अमेरिका द्वारा भारतीय वस्तुओं के आयात पर 50 % टेरीफ लगाने के बाद भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक तनाव कई क्षेत्रों में देखा जा रहा हैं। लेकिन डेयरी उत्पादों को लेकर उठा विवाद विशेष रूप से संवेदनशील और गंभीर है। इस तनाव का प्रमुख कारण अमेरिका द्वारा भारत को गाय का दूध निर्यात करने की इच्छा है, जो भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक मान्यताओं से टकराता है। भारत का आरोप है कि अमेरिका का दूध “मांसाहारी दूध” है, क्योंकि वहां की डेयरी गायों को मांस और पशु अवशेषों से बने चारे का सेवन कराया जाता है।
भारत में दूध को न केवल पोषण का स्रोत बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पवित्र माना जाता है। सनातन परंपरा में गाय को “गौ माता” के रूप में पूजा जाता है और उसके दूध को सात्विक, शाकाहारी व रोगनिवारक आहार माना जाता है। ऐसे में यदि दूध उत्पादन की प्रक्रिया में मांस या पशुजन्य अवयवों का उपयोग हो, तो भारतीय दृष्टिकोण से यह दूध अपवित्र और मांसाहारी माना जाएगा। यही कारण है कि भारत ने स्पष्ट रूप से ऐसे दूध और उससे बने उत्पादों के आयात पर प्रतिबंध लगा रखा है।
मांसाहारी चारे की वास्तविकता
अमेरिका और कई अन्य पश्चिमी देशों में डेयरी उत्पादन की लागत कम करने और गायों की दूध देने की क्षमता बढ़ाने के लिए उच्च प्रोटीन वाले “एनिमल बाय-प्रोडक्ट फीड”का इस्तेमाल किया जाता है। यह चारा प्रायः पोल्ट्री फार्म, मांस उद्योग और मछली उद्योग से बची-खुची सामग्री से तैयार होता है। इसमें शामिल होते हैं:
मुर्गियों और मछलियों के आंतरिक अंग, हड्डी और रक्त का पाउडर,
पशुओं के मांस के बचे हुए टुकड़े,
हड्डियों को पीसकर बनाया गया बोन मील,
मछली से निकले तेल और चूर्ण
इस मिश्रण को अन्य अनाज और विटामिन सप्लीमेंट्स के साथ मिलाकर पशु-आहार बनाया जाता है। अमेरिका में इसे “सामान्य फार्मिंग प्रैक्टिस” के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि उनके दृष्टिकोण में यह पोषण बढ़ाने और वेस्ट मैनेजमेंट का एक व्यावहारिक तरीका है। लेकिन भारतीय परंपरा में, यह पूरी प्रक्रिया नैतिक रूप से अनुचित और धार्मिक मान्यताओं के विपरीत मानी जाती है।
भारत का रुख और अमेरिका की प्रतिक्रिया
भारत ने अमेरिका से साफ कहा है कि या तो वे अपनी गायों को मांसाहारी चारा देना बंद करें, या फिर ऐसे दूध और डेयरी उत्पादों पर स्पष्ट लेबल लगाएं, जिससे उपभोक्ताओं को सही जानकारी मिल सके। लेकिन अमेरिका का तर्क है कि उनकी कृषि प्रणाली में यह सामान्य प्रक्रिया है और वे इसे बदलने के लिए बाध्य नहीं हैं। अमेरिका का मानना है कि लेबलिंग की ऐसी शर्तें गैर-जरूरी बाधाएं हैं और अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों के विपरीत हैं।
संस्कृति बनाम वाणिज्य का सवाल
यह विवाद केवल दूध के आयात-निर्यात का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मूल्यों और व्यावसायिक हितों का टकराव है। भारत के लिए यह मामला धार्मिक और नैतिक आस्था से जुड़ा है, जबकि अमेरिका इसे महज व्यापारिक अवसर और कृषि पद्धति का हिस्सा मानता है। यही कारण है कि दोनों देशों के बीच डेयरी उत्पादों पर कोई ठोस व्यापारिक समझौता अब तक नहीं हो पाया है।
गाय, दूध और उससे जुड़ी पवित्रता भारतीय समाज की गहराई में बसी है। अमेरिका से आने वाला “मांसाहारी दूध” इस भावनात्मक और सांस्कृतिक ताने-बाने से मेल नहीं खाता। यदि भारत अपनी परंपराओं और उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा करना चाहता है, तो उसे अपने प्रतिबंध और लेबलिंग की शर्तों पर दृढ़ रहना होगा। यह विवाद एक बार फिर यह साबित करता है कि वैश्विक व्यापार में केवल मुनाफा ही मायने नहीं रखता, बल्कि सांस्कृतिक संवेदनशीलता और स्थानीय मान्यताओं का सम्मान भी उतना ही आवश्यक है।
-सुरेश गोयल धूप वाला