विशाल तबका सिर पर शिखा धारण कर इस अनूॅठी अनमोल संस्कृति और संस्कारों को प्रतिष्ठित किये हुये है वही यज्ञोपवीत का विधान होते हुये विप्रसमाज ही उपनयन संस्कार का संकल्प यज्ञ से इसके प्रयोग का पालन आजीवन करते दिखता है वहीं समाज के अन्य जनों का इससे प्रयोजन नहीं दिखाई देता है।

वैष्णव,  शैव  सम्प्रदाय में महादेव की उपासना करते समय ललाट पर या कहिये मस्तक पर तिलक लगाने को लेकर श्रीकूर्मपुराण संहिता के पूर्वविभाग में अध्याय दो के श्लोक सॅख्या 99 से 108 तक में विस्तार से उल्लेख मिलता है कि-’’तलिंगधारी सततं तद्भक्तजनवत्सलः। ध्यायेदथार्चयेदतान् ब्रम्हाविद्यापारायणः।।सर्वेषामेव भक्तानां शम्भेर्लिगमनुत्तमम्। सितेन भस्मना कर्य ललाटे तु त्रिपुण्ड्रकम्।। यत्तत् प्रधानं  निगुणं ब्रम्हविष्णुशिवात्मकम। धृंत त्रिशूलधरणाद् भवत्येव न संशयः। ब्रम्हतेजोमयं शुक्लं यदेतन्मण्डलं रवैः। भवत्येव धृतं स्थानमैश्वरं तिलके कृते।। अर्थात- शिवभक्तों के द्वारा अपने मस्तक पर शिवलिंग चिन्ह धारण करना श्रेष्ठ माना गया है और शैवों के द्वारा  श्वेतभस्म से अपने ललाट को त्रिपुण्ड धारण कर सजाया जाता है वही श्रीनारायण के भक्त अपने माथे पर कस्तूरी आदि सुबंधित जल से त्रिशूल की आकृति का तिलक लगाते है एवं इसके अतिरिक्त अन्य देवों-देवियों को मानने वाले हमेशा अपने मस्तक पर भावपूर्वक अपने मस्तक पर शोभा देने एवं प्रत्यक्ष प्रभाव छोड़ने वाला तिलक धारण करते है। त्रिशूल का तिलक धारण करने से वह ब्रम्हा, विष्णु और शिवस्वरूप का त्रिगुणात्मक स्वरूप माना गयाहै जिसके लगाने से आदित्यमण्डल का प्रकाशमान ब्रम्हतेजोमय ईश्वयुक्त स्थान है उससे मस्तक देदीप्यमान होकर कल्याणकारी होता है व दीर्घायु प्रदान करता है।

तिलक धारण करने की विधि –

 तिलक धारण करते समय मंत्रोच्चार का विधान है-ललाटे केशवं ध्यायेन्नारायणमथोदरे। वक्षःस्थले माधवं तु गोविन्दं कण्ठकूपके।। विष्णुं च दक्षिणे कुक्षौ बाहु च मधुसूदनम्। त्रिविक्रमं कन्धरे तु वामनं वामपार्श्श्रके।। श्रीधरं वामबाहु तु हृषीकेशं तु कन्धरे।पृष्ठे च पद्यनाभं च कट्यां दामोदरं न्यसेत्।।  अर्थात  ललाट में केशवाय नमः, उदर पर-श्री नारायणाय नमः, छाती पर श्री माधवाय नमः,कण्ठ में श्रीगोविन्दाय नमः, पुरूषोत्तमाम नमः, हृदय में बैकुण्ठ, नाभि में नारायण, पीठ में पदमनाभ, बायें पार्श्व में विष्णु, दाहिने पार्श्व में वामन, बाये कान में यमुना, दाहिनी कान में गंगा, बाई भुजा में कृष्ण, दाहिनी भुजा में हरि, मस्तक में ऋषिकेश और गर्दन में दामोदर, का स्मरण करते हुये तेरह स्थानों पर चंदन लगाने का विधान बताया गया है जो सभी प्रकार की आपदाओं का हरण करता है- चन्दनस्य महत्वपुण्यं, पाप नाशनम्। आपदं हरते नित्यं, लक्ष्मीस्तिस्ठति सर्वदा।। तिलक किये बिना सन्ध्या, पितृकर्म और देवपूजा नहीं करना चाहिये एवं चन्दनादि के अभाव में जलादि से तिलक करें, तिलक करने में अनामिका अंगुली शांति देने वाली, मध्यमा अंगुली  आयु बढ़ाने वाली, अंगुष्ठ पुस्टि देने वाली तथा तर्जनी अंगुली मोक्ष देने वाली बतायी गयी है किन्तु चकले पर से चन्दन लगाना निषेध कहा गया है। ऐसे ही अनेक विद्वानों ने भस्मधारण तिलक की विधि का उल्लेख कर किस मंत्र से शरीर के किस स्थान पर तिलक लगाना है का उल्लेख किया है।

किसी भी आश्रम, मंदिर या सार्वजनिक स्थान पर सम्पन्न की जाने वाली विधिवत पूजा आराधना के समय तिलक लगाने को बहुत ही शुभदायक एवं अत्यन्त महत्वपूर्ण बताया है -यजेत जुहुयादग्रौ जपेद दद्याज्जितेन्द्रियः। शान्तो दान्तो जितक्रोधों वर्णाश्रमविधानवित।। एवं परिचरेद देवान यावज्जीवं समाहितः। तेषा संस्थानमचलं सोचिरादधिगच्छति।। अर्थात पूजा-पाठ को विधिविधान से करते समय मस्तक पर तिलक  धारण किये जाने से साधक का मन शांत, दान्त, जितेन्द्रिय तथा क्रोधजयी  होगा एवं अग्नि, यज्ञ, हवन जप तथा दान करने से प्रसन्नचित्त होगा और उसे शीघ्र ही अचल सम्पत्ति एवं प्रभु के चरणों की भक्ति की प्राप्ति होना बताया है।

जगतगुरू आद्यशंकराचार्य के चार ज्योतिपीठ देश में है और करोड़ों उनके अनुयायी है, उन समस्त सहित विभिन्न संत समाज में ललाट पर तिलक लगाने सहित शरीर के अन्य 13 स्थानों पर भी तिलक लगाया जाकर अपने ईष्ट को प्रसन्न किया जाता हैं। तंत्रक्रिया एक प्रकार के वातावरण की सृष्टि करती है और उससे  मानवमस्तिष्क में वैसी ही भावना बन जाती है, यह भावना तिलक धारण कर अपना सम्मोहन छोड़ने की होती है। इसदृष्टि में तिलक महत्वपूर्ण है और इनके द्वारा जनसामान्य सहित सारे जगत को मोहित किये जाने हेतु वशीकरण तिलक प्रयोग देखे जा सकते है- भृग्ड्राजमपामार्ग सिद्धार्थ सहदेविकां। कोलं वचा च श्वेतार्कः सत्त्वमेषा समाहरेत।। लोहपात्रे विनिक्षिप्य त्रिदिनं मर्दयेत् सुधीः। ललाटे तिलकं कुर्याद् द्रष्टुर्बुद्धिः प्रणश्यति।। अर्थात बिल्वपत्र और बिजोरे नीबू को बकरी के दूध में पीसकर तिलक करने से, अथवा गॅवारपॉठा की जड़ में भंग के बीज पीसकर तिलक करने से वशीकरण होता हैं। ऐसे ही तिलक को लेकर अनेक प्रयोग एवं मंत्रों का उल्लेख मिलता है जिन्हें जपात्मक पुरश्चरण करने से इनकी सिद्धि होती है, किन्तु हम यहॉ सिर्फ तिलक के माहात्म्य को प्रगट करने के उद्देश्य को लेकर चल रहे है, इसलिये किसी मंत्र के उपयोग की सलाह नहीं देगें इसके लिये उचित होगा अपने गुरू के मार्गदर्षन एवं निर्देषों से ही इस प्रकार का प्रयोग किया जाये।यज्ञोपवीतका शास्त्रोक्त विधान

छान्दोग्यपरिशिष्ट में यज्ञोपवीत एवं शिखा पर कात्यायन महर्षि का वचन से अपनी बात शुरू करता हॅू- अनेन हि दधिखदिरादिवदुपवीतित्वस्य बद्धशिखत्वस्य च क्रतुपुरूशोभ्यार्थस्वमदगम्येत। तेन शिखेनानुपवीतिना च कर्मणि क्रियमाणे कर्मणोपि वैगुण्यं भवति।  अर्थात जिस प्रकार यज्ञ में दधि, खाद्य आदि पदार्थो की उपयोगिता है, इसी प्रकार शिक्षा और यज्ञोपवीत भी यज्ञ में उपयोगी है, इनके अभाव में यज्ञ का निर्वाह होना दुष्कर है। शिक्षा सूत्र के बिना जो यज्ञ किया जाता है, उसमें वैगुण्य उत्पन्न हो जाताहैं बैगणुय अथवा खराबी के हो जाने पर यह कर्मनिष्फल हो जाता है। यहॉ यज्ञोपवीत धारण करने का भाव है यज्ञकर्म, यज्ञोपवीत का शाब्दिक अर्थ हुआ ’’यज्ञाय यज्ञकर्मणे वोववीतम्’’ अर्थात यज्ञ अथवा यज्ञकर्म के लिये धारण किया हुआ सूत्र। ब्रम्हचारी यज्ञ करनें हेतु यज्ञोपवीत को संकेत के रूप मे ंधारण करता है एवं यज्ञोपवीत यज्ञकर्म के लिये धारण किया हुआ यज्ञ चिन्ह कहलाता है, आत्मसंग्राम में असुरों को परास्त करने के लिये यज्ञ में यज्ञोपवीत विजयपताका कहा गया है।

यज्ञोपवीत के महात्म्य को इन मंत्रों द्वारा उदधृत किया गया है- यज्ञोपवीत के तीन ओर 9 तारों के सम्बन्ध में विवेचन किया गया है कि संसार त्रित्वमय है और यह त्रित्व स्वयं ही त्रेतात्मकहै अर्थात दूसरी दृष्टि से संसार नवात्मक है, सब चीजें नौ-नौ विभागों में विभक्त है, यह नौ ही थोडे में तीन कहा जा तै इन्हीं तीन का सम्बन्ध यज्ञोपवीत से है। इस प्रसंग के प्रमाण के रूप में अथर्ववेद के अठारहवे काण्ड का सूत्र विचारणीय है। तिस्त्रो दिवस्तिस्त्रः पृथिवीस्त्रीण्यन्तरिक्षाणि चतुरः समुद्रान्। त्रिवृतं स्तोमं त्रिवृत आप आहुस्तारत्वा रक्षन्तु त्रिवृता त्रिवृद्धिः। श्रीन्नाकांस्त्रीन्समुद्रास्त्रीन् ब्रधांस्त्रीन्वेष्टपान। त्रीन्मातरिश्श्रनस्त्रोन्त्सूर्यान गोप्तृन्कल्पयामि ते।। अर्थात-तीन द्युलोक, तीन पृथिवीलोक, तीन अन्तरिक्षलोक, चौथे इन तीनों को मिलाने वाले तीन समुद्र, तीन प्रकार का स्तोम अर्थात स्तवन ज्ञान, कर्म और उपासना, त्रिविध अप अर्थात मूलप्रकृति सत्व,रज और तम ये सब त्रिवृतों से त्रिवृत होकर त्रित्वपूर्वक तीन होकर अर्थात नौ होकर तेरी रक्षा करें। तीन स्वर्ग, तीन समुद्र, तीन ब्रन्ध अर्था सूर्यमण्डल, त्रिविध वैष्टप अर्थात जगत के पदार्थ, तीन वय,ु तीन आदित्य, इन सबकों मैं तेरा रक्षक नियत कर रहा हॅू। यज्ञोपवीत धारण करने की रीति का विधान करते हुये स्मृति में भी इसी प्रकार का वचन दिया गया है- अतिब्लगंकैश्श्र मन्त्रेस्तत्प्रक्षाल्योर्ध्ववृत। त्रिवृत्।  ततः प्रदक्षिणामावर्त्य सावित्र्या त्रिगुणीकृतम्।। ’’अप शब्द जिसमे आया है, आपो हि ष्ठा मयो भुवस्त न ऊर्जे दधातन ऐसे मंत्र का उच्चारण करके उस सूत्र को धोबे और फिर सावित्री पढ़कर उसे तीन गुना करें।

कर्मप्रदीप छन्दोगपरिशिष्ट में उल्लेख मिलता है कि-त्रिवृदर्ध्ववृतं कार्य तन्तुत्रयमधोवृतम्। त्रिवृतं  चोपवीतं स्यात्तस्यैको ग्रन्थिरिप्यते। ’’त्रिवृत’’   ’’नवसूत्र’’ आदि शब्दों का आशय है कि यज्ञोपवती कामूल साक्षात वेद में है। वेदमें त्रिगुणित त्रित्व न केवल यज्ञोपवीत को ही लक्ष्य करके कहा है, प्रत्युत्त इसकाविनियोग संसार के समस्त क्षेत्रों में कियागया हैं। स्पष्ट है यज्ञोपवीत के तारों का तीन गुणा तीन होना त्रिगुणित त्रित्वात्मक, संसार का प्रतीक है। वस्तुतः जगत का अगरकोई सामासिकरूप है, यदि जगत की प्रक्रिया को अल्प शब्दों में प्रगट किया जा सकताहै, तो वह इसी रूप में जगत त्रिवृत होकर फिर त्रिवृत है-यानि तीन गुणा तीन है इसके अतिरिक्त इस त्रिगुणित त्रित्वात्मक प्रप्रचं का समाहार करनेवाली एक तुरीय ब्रम्हग्रन्थि भी है, त्रुगण्यका अन्तर्धान, ब्रम्ह में हो जाता हैं। इस त्रिगुणित त्रित्व प्रपंच को तथा उसके समन्वय को अपने अन्दर देखना, अनुभव करना, धारण करना ही यज्ञोपवीत का प्रयोजन है। जो यज्ञोपवीत धारण करने वाला है वह यह समझ ले कि उसके अन्दर ही संसार की समस्त प्रक्रिया, उत्पत्ति, स्थ्ति, संहार को देखने लग जाये, बस यही यज्ञोपवीत धारण करना हैयज्ञोपवीत का त्रिगुणित महत्व-

 यज्ञोपवीत में यज्ञपदवाच्य अर्थ-ब्रम्हयज्ञ अथवा आत्मज्ञान कहा है। यानि परमात्मा के साथ मनुष्य ऐकात्म्यका अनुभव करें, उसके साथ अपने आप को एकाकार समझे, यही आत्मज्ञान है। इस ऐकात्म्य का ब्राहस्वरूप यह है कि सर्वत्र चेतन अथवा अचेतन जगत में अपने ही आत्मा का साक्षात्कार करें, व्यक्तित्व की तुच्छ भूमिका से उठकर अपने आप को विश्वव्यापक सार्वत्रिक रूप में अनुभव करें। यज्ञोपवीत धारण करते समय जो संकल्प करना होता है वह यही आत्मज्ञान है। यज्ञोपवीत में त्रिगुणित किये हुये तीन तर का शास़्त्रोक्त संकेत मिलते है- ततः प्रदक्षिणावर्त समस्यान्नवसूत्रकम्। त्रिरावेष्टय दृढ बदध्वा ब्रहविष्ण्वीश्वरान्नमेत।। अर्थात यज्ञोपवीत के नौ तारों को तीन-तीन करके अलग अलग बट लेना चाहिये, बाद में तीनों को इकट्टा करके उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलयकर्ता परमेश्वर का स्मरण करते हुये एक दृढ़ गॉठ जिसे ब्रम्हग्रन्थि कहते है, बॉधनी चाहिये। यज्ञोपवीत के तीन तारों को मिलाने के लिये जो ब्रम्हम्ग्रन्थि की गॉठ लगायी जाती है वह त्रित्वात्मक संसार के ब्रम्ह में एकात्मभाव का प्रतीक है। त्रित्व की तीन अवस्थाओं का समाहार या समन्वय चतुर्थ किंव तुरीय अवस्था में ब्रम्हग्रन्थि में जाकर होता हैं यह तुरीय अवस्था ही पारमार्थिक स्थिति है, व्यवावहारिक जगत में विद्यमान त्रत इसी की अभिव्यक्ति अथवा रूपान्तरण है। व्यवहार के त्रित्व का विवेकपूर्वक समन्वयय करके तुरीय पदार्थ में एकात्म्यका साक्षात्कार करना परमार्थ, मोक्ष या चरम उद्देश्य है अर्थात तुरीय की ओर कदम बढ़ाना हैं। अपनी आत्मा को पहचानना, संकीर्ण वैयक्कितक आत्मा से उठकर सर्वव्यापक, नित्य, सर्वाधार और उच्चतर परम आत्मा का अनुभव करना ही मनुष्य का चरम ध्येय है। यज्ञोपवीत इसी ध्येय का प्रतीक है, यज्ञोपवीत मनुष्य के अन्दर निगूढ विश्वात्मा अथवा पिण्डब्रम्हाड के एक आत्मा की ओर संकेत करता है।चूड़ामन संस्कार व शिखा(चोटी) एक परिचय

-हमारी शिखा उदभव संसार का चिन्ह कही गयी है तभी शिखा बल, वीर्य, आयुवृद्धि, तेज और पराक्रम का प्रतीक मानी है इसलिये हिन्दुओं का यह सर्वोत्कृष्ट जातीय चिन्ह माना गया है। जिसके सिर पर शिखा नहीं होती है वह वह ’’शव’’ के समान कहा गया हैं।   धर्मसिन्धुकार ने कहा है कि-मध्ये मुख्या एका शिखा अन्याच्श्र पाच्व्श्रादिभागेष्विति यथाकुलाचार प्रवरसंख्यया शिखाश्चूडासमये कार्या‘ अर्थात- सिर के मध्य में स्थित केश समूह ’’चूडा’’ है, यही चूड़ा प्रधान शिखा मानी गयी है। वशिष्ट गोत्रवाले मध्य शिखा से दक्षिण भाग में स्थित केश समुदाय को चूड़ा कहते है। अत्रि और कश्चयप गोत्रवाले मध्यभाग में स्थित शिखा के उभय पाश्र्व्श्र (अगल-बगल) में स्थित केशों को शिखा कहते है। ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य को शिखा, सूत्र और हिन्दूमात्र को शिखा अवश्य धारण करनी चाहिये बिना यज्ञोपवीत शिखा के हिन्दुओं का किया हुआ सभी प्रकार का सत्कार्य व्यर्थ हो जाता है और वह राक्षस कर्मकहलाता है। ’’सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च। विशिखों व्युपवीतश्श्र यत्करोति न तत्कृतम।।-देवलस्मृति।।  बिना यच्छिख्चाया कर्म बिना यज्ञोपवीतकम्। राक्षसं तद्धि विज्ञोय समस्त निष्पफलाः क्रियाः।। वही कहा गया है कि- ’’मध्येशिरसि चूडा स्वाद् वासिष्टानां तु दक्षिणे। उभयोंः पार्व्श्रयोरत्रिकश्यपानां शिखा मता।। उपनयकाल में मध्यशिक्षा के अतिरिक्त अन्य गौण शिखाओं के वपन का विधान निर्णयसिन्धु में स्पष्टरूप से पाया जाता है- तासां मध्यशिवर्जमुपनयने वपनं कार्यम्। उपनयनकाले मध्यशिखेतरशिखानां वपनं कृत्वा मध्यभाग एवोपनयनोत्तरं शिखा धार्या।। अर्थात संध्या करते समय अगंन्यास के अर्न्तग्त आगम गं्रथों में ’’भवुः शिखाये बपट’’ इस मंत्र द्वारा चोटी हाथ के अगंष्टस्पर्श का विधान देखा जाता है। इन प्रमाणों से यह निर्विवाद सिद्ध है कि चूडाकरण संस्कार में शिखा रखकर ही अन्य केशों का मुण्डन करना चाहिये।चूड़ामन संस्कार व शिखा(चोटी) रखने का विधान-

16 संस्कारों में चूड़ामन संस्कार का उद्देश् व्यक्ति के दीर्घ आयु, सौन्दर्य तथा कल्याण की प्राप्ति बतलाकर जन्म दिये बच्चे के एक अवस्था तीसरे, पॉचवे या सातवे वर्ष की आयु में केश, नख, लोम कर्तन किया जाना है। आचार्य चरक का मत है कि-पौष्टिंक वृष्यमायुष्यं शुचिरूपं विराजनम। केशश्मश्रुनखादीनां कर्तनं सम्प्रसाधनम।। अर्थात-चूड़ाकर्म संस्कार के मूल में स्वास्थ्य तथ सौन्दर्य की भावना ही मुख्य है किन्तु कुछ मानव शास्त्रियों के अनुसार इस संस्कार का प्रयोजन बलि था, अर्थात केश काटकर किसी देवता को अर्पित किये जाते थें। कर्मो एवं संस्कारों द्वारा जब तक केश कर्तन न हो और बाल शरीर में हो तब तक पवित्रता बनी रहती है, केशकर्तन के पश्चात उनके बार-बार काटे जाने का विधान है, इसलिये जन्म के बाद पहली बार काटे गये केशों के लिये जिसविधि का प्रयोग होता है वह चूडाकर्म संस्कार है जिसमें मंत्रों द्वारा सोम, अग्नि आदि देवताओं से प्रार्थना की जाती है ताकि वे बालक के लिये कष्टादायी और अहितकर न हो। चूड़ाकर्म संस्कार में में मस्तक पर जहॉ बालों का भॅवर है, वहीं शरीर की सम्पूर्ण नाड़ियों का मेल होना बताया है और उस स्थान को अधिपति नामक मर्मस्थान कहने से उस स्थान पर चोटी-शिखा रखने का विधान है।
यजुर्वेद-3/67 में कहा गया है-नि वर्तयाभ्यायुषेन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय।। अर्थात- हे बालक मैं तेरी दुर्घायु के लये तथा तुझे अन्न के ग्रहण करने में समर्थ बनाने के लिये, उत्पादन शक्ति प्राप्त करने के लिये, ऐश्वर्य वृद्धि के लिये तेरा चूड़ाकरण-मुडंन संस्कार करता हॅू। उस मंत्र से शुभ मुहुर्त में नाई से बालक के मुण्डन कराकर दही, मक्खन लगाकर उसे स्नान कराकर मांगलिक क्रियायें किये जाने का विधान है, ताकि वेदों का पवित्र ज्ञान सहित जीवनपर्यन्त उक्त शिखाधारण द्वारा कल्याणमयी, आरोग्यमयी जीवन जीया जा सके।

यजुर्वेद के अनुसार-याज्ञिकेगौर्दाणि मार्जनि गोक्षुर्वच्च शिखा। अर्थात सिर पर यज्ञाधिकार प्राप्त को गौ के खुर के बराबर स्थान में चोटी रखनी चाहिये। शिखा रखने तथा उसका नियमों का पालन करने से मनुष्य को सद्बुद्धि सदविचार पैदा होते है और आत्मशक्ति प्रबल बनी रहती है। शिखा रखने से मनुष्य, धार्मिक, सात्विक और संयमी बनता है। लौकिक तथा पारलौकिक समस्त कार्यो में सफलता प्राप्त करता हैं प्राणायाम, अष्टांगयोग आदि यौगिक क्रियाओं को ठीक-ठीक कर सकता हैं, शिखा रखने से सभी देवता मनुष्य की रक्षा करते है। नेत्रज्योति सुरक्षित रहती है तथा मनुष्य बलिष्ठ, तेजस्वी एवं दीर्घायु होता है।
अग्रिका का नाम शिखी है, शिखी उसको कहा जाता है जिसकी शिखा हो -शिखा यस्यास्तीति स शिखी वह धूमशिखावाला अग्नि हमारा इष्टदेव है- अग्निदेवो द्विजातीनाम, अतः शिखा हमारे इष्टदेव का प्रतीक है। शिखा काटकर हम अपने धर्म का नाश कर रहे है यह हमारी गुलामी की पहचान है। तभी हिन्दू संस्कृति बड़़ी विलक्षण मानी है इसमें छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी प्रत्येक बात का धर्म से सीधा सम्बन्ध है और धर्म का सम्बन्ध मानव के कल्याण के साथ हैं। मनुष्य पीढ़ीदर पीढ़ी शिखा चोटी रखते आ रहा है किन्तु आज के लोगों ने शिखा रखना बन्द कर कलयुग को आमंत्रित कर अपने अहित को खुद चुना है। चोटी के बिना आपका देवपूजन एवं श्राद्ध एवं दानपुण्य स्वीकार नहीं किया जाता है। शिखा हिन्दुत्व की पहचान है और यह आपके धर्म की रक्षा करने वाली हैं। छोटी सी शिखा भी अपने आप में पूरी है तथा वह कल्याण करती है, जो शिखा को कटवा लेते है समझो अपने भाग्य को, अपने कल्याण को कटवा लिया हो।

मृत्यु के दण्डित की अगर शिखा काट दी जाये तो इसे उसके प्राणहरण करना माना जाता था, जिसका उदाहरण हरिवंशपुराण में चतुर्दशोध्याय 13 से 19 में देखने को मिलता है-वसिष्टस्त्वथ तान् दृष्ट्रा समयेन महाद्युतिः। सगरं वायामास तेषां दत्वाभयं तदा।। सगरः स्वां प्रितिज्ञां च गुरोर्वाक्यं निशम्य च। धर्म जघान तेषां वै वैषान्यत्व चकार ह।। अर्द्ध शकानां शिरसो मुण्डं कृत्वा व्यसर्जयत्। यवनानां शिरः सर्वे काम्बोजानां तथैव च।। पारदा मुक्तकेशाश्श्र पहृवाः श्मश्रुधरिणः। निःस्वाध्यायवष्ज्ञटकाराःकृतास्तेन महात्मना।। अर्थात अगर किसी को कुछ शर्तो पर जीवनदान या अभय देना हो तो उसके प्राण हरने की वजय उसके धर्म को नष्ट कर दिया जाये, जिसके तहत शकों के आधे सिर को मूड दिया और सिर मुंडवा दिये, यानि महात्वा सगर ने वशिष्ट जी के कहने से उनका संहार न कर उनके केशों को शिखा को काटकर उनके धर्म को नष्ट कर दिया, जो इनके लिये मृत्युदायी था।

संस्कार भास्कर में खल्ववाट अवस्था में शिखा के न होने पर कुश की शिखा बनने की आज्ञा देकर उसे अनिवार्य बताई है, इसे इन्द्रयोनि भी कहा गया है, योगी लोग इसे सुषुम्णा का मूलस्थान मानते है, वैद्य इसे मस्तु-मस्तिष्क कहते है। योगविद्या-विशारद ब्रम्हरन्ध्र कहते है, यह विषय कृत्रिम नहीं है, किन्तु सच्चा तथा प्राकृतिक है, इस शिखा का परिमाण गोखुर कहा गया है। शिखा धारण करने वाले प्रत्येक सनातनी को शिखा बन्धन करते समय निम्न मंत्र का प्रयोग करने का उल्लेख मिलता है- चिद्रूपिणि! महामाये! दिव्यतेजःसमन्विते!। तिष्ठ देवि! शिखमध्ये, तेजोवृद्धि कुरूष्व मे।। ताकि परमात्मा के सम्यक ध्यान में बालों के बिखरने से मन न बिखरे, तथा शरीर के मुख्य भाग को छूकर धर्म के मुख्य अंग का ध्यान किया जाय सके और प्राणायाम भी किया जा सके।

सिर के मध्य में सुरक्षित, स्थिर शिखा चिरन्तन आर्यगौरव तथा हिन्दुत्व का प्रतीक है इसलिये शिखा रखना अत्यन्त आवश्यक है। वेदान्त और योगदर्शन के सिद्धान्तानुसार शिखा अधःस्थित भाग ब्रम्हरन्ध्र माना गया है, इस ब्रम्हरध्र के ऊपर सहस्त्रदल कमल में अमृतरूपी ब्रम्ह का स्थान है। विधि पूर्वक किये गये वेदाधिकर्मानुष्ठान से समुत्पन्न अमृतत्व अतिक्रान्त वायुवेग से बाहर निकलकर ऊपर की ओर अपने केन्द्रस्थान ऋग्यजुःसामत्वरूप सहस्त्ररश्मि सूर्यदेव में मिलना चाहता है, परन्तु शिखा रखने से वह अमृत शिखा ग्रन्थि की उलझन में टकराकर सहस्त्रदल की कर्णिकायें निकल नही पाती है। यदि वेदाध्ययन या सत्कर्मानुष्ठान करते समय शिखा खुली रहती है तो वह अमृत शिखा से बाहर होकर पृथ्वी में प्रविष्ट हो जाता है। शिक्षा के रहने पर वह अमृत सिर से बाहर निकलकर ऊपर को उठता है, किन्तु प्रबलशक्ति सम्पन्न न होने के कारण वायु से टकराकर वह अन्तरिक्ष में विलीन हो जाता है। फलस्वरूप अनियमित कार्य में की गयी सॅध्या की तरह वह कार्य विफल हो जाता है।  इसलिये मान्यता है कि- स्नान, दान, जप, होम, सॅध्या, स्वाध्याय और देवार्चन करते समय शिखा अवश्य बंॉधना चाहिये- स्नाने, दाने जपे होमे सन्ध्यायां देवतार्चने। शिखाग्रंथि सदा कुर्यादित्येतन्मनुरत्रवीत।। अस्तु शिखा के निम्नतल में ब्रम्हरन्ध्र और ऊपर सहस्त्रदल कमल में परमात्मा का केन्द्र है। फलस्वरूप मनुष्य अपनी कामशक्ति को यथासाध्य दबाकर आध्यात्मिक जगत में उत्तरोत्तर वृद्धि करता हुआ शिखा द्वारा व्यापक ब्रम्ह शक्ति की ओर आकर्षित करता है । वैदिकविज्ञान से यह बात सिद्ध है कि सर्वव्यापरी परमात्मा की अप्रमेय शक्ति को आकृष्ट करने का सर्वोत्तम साधन शिखा धारण करता है।

सनातन काल से हिन्दू धर्म में शिखा धारण करना व्यक्ति के कल्याण, विकास एवं पूर्णता का द्योतक रहा है। यही कारण है कि सतयुग,त्रेतायुग एवं द्वापरयुग के समय ऋषिमुनि संत ही नहीं अपितु हर व्यक्ति शिखा धारण करता था तभी से हिन्दू धर्म में शिखा रखने के लिये नियमों का प्रतिपादन किया गया जिस वेद-पुराणों में ऋषि-मनीषियों ने शिखा के महत्व को प्रतिवादित कर नियम बनाये जिसपर तत्कालीन सभी गुरूकुलों के आचार्यो, शिष्यों को शिखा धारण करने के नियम- विधान को कड़ाई से पालन किया गया, परिणामस्वरूप आज भी गुरू-शिष्य परम्परा में शिखा आवश्यक है। बताया गया कि शिखा का मूलकेन्द्र मस्तक के मध्य में बालों का आवर्त-भॅवर जिसे सम्पूर्ण नाडियों का केन्द्र माना है वहॉ चोटी रखना अपने आध्यात्म-धर्म की त्रिवेणी का सम्मान करना है। यर्जुवेद के अध्याय 19 के 92 श्लोक में लिखा है-आत्मन्नुपस्थे न वृकस्य लोम मुख श्मश्रूणि न व्याघ्रलोम। केशा न शीर्षन्यशसेश्रिये शिखा सिद्धहस्य लोम त्विविरिन्द्रियाणि।। अर्थात उस विराट इन्द्रदेव के शरीर में उपस्थभाग के ओर अधोभाग के लोमरूप हयु। मुख में जो मूंछ और दाढ़ी के बाल है, वे व्याघ्र के लोभ के रूप में हुये। शिर में यश के निमित्त, बाल, शिखा शोभा के निमित्त है अर्थात शिखा धारण करने से यश और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

आत्‍माराम यादव

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