
—विनय कुमार विनायक
बाबर की बीबी महीम बेगम को था
चार लाल-हुमायूं, असकरी और हिंदाल!
पन्द्रह सौ तीस दिसंबर में
हुमायूं बैठा आगरा की गद्दी पर
कामरान को काबुल, कांधार
असकरी को संभल
और हिंदाल को अलवर का हिस्सा
यह था बाबरी उतराधिकार का किस्सा।
सन् पंद्रह सौ इकतीस में
हुमायूं ने कालिंजर को घेरा
सन् पंद्रह सौ बत्तीस में लगा
दौराहा का फेरा/दादरा का युद्ध
जिसमें महमूद लोदी अफगान
मुगलों से तीसरी बार हारा!
सन् पंद्रह सौ पैंतीस से छत्तीस तक
हुमायूं लड़ा बहादुरशाह के साथ में
युद्ध जीता गुजरात में
पंद्रह सौ सैंतीस से उन्चालीस तक
घेरा किला चुनार को
पर स्वीकार कर हार को
चला हुमायूं चौसा का मैदान
सुनकर शेर खां के हुंकार को
पर सह नहीं सका उस कायर ने
चौसा से कन्नौज तक की लंबी
शेर खां की मार को।
सन् पंद्रह सौ चालीस से चौवन तक
हुमायूं खाक छानता रहा वन-वन
फिर पचपन में माछीवाड़ा
और सरहिंद का युद्ध लड़ा
सिकंदर सूर को दूर ठेलकर
वह धैर्य से रहा खड़ा
अब दिल्ली दूर नहीं थी,
विजय हुमायूं के सामने खड़ा
पुनः गद्दी पर बैठा ही था
कि सीढ़ी पर से लुढ़क पड़ा
सन् पंद्रह सौ छप्पन में छिपा
कब्र में चैन-सुकून पाने।
हुमायूं की जीवनी हुमायूं नामा,
उसकी बहन गुलबदन ने लिखी,
बनवाई थी हुमायूं का मकबरा,
दिल्ली दीनपनाह के निकट में
उसकी विधवा हमीदा बानो ने!
हुमायूं ने स्वीकारा रक्षा बंधन,
चित्तौड़ की रानी कर्णावती का,
किन्तु बहादुरशाह के कहर औ
जौहर से बचा नहीं पाए बहन!
हुमायूं लुढ़कते रहे थे आजीवन,
अंततः सैंतालीस वर्ष में लुढ़क
सीढ़ी से समाप्त हुआ जीवन!
—विनय कुमार विनायक