
—विनय कुमार विनायक
मां तुम कितना कुछसहती हो,
फिरभी तुमकुछनाकहती हो,
खाना हम सबको खिलाने तक,
तुम मांदिनभर भूखी रहती हो!
इस जहां में कहांकोईरचना,
जो तेरे जैसेभूख-प्यास, नींद
और ढेर सारी पीड़ा सहती हो,
फिर भी कुछ नहीं कहती हो!
मां तुम कितनीभोलीसी हो,
दुनिया मेंअमृतरस घोली हो,
अपनेबच्चों की आपदाओंको
अपने हीसरपर ले लेती हो!
मां नहीं तो जग कैसाहोता?
जीव जंतुओं सेयेसूना होता,
हर तरफ सिर्फ रोना ही होता,
मां तुम हम सबको हंसातीहो!
मां तोसबोंकी जरूरत होती,
मांसारेभगवान की भीहोती,
अवतारऔरपैगंबर को छोड़ो,
मां तो हमसबके ऊपरहोती!
जहां मेंसबको मां सुलभ होती,
यहांसबको मां उपलब्ध होती,
ईश्वर, रबचाहे हो, या ना हो
मां धरती अंबर तक में होती!
मां का दिल दुखाना ना कोई,
मां को कभी रुलाना ना कोई,
मां से ही दुनिया बनीसारी,
मां को कुछ बनाना ना कोई!
—विनय कुमार विनायक