मोदी का साक्षात्कार: भारत-चीन संबंधों की नई दिशा ?

डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 मार्च को जारी एमआईटी के शोध वैज्ञानिक और पॉडकास्टर लेक्स फ्रिडमैन के साथ एक साक्षात्कार के दौरान कई विषयों पर विस्तार से चर्चा की जिसमें उन्होंने अपने शुरुआती जीवन, हिमालय की यात्रा, आरएसएस के प्रभाव और हिंदू राष्ट्रवाद पर अंतर्दृष्टि के साथ ही साथ चीन के साथ भारत के संबंधों पर विस्तार से चर्चा की। यद्यपि इसमें सभी विषय अत्यन्त संवेदनशील हैं, तथापि चीन के प्रति प्रधानमन्त्री की टिप्पणी और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। प्रधानमन्त्री ने लेक्स फ्रिडमैन से बात-चीत करते हुए अतीत के तनावों के बावजूद चीन के साथ संबंधों को मजबूत करने की आवश्यकता पर जोर दिया जिसमें उन्होंने मतभेदों के बजाय संवाद और संघर्ष के बजाय सहयोग की वकालत की। मोदी ने इस बात पर भी जोर दिया कि भारत और चीन को टकराव के बजाय स्वस्थ और स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा में शामिल होना चाहिए। उन्होंने दोनों देशों के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों को रेखांकित करते हुए कहा कि भारत और चीन सदियों से एक-दूसरे से सीखते रहे हैं और वैश्विक सभ्यता में योगदान देते आए हैं। मोदी ने मतभेदों को स्वाभाविक मानते हुए इस बात पर जोर दिया कि उन्हें विवाद में नहीं बल्कि संवाद और सहयोग से समाधान खोजना चाहिए।

प्रधानमन्त्री मोदी ने कहा कि 2020 से पहले की स्थिति बहाल करने के प्रयास जारी हैं और धीरे-धीरे विश्वास बहाल होगा। उन्होंने  प्रतिस्पर्धा को जिम्मेदारी से प्रबंधित करने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि भारत-चीन की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा वैश्विक स्थिरता के लिए आवश्यक है। उन्होंने 21वीं सदी को एशिया की सदी बताते हुए सहयोग और समझौतों के प्रभावी क्रियान्वयन की जरूरत पर जोर दिया। प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी के बाद चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने उनकी जम कर तारीफ करते हुए कहा कि प्रमुख शक्तियों के रूप में भारत और चीन कोई अपवाद नहीं हैं। इसमें आगे कहा गया कि जब तक प्रतिस्पर्धा निष्पक्ष, रचनात्मक और विनियमित रहती है, तब तक यह दोनों देशों के विकास में सहायक होगी। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणियाँ भारत-चीन संबंधों को एक व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखने की ओर इशारा करती हैं, जहाँ सहयोग और प्रतिस्पर्धा साथ-साथ चल सकते हैं। आखिर मोदी ने चीन के प्रति इस प्रकार की टिप्पणी क्यों की, यह एक विमर्श का विषय है। चीन पर  विश्वास करना नितान्त कठिन है क्योंकि चीन अत्यधिक यथार्थवादी राष्ट्र है, जिसमें नैतिकता के लिए कोई जगह नही है, उसके लिए सिर्फ उसका राष्ट्रीय हित प्रमुख है। फिर भी अगर गौर करें तो पता चलता है कि वस्तुतः यह साक्षात्कार फरवरी महीने में दिया गया था, जिसे लगभग एक माह बाद प्रसारित किया गया। इसका अर्थ यह है कि प्रधानमंत्री के द्वारा दिया गया यह साक्षात्कार सोच समझकर दिया गया क्योंकि वैश्विक परिवेश में जिस तरह से बदलाव हो रहा है उस लिहाज से यह विशिष्ट है क्योंकि वैश्विक परिस्थितिया दिन-प्रतिदिन तेजी से परिवर्तित हो रही हैं।

प्रधानमन्त्री की इस टिप्पणी पर विचार करें तो विदित होता है कि भारत और चीन 2025 में अपने कूटनीतिक रिश्ते की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं. ऐसे में दोनों देशों का निकट आना निःसंदेह दोनों मुल्कों के लिए फायदेमंद है। वास्तव में इस सकारात्मक विश्वास बहाली का प्रभाव अमेरिका पर पड़ने वाला है क्योंकि विगत 20 जनवरी को  सत्ता सम्हालने के बाद से ही ट्रम्प  अमेरिका के पुराने गौरव की वापसी के नाम पर टैरिफ राजनय के तहत व्यापार शुल्क लगा रहे हैं, इससे ब्रिक्स देश परेशान हैं। अर्थात कम से कम इस मुद्दे पर चीन और भारत के साझा हित हैं।

 सच्चाई यह है कि चीन अभी भी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है और अमेरिका इस बात से चिंतित है कि कहीं वह उससे आगे ना निकाल जाए। ऐसी स्थिति में भारत को चीन से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। भारत कैसे मैन्यूफैक्चरिंग हब बन सकता है, कैसे वह अपने को वैश्विक चेन सप्लाई में आगे ले जा सकता है, यह कदाचित इस परिवेश में चीन के साथ मिलकर ही संभव है। वर्तमान सदी आर्थिक तरक्की की सदी है, ऐसे में भारतीय कूटनीतिज्ञों को उन परिस्थितियों की ओर निरन्तर ध्यान देना होगा जो भारतीय अर्थव्यवस्था के मुफीद हो।

यद्यपि चीन से आर्थिक सम्बन्ध स्थापित करके भारत तरक्की कर सकता है तथापि चीन से होने वाला व्यापार घाटा  भी एक बड़ी चुनौती है। इस चुनौती से बचने के उपायों को भी तलाशना होगा। साथ ही हमें इतिहास पर भी नजर रखनी होगी क्योंकि धोखा देना चीन की पुरानी प्रवृत्ति रही है। वस्तुतः सीमा विवाद अब स्थिर अवस्था में है और दोनों पक्ष बातचीत के अगले चरण में प्रवेश कर सकते हैं। फिर भी इसे यथा शीघ्र सुलझाने पर जोर देना होगा।  इस बात पर भी विचार करना होगा कि कहीं ऐसा ना हो कि चीन की प्रगति वैश्विक दक्षिण( ग्लोबल साउथ) में भारत की नेतृत्वकारी भूमिका को प्रभावित कर दे। कुल मिलकर प्रधानमन्त्री का यह साक्षात्कार आने वाले कुछ दिनों में यह तय करेगा कि वैश्विक दक्षिण का वास्तविक प्रतिनिधि कौन होगा।

डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र

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