
विश्वासघात करैं प्यारे तै, इसे यार बणे हाण्डैं सैं, लेणा एक ना देणे दो दिलदार बणे हांडै सैं……
कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से निपटने के लिए आज सभी की एकजुटता की जरूरत है। संक्रमण की चैन बनने से रोके रखना किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं है। एक की भी गलती हजारों के प्रयास को पलभर में विफल कर सकती है। पर जिस तरह से आज के हालात बन रहे हैं न केवल वो चिन्तनीय है अपितु ये तो आत्मघाती हैं। ‘आ बैल मुझे मार’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए मरकज की तब्लीगी जमात से पैदा संकट ने आज पूरे देश को अनिष्ट के भंवर में लाकर खड़ा कर दिया है। रही सही कसर इसी तरह के और लोग स्वास्थ्यकर्मियों और पुलिसकर्मियों पर पथराव-मारपीट कर पूरा कर रहे हैं। अपनी जान जोखिम डाल दूसरों की जान बचाने में जुटे इन देवदूतों के साथ इस तरह के व्यवहार से आखिर वो क्या दिखाना चाह रहे हैं।
रामायण के ही एक प्रसंग को लीजिए। पिता के वचन को निभाने राम वनवास चले जाते है। ननिहाल से लौटने पर भरत माता कैकेयी को इस घटनाक्रम के लिए जिम्मेदार मानते हैं। और समस्त अयोध्यावासियों के साथ राम को मनाने चित्रकूट की ओर निकल पड़ते हैं। यहीं पर भारद्वाज मुनि द्वारा भरत को दी गई एक सीख आज के समय में प्रांसगिक है। राजकुमार भरत भारद्वाज मुनि से रघुकुल पर आई इस विपत्ति पर चर्चा कर रास्ता दिखाने की कहते हैं। उस समय भारद्वाज मुनि कहते हैं कि भरत़! विपत्ति के समय ही जाति या वंश की सभ्यता और संस्कृति की पहचान होती है। भारद्वाज मुनि की यही बात आज के समय पर सटीक बैठ रही है। पूरा देश कोरोना रुपी वैश्विक महामारी से झूझ रहा है और कुछ धर्मान्ध लोग इस घाव को भरने में मदद करने की अपेक्षा घाव को और कुरेदने का कार्य कर रहे हैं।
पहली बात तो ये सोशल डिस्टेंसिंग आज के समय में सबसे जरूरी है। एक साथ वहां इतनी बड़ी संख्या में एकत्र होना ही कम दोष नहीं है। इसके बावजूद जब स्वास्थ्य विभाग और दूसरे अधिकारी-कर्मचारी उन्हें बचाने का काम कर रहे है तो उन्हें ही मौत के मुंह में धकेला जा रहा है। कौन सा धर्म कहता है कि कोई तुम्हारा भला करे तो तुम उनका गला काट दो। कौन सा धर्म कहता है कि कोई जब तुम्हारे घावों पर मलहम लगाए तो तुम अपने घाव का मवाद उन्हीं पर फेंक दो। कौन सा धर्म कहता है कि ऐसा काम करो कि तुम्हारी सेवा में लगी बहन-बेटियों की आंख शर्मिंदगी से झुक जाएं। माना भारत मे हर धर्म को अपने अनुसार निभाने की आजादी है। मगर इसका ये मतलब नहीं है कि इसे मानवता के नाश के लिए परमाणु बम सा इस्तेमाल करो । हरियाणा के लोक कवि दादा लखमीचन्द की ये पंक्तियां ऐसे लोगों के लिए ही कही गई है-
सारी दुनिया कहा करै, करै यार-यार नैं स्याणा,
उसे हांडी मैं छेक करैं और उसे हांडी मैं खाणा।
विश्वासघात करैं प्यारे तै इसे यार बणे हांडै सैं,
लेणा एक ना देणे दो दिलदार बणे हांडै सैं।
कर कै खाले ले कै देदे , उस तै कौण जबर हो सै,
नुगरा माणस आंख बदलज्या, समझणियां की मर हो सै
तो मेरे भाइयों! कुछ मदद न कर सको तो कम से कम बीच में रोड़े तो ना अटकाओ। बचे रहोगे तभी तो धर्म काम आएगा। न किसी ने अभी तक स्वर्ग देखा है और न जन्नत।इंसान के नेक कर्म हर उस जगह को जन्नत और स्वर्ग बना देते हैं जहां वह रहता है। पिंगला भरतरी के सांग में दादा लखमीचन्द चंद की ये पंक्तियां भी बहुत कुछ स्प्ष्ट कर देती है।
किस नै देख्या स्वर्ग भरतरी, आपा मरे बिना,
क्यूंकर आज्या सब्र आदमी कै, पेटा भरे बिना।
हमारा फर्ज है कि आज हम वैचारिक-धार्मिक मतभेदों को भुलाकर इस बीमारी को रोकने में हमारे देवदूतों के सहायक बने न कि खलनायक। अन्यथा वो आग बुझाने का प्रयास करते रहेंगे और हम नई जगह अपने स्वार्थ की तिल्ली से नई आग लगाते रहेंगे। दूसरों के घरों में जलती आग आनन्ददायी नहीं कष्टदायी भी हो सकती है।
सुशील कुमार नवीन