नागरिक बोध और नज़ीर बनता इंदौर

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प्रो. मनोज कुमार
मध्यप्रदेश हमेशा की तरह स्वच्छता सर्वेक्षण में सबसे आगे रहा. लगातार 8वीं दफा इंदौर सिरमौर बना तो राजधानी भोपाल भी श्रेष्ठता का सिरमौर बना. मध्यप्रदेश के कुछ अन्य शहर भी स्वच्छता सर्वेक्षण में स्वयं को साबित किया। स्वच्छता सर्वेक्षण का यह परिणाम सचमुच मेें सुखदायक है और गर्व से कह सकते हैं कि देश का दिल मध्यप्रदेश अब एक स्वच्छता प्रदेश भी है। अब सवाल यह है कि पुरस्कारों का ऐलान हुआ, उत्सव हुआ, चर्चा हुई और असली मकसद स्वच्छता फिर कहीं तब तक के लिए हाशिए पर जाता दिख रहा है जब तक दुबारा स्वच्छता स्वच्छता सर्वेक्षण का सिलसिला आरंभ ना हो। यक्ष प्रश्र यह है कि क्या हम सिर्फ नम्बरों में आगे रहने के लिए ही स्वच्छ प्रदेश होने का प्रयास करते हैं या नागरिक बोध के साथ स्वच्छता की दिशा में कदम बढ़ाते हैं? पिछले सालों का अनुभव यही बताता है कि हमारी रूचि निरंतर स्वच्छ बने रहने से ज्यादा स्वच्छता सर्वेक्षण में सिरमौर बने रहने की है. स्वच्छता उत्सव चार दिनों का ना होकर पूर्ण नागरिक बोध से हो तो यह स्वच्छता  का नम्बरों का यह खेल एक दिन थम भी जाए तो हम गौरव से स्वयं महसूस कर सकें कि हम स्वच्छ प्रदेश के वासी हैं. लेकिन ऐसा करने वालों में एकमात्र शहर मध्यप्रदेश ही नहीं, देश में रहने वाला इंदौर है. पूर्ण नागरिक बोध के साथ इंदौर के नागरिक अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं. इस बात पर कुछ लोग एतराज कर सकते हैं कि ये क्या बात हुई लेकिन सच यही है.
इंदौर क्यों नागरिक बोध से भरा हुआ शहर है, यह जानना है तो उसकी राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि को समझना होगा. राजनीति तो राजनीति होती है और सत्ता और शीर्ष पर बने रहने के लिए कुछ भी करेगा की नीति पर चलती है लेकिन आप जब इस पर विश£ेषण करेंगे तो पाएंगे कि इन सबके बावजूद इंदौर  की राजनीति इससे परे है और तब जब अपने शहर इंदौर की बात हो. इंदौर की अस्मिता और प्रतिष्ठा को लेकर सभी निर्दलीय हो जाते हैं. स्वच्छता को लेकर, नागरिक सुविधाओं को लेकर भी इंदौर का यही चरित्र रहा है. कदाचित कभी, कहीं इंदौर की स्थानीय राजनीति फेल हुई तो नागरिक इसका जिम्मा उठा लेते हैं. स्वच्छता सर्वेक्षण का सिलसिला जबसे आरंभ हुआ है, बच्चा-बच्चा स्वच्छता को अपनी जिम्मेदारी समझता है. शहर के वाशिंदें हों या शहर में आए मेहमान, उन्हें भी इंदौर की स्वच्छता की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है. एक कागज़ का टुकड़ा भी गलती से सडक़ पर फेंक दिया तो ना जाने कहां से कोई आएगा और आपसे कहेगा-भिया यहां नहीं. और वो खुुद उस कचरे को उठाकर डस्टबीन में डाल देगा. आमतौर पर निगम के स्वच्छता  साथियों के बारे में राय है कि वे अपने काम के प्रति संजीदा नहीं होते हैं. इस सोच पर इंदौर के निगम के स्वच्छता साथी थप्पड़ मारते हैं. वे स्वच्छता की जिम्मेदारी नौकरी के भाव से नहीं करते हैं बल्कि वे नागरिक बोध से भरकर इस जिम्मेदारी को सम्हालते हैं, पूरा करते हैं। यह बात सबसे सुंदर और सीखने वाली दूसरे शहरों के लिए है. स्वच्छता में सिरमौर बनने के लिए पहले और अभी के अफसरों में होड़ मची होती है कि उनके कार्यकाल के कारण इंदौर को यह कामयाबी मिली लेकिन वे भूल जाते हैं कि जिस शहर में नागरिक बोध ना हो, वहाँ व्यवस्था भी फेल हो जाती है. सिस्टम का काम बजट और सुविधा मुहय्या कराना है और उसकी मॉनिटरिंग करना लेकिन कार्य व्यवहार तो नागरिक बोध से ही आता है. कलश को श्रेय देने के बजाय बुनियाद को प्रणाम किया जाए तो इंदौर हमेशा स्वच्छ शहर बना रहेगा.
इंदौर को बार-बार स्वच्छता में श्रेष्ठता क्यों हासिल होता है, इस पर आपत्ति हो सकती है जिसका जवाब ऊपर लिखा जा चुका है. अब बड़ा सवाल यह है कि इंदौर जैसा नागरिक बोध अन्य शहरों में क्यों नहीं है? क्यों वहाँ पर इस बात की चिंता नहीं की जाती है कि इंदौर की तासीर में हम क्यों ना घुलमिल जाएँ. दूसरे शहरों में भी शहर को स्वच्छ रहने के लिए बजट और सुविधा आवंटित होता है लेकिन वह रूटीन में निपटा दिया जाता है. स्वच्छता सर्वेक्षण के समय जरूर दबाव रहता है कि हमें पुरस्कार जीतना है, सबसे आगे रहना है तो जाहिर है कि कागजी कार्यवाही पूरा कर कुछ पुरस्कार और नंबर पा लेते हैं. तमाम विषयों को लेकर शहर-दर-शहर विमर्श, गोष्ठी और संवाद का सिलसिला चलता है लेकिन शायद ही कहीं स्वच्छता पर विमर्श को लेकर संवाद का कोई सिलसिला शुरू हुआ हो. आमतौर पर हमारी मानसिकता है कि यह काम सरकार का है, नगर निगम का है, वो करे. इस मानसिकता के साथ हम कागजी तौर पर स्वच्छ शहर का तमगा तो पहन सकते हैं लेकिन खुद से सच का सामना नहीं कर सकते हैं.
यह हाल देश के सभी शहरों और राजधानी का है. स्वच्छता  मेंं सिरमौर बनने की दौड़ में शामिल शहरों की पोल हर बार बारिश खोल देती है और इस बार भी यही हो रहा है. सडक़ें और नालियाँ बजबजा गई हैं. पॉलिथीन और दूसरे कचरों से पानी निकासी की व्यवस्था चरमरा गई है. कम से कम उन शहरों से यह सवाल किया जा सकता है कि आप तो स्वच्छता सर्वेक्षण में सिरमौर रहे हैं, फिर ये संकट क्यों उत्पन्न हुआ? मामला साफ है कि हम कागज़ीतौर पर तो स्वच्छ हो गए लेकिन नागरिकबोध के अभाव में शहर को जमीनीतौर पर स्वच्छ नहीं रख पाए. इंदौर भी इस आरोप से पूरी तरह बरी नहीं है। अगले वर्ष फिर हम स्वच्छता उत्सव मनाएंगे. जिन शहरों के खाते में नंबर आएंगे, उन्हें शाबासी देेंगे औ जो पिछड़ जाएंगे, उनसे सवाल किए जाएंगे. यह सब प्रशासनिक प्रक्रिया है, चलती रहेगी. आपके घरों का कचरा उठाने के लिए आने वाली गाड़ी में बजने वाला गीत कहां गुम हो गया? स्वच्छता साथियों को  मिलने वाली सुरक्षा में भी ढील है, आखिर इसका दोषी कौन? मूल प्रश्र यह है कि स्वच्छता के लिए देश के हर नागरिक में अपने शहर के प्रति नागरिक बोध का भाव हो. नियमित रूप से स्वच्छता पर चर्चा, संवाद, संगोष्ठी हो. अपने शहर की अस्मिता और प्रतिष्ठा के लिए नागरिक जागरूकता, नागरिक बोध सर्वप्रथम है ताकि स्वच्छता उत्सव चलता रहे

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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