कमलेश पांडेय
आखिर जब पूरी दुनिया में मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतें हावी होती जा रही हैं और लोकतंत्र को चुनौती देते हुए एक के बाद दूसरी ‘आतंकी सरकारें गठित करती जा रही हैं, वैसी विडंबनात्मक परिस्थिति में भारत की हिंदूवादी ताकत के रूप में शुमार विश्व का सबसे बड़ा संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और उसका पिछलग्गू रही शिवसेना (अब शिवसेना यूबीटी) आदि का अपेक्षाकृत नरमपंथी रवैया अख्तियार करना पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है।
जानकारों के मुताबिक, इससे हतप्रभ ईसाई जगत तो यहां तक कह रहा है कि ऐसा होना भारत/हिंदुस्तान के समुज्ज्वल भविष्य के साथ किसी विश्वासघात जैसा है। इससे पाक समर्थित आईएसआई का काम आसान हो जाएगा जो चीनी-अमेरिकी शह पर भारत को पाकिस्तानी साम्राज्य में मिलाने के लिए यहां के मुसलमानों को गोलबंद कर रही है। कुछ इसी तरह की कवायद वह बंगलादेश में भी कर रही थी और इसी वर्ष उसमें सफल हुई।
परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान के बाद बंगलादेश में भी हिंदुओं का जीना मुहाल हो चुका है। वहीं, उसके प्लान के अनुरूप हमलोग जम्मू-कश्मीर, केरल और पश्चिम बंगाल के अलावा मुस्लिम बहुल इलाकों में हिंदुओं के उत्पीड़न और पलायन की बात सुनते ही चले आ रहे हैं। भारतीय राजनीति में आडवाणी-मोदी-योगी-फडणवीस जैसे फायरब्रांड नेताओं के अभ्युदय से भले ही हिंदुओं को राहत की सांस मिली लेकिन पहले आडवाणी, फिर मोदी के ढुलमुल बनने से हिंदुत्व को रणनीतिक क्षति पहुंची।
संभव है कि इससे यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, असम के मुख्यमंत्री हिमंता विश्वशर्मा, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, बिहार के केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह आदि की रणनीति भी प्रभावित हो क्योंकि आखिर सबके राजनीतिक गर्भनाल तो आरएसएस-भाजपा से ही जुड़े हुए हैं। इससे पहले शिवसेना और अब शिवसेना यूबीटी के नरमपंथी रवैए की चर्चा लोगबाग किया करते थे और इसे हिंदुओं के लिए एक आसन्न खतरे के रूप में महसूस कर रहे थे। इसलिए उसका जनाधार भी लुढ़क गया। निकट भविष्य में किसी अन्य हार्ड कोर हिंदूवादी संगठन के उभरने से भाजपा के समक्ष भी ऐसा ही जनसमर्थन संकट उतपन्न हो सकता है।
ऐसा इसलिए कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ‘नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’ वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। पहले हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ भड़काकर अब उन्हें अव्यवहारिक समरसता का पाठ पढ़ा रहे हैं। इससे आरएसएस के अनुसांगिक राजनीतिक संगठन जनसंघ और उसका परिवर्तित रूप भाजपा, विश्व हिंदू परिषद (विहिप), बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी आदि की सामाजिक साख गिरेगी।
मोहन भागवत को यह सोचना चाहिए कि जैसे आजादी मिलते ही महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की ‘हिंदूवादी कांग्रेस’ बदल गई, कुछ यही हाल भाजपा और उसकी समर्थक शिवसेना (अब शिवसेना यूबीटी) का हुआ क्योंकि संघ प्रमुख मोहन भागवत, पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे आदि ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिहाज से जो कुछ बयानबाजी किए, उससे हार्डकोर हिन्दू जनमानस प्रभावित हुआ है।
इससे कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के सेक्यूलर मिजाज को मजबूती मिली है जबकि आज जरूरत है कि हिंदुओं की जनसंख्या बढ़ाकर, उन्हें शास्त्र और शस्त्र की शिक्षा देकर पूरी दुनिया में फैलाया जाए और इसी मकसद से भारत के प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों का रणनीतिक उपयोग किया जाए। हमारे मंदिरों को सेक्यूलर खूनी पंजे से मुक्त कर उन्हें शिक्षा-स्वास्थ्य से जोड़कर हिन्दू समाज को मजबूत किया जाए।
यही नहीं, सरकारी रिकॉर्ड से हिंदुओं की जाति विलोपित करके सिर्फ आर्थिक आधार पर उन्हें आरक्षण दिया जाए। पाकिस्तान/बंगलादेश/अफगानिस्तान से आबादी प्रत्यर्पण संधि की जाए। हिंदुओं के हिस्से को हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाए। संविधान से जातीय व साम्प्रदायिक दुर्भावना मिटाते हुए समान नागरिक संहिता लागू की जाए लेकिन मोहन भागवत उसी तुष्टिकरण का पाठ पढ़ा रहे हैं, जिसके लिए वह कभी कांग्रेस की निंदा करते थे।
सीधा सवाल है कि कभी मंदिर-मस्जिद विवाद को हवा देने/ दिलवाने वाले संघ प्रमुख मोहन भागवत आखिर अब क्यों कह रहे हैं कि ‘हर मस्जिद के भीतर शिवालय क्यों ढूंढना?’ क्या उन्हें पाकिस्तान सहित अरब मुल्कों से धमकी मिली है जिससे वह डर चुके हैं और निहत्थे स्वयंसेवकों की आतंकियों से रक्षा के लिए चंद्रायण व्रत कर रहे हैं ! या फिर कांग्रेस व समाजवादी दलों की नीतियों से प्रभावित हो चुके हैं क्योंकि यही बात वह पहले भी बोल चुके हैं।
आपको याद दिला दें कि पीएम मोदी भी केंद्रीय सत्ता में आते ही सेक्यूलर हो गए और गौ रक्षकों को खुलेआम नसीहत दी थी। उनके बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी हिंदूवादी नेताओं को नसीहत देनी शुरू कर दी। कभी आरक्षण पर उलटबांसी तो कभी हिंदुत्व पर। आखिर वह यह कहने वाले कौन होते हैं कि राम मंदिर बनने के बाद अन्य जगहों पर उसी तरह के मुद्दे न उठाएं। तो क्या हिन्दू लोग अपने आराध्य देवी-देवताओं को मस्जिदों में कैद रहने दें।
वहीं, उन्होंने कहा कि कुछ लोग समझते हैं कि वे ऐसा करके ‘हिंदुओं का नेता’ बन सकते हैं। तो क्या वो जिंदगी भर आरएसएस का थैला ही ढोते रहें। यदि उनमें मुद्दे उठाने की प्रतिभा है तो नेता बन ही जायेंगे। देश में लगातार अलग-अलग जगहों पर उठते मंदिर-मस्जिद विवाद इसी की तो पुष्टि करते हैं। शायद इसकी सफलता से उन्हें डर है कि
हिंदुओं के नेतृत्व और कल्याण का तमगा संघ प्रमुख मोहन भागवत के हाथ से फिसल न जाए।
तभी तो अपना पहला आह्वान विफल होते देख उन्होंने एक बार फिर हिंदूवादी नेताओं को नसीहत दी कि राम मंदिर जैसे मुद्दों को कहीं और न उठाएं। किसी का नाम लिए बिना ये तक कह दिया कि अयोध्या में राम मंदिर बन जाने के बाद कुछ लोग ऐसे मुद्दों को उछालकर खुद को ‘हिंदुओं का नेता’ साबित करने की कोशिश में लगे हैं। बता दें कि संघ प्रमुख दो-ढाई साल पहले भी हिंदूवादी नेताओं को इसी तरह की नसीहत दे चुके हैं। इसलिए सवाल है कि अब फिर ऐसी नसीहत की नौबत क्यों आई?
सबसे पहले बात भागवत की ताजा टिप्पणी की कि आखिर संघ प्रमुख ने कहा क्या है। पुणे में एक कार्यक्रम के दौरान गुरुवार को भागवत ने कहा कि राम मंदिर बनने के बाद कुछ लोगों को लगता है कि बाकी जगहों पर भी इसी तरह का मुद्दा उठाकर वो ‘हिंदुओं के नेता’ बन जाएंगे। ‘विश्वगुरु भारत’ विषय पर भागवत ने कहा, ‘राम मंदिर आस्था का विषय था, और हिंदुओं को लगता था कि इसका निर्माण होना चाहिए… नफरत और दुश्मनी के कारण कुछ नए स्थलों के बारे में मुद्दे उठाना अस्वीकार्य है।’
मोहन भागवत ने कहा कि भारत को सभी धर्मों और विचारधाराओं के सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। ‘उग्रवाद, आक्रामकता, बल प्रयोग और दूसरों के देवताओं का अपमान करना हमारी संस्कृति नहीं है…यहां कोई बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक नहीं है; हम सब एक हैं। इस देश में सभी को अपनी पूजा पद्धति का पालन करना चाहिए, करने देना चाहिए।’
बता दें कि जून 2022 में भी मोहन भागवत ने मंदिर-मस्जिद विवाद से बचने की नसीहत दी थी। तब बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे का मुद्दा काफी गरमाया हुआ था। ताज महल को भी मंदिर बताते हुए सर्वे की मांग हो रही थी। संघ प्रमुख ने तब कहा था, ‘हर दिन एक नया मुद्दा नहीं उठाना चाहिए। झगड़े क्यों बढ़ाएं?…हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों ढूंढना?’ ऐसे में संभल मंदिर-मस्जिद विवाद के बाद
अब अगर भागवत को फिर से उसी तरह की नसीहत देनी पड़ी है तो इसकी वजह अलग-अलग जगहों पर नए-नए मंदिर-मस्जिद विवाद का सामने आना है।
उल्लेखनीय है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए जब आंदोलन चल रहा था तब सुलह के पक्षधर हिंदूवादी नेताओं की यही मांग हुआ करती थी कि अयोध्या, काशी और मथुरा के विवादित धर्मस्थलों को अगर मुस्लिम पक्ष उन्हें सौंप दे तो हिंदू पक्ष भी बाकी तमाम जगहों पर ‘मंदिर तोड़कर’ बनाई गईं मस्जिदों पर अपना दावा छोड़ देगा लेकिन सुलह नहीं हो पाई। अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अयोध्या में राम मंदिर बन चुका है। काशी और मथुरा के मामले अदालतों में पेंडिंग हैं लेकिन अब ऐसे मुद्दों की जैसे बाढ़ सी आ गई है क्योंकि लगभग 1800 ऐसे विवादास्पद मंदिर-मस्जिद लोगों के संज्ञान में है।
यूँ तो ऐसे मामलों की बाढ़ न आए, इसी को लेकर केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने पक्षपाती और हिंदू हित विरोधी “प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट 1991-92” पास किया जिसके मुताबिक, 15 अगस्त 1947 को किसी धर्मस्थल की जो स्थिति थी, वही स्थिति मान्य होगी। उस धर्मस्थल की वही प्रकृति मानी जाएगी लेकिन बदलते माहौल में अब इसे भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। इससे नई-नई जगहों पर मंदिर-मस्जिद विवाद की बाढ़ आ चुकी है, जो सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्देशों के बाद न तो सूचीबद्ध होगी, और न ही उस पर फैसले व निर्देश आएंगे, जबतक कि सर्वोच्च न्यायालय इस विषयक अपनी सुनवाई न पूरी कर ले और जजमेंट न दे दे।
गौरतलब है कि हाल के दिनों में कई जगहों पर मंदिर-मस्जिद विवाद सामने आए हैं। यूपी के संभल में कोर्ट के आदेश पर वहां की जामा मस्जिद के सर्वे को लेकर इतना बवाल हुआ कि सर्वे का विरोध करने वाली भीड़ और पुलिस की झड़प में 5 लोगों की मौत हो गई। संभल के बाद बदायूं, फतेहपुर सिकरी, बरेली, जौनपुर जैसे कई जगहों पर मस्जिदों के नीचे मंदिर होने के दावे सामने आए और अदालतों में मामले पहुंचे। इनके अलावा अजमेर शरीफ के हिंदू मंदिर होने का दावा किया जा रहा है। जौनपुर की अटाला मस्जिद को लेकर भी ऐसे ही दावे किए जाते रहे हैं। दलील दी जाती है कि आंक्रांताओं ने अपने-अपने दौर में मंदिरों को तोड़कर उनके ऊपर मस्जिदें बना दी।
वहीं, मंदिर-मस्जिद विवाद की बढ़ती संख्या और लगातार उछाले जा रहे नए-नए विवादों के बीच सुप्रीम कोर्ट ने हाल में साफ किया है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट की वैधता पर उसका फैसला आने तक अब कोई भी अदालत इस तरह के किसी नए मामले की सुनवाई नहीं करेगी। पुराने मामलों में भी कोई प्रभावी आदेश नहीं देगी। दरअसल, प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट की संवैधानिक वैधता को कई याचिकाओं के जरिए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। शीर्ष अदालत के इस फैसले के बाद फिलहाल नई जगहों पर मंदिर-मस्जिद विवाद को खड़ा करने की कोशिशें नाकाम होगी।
कहना न होगा कि इस तरह के नए-नए मुद्दों के उठने से सांप्रदायिक सौहार्द को नुकसान हो सकता है। इसीलिए संघ प्रमुख को फिर नसीहत देनी पड़ी है कि नई जगहों पर राम मंदिर जैसे मुद्दे न उठाए जाएं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने मंदिर और मस्जिदों के हालिया विवाद पर टिप्पणी क्या की, अब इस पर सियासी प्रतिक्रियाओं दौर जारी है। भागवत की टिप्पणी पर उत्तर प्रदेश स्थित कैराना से सांसद और समाजवादी पार्टी की नेता इकरा हसन ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि हैरानी है लेकिन उनके बयान का स्वागत है। हम लोग आश्चर्य में हैं कि वहां से ऐसा बयान आया। पहली बार उनके बयान से इत्तेफाक रखती हूं लेकिन ये भी कहना चाहती हूं कि ये सब प्रयोग जो हुआ है उन्हीं के संघ द्वारा शुरू हुआ था, लेकिन देर आए दुरुस्त आए। बयान देर से आया है, लेकिन इसका स्वागत करते हैं।
वहीं, सपा नेता और राज्यसभा सांसद रामगोपाल यादव ने भी भागवत के बयान पर प्रतिक्रिया दी और कहा कि भागवत जी का बयान सही है लेकिन उनके शिष्य ये बात नहीं मान रहे। उनको कार्यवाही करनी चाहिए। वहीं कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने कहा कि मोहन भागवत जी को ये सलाह उन लोगों को देनी चाहिए जो उनसे विचारात्मक रूप से इत्तेफाक रखते हैं और जो लोग कानून का उल्लंघन करते हैं, उनको सलाह दें।
इन बयानों से साफ है कि आरएसएस-शिवसेना’ के हिन्दू दर्शन की ‘अकाल मौत’ हो चुकी है। मुल्क में फिर मुस्लिम शासन लौट सकता है, क्योंकि पाकिस्तान-बंगलादेश एकजुट हैं और हिन्दू नेता विभाजित। आखिर इनके पूर्वजों ने भी तो यही भूल की और 800 साल गुलाम रहे। यदि अंग्रेज नहीं आए होते तो आज भी यहां उनकी बादशाहत चलती। जिन्ना भी तो यही चाहते थे, जिन्हें नेहरू ने सियासी लंगड़ी मार दी थी लेकिन नेहरू के मुल्क की ऐसी दुर्गति उन्हीं की पीढ़ियों ने कर दी। रही सही कसर संघ पूरे कर देगा, अपने एजेंडे से मुंह फेर कर! खैर जिस सत्ता के लिए वह ऐसा कर रहा है, वह भी उसकी नहीं बचेगी क्योंकि हिन्दू समझदार हैं, नया नेतृत्व ढूंढ लेंगे।
कमलेश पांडेय