
—विनय कुमार विनायक
पाट दो मन की खंदक-खाई,भाषा की दीवार नहीं होती
हवा सी उड़कर जाती-आती, भाषा मन पर सवार होती!
इसपार-उसपार उछल जाती, खुद ही विस्तार हो जाती,
भाषा ध्वनि का झोंका है, पूरे संसार में फैलती जाती!
बड़े-बड़े साम्राज्य ढह गये,उजड़ गये भाषा की मार से,
बड़ी धारदार होती भाषा,किन्तु बिना तलवार की होती!
भाषा सदा से सिखलाती रही है आपस में प्रेम करना,
भाषा नहीं किसी धर्म-मजहब की, ये पुकार है रब की!
धर्म-मजहब बदलता है,किन्तु बदलती नहीं भाषा रीति,
देश टूटता भले धर्म से,किन्तु भाषा विधर्मी को जोड़ती!
हिन्दुस्तान टूटा धर्म के नाम पाकिस्तान बन गया था,
पर सम मजहबी एक रहा नहीं, भाषा की ऐसी शक्ति!
भाषा और संस्कृति एकता और भाईचारे का कंक्रीट है,
मजहबी समानता किसी की वल्दियत हो नहीं सकती!