
—विनय कुमार विनायक
चेहरे पे अहं, मन में बहम,
कहां गया तेरा वो भोलापन,
कुछ तो चीन्हे-चीन्हे से लगते हो,
कुछ लगते हो तुम बेगानेपन जैसे!
चेहरे की वो तेरी चहक,
कहां गयी वो तेरी बहक,
बचपन में बड़े अच्छे दीखते थे तुम तो,
बुढ़ापे में क्यों हो गए तुम बचकाने से!
कहां गया वो आत्मबल,
क्यों होने लगे मरियल,
यौवन का तेरा वो आवारा बांकपन,
क्यों खो गया है, ओ मेरे जानेमन!
कहां गयी तेरी चंचलता,
कहां से आई विह्वलता,
किस्मत के तुम मारे कभी नही थे,
जीवन से तुम हारे कभी नहीं थे!
कभी बड़े प्यारे-प्यारे से,
अब क्यों तुम बेचारे हो,
जीवन में बहुत कुछ पाए हैं तुमने
अब डरते क्यों उनके खो जाने से!
बचपन खोया, यौवन पाया,
यौवन खोया, बुढ़ापा आया,
बुढ़ापे से अब क्या आस लगाए तुम हो,
बुढ़ापे को जाने दो बचपन को आने दो!
दुनिया की रीत यही,
हार में भी जीत यही,
पुराने को खोकर ही नवीन को है पाना,
रोते-रोते आए थे हंसते-हंसते है जाना!
नित खोते हो, तब पाते हो,
कुछ पाने से तुम हंसते हो,
फिर खोने से निराश क्यों हो जाना,
खोओगे नहीं तो फिर पाओगे कैसे?
यहां नहीं कुछ भी कम,
यहां नहीं कुछ है अधिक,
अगर आगे की सांस को लेना होता,
तो पीछे की सांस को छोड़ना होता!
यहां जो पाए हो यहीं के थे,
यहां से जाओगे छोड़ यहीं पे,
देह मिला यहीं, नेह मिला यही आके,
माता पिता का स्नेह मिला यहीं आके!
भाई बहन सा सदेही,
जीवन साथी व संगी,
माता पिता के बदले पुत्र पुत्री को पाना,
जितने प्यारे खोते, उतने प्यारे को पाना!
जिसकी चादर जितनी धुली,
उसको वैसी ही धुली मिलेगी,
इस धुली चदरिया को धूल में ना मिलाना,
धूल मिलाओगे तो धुला नहीं मैला तन पाना!