धर्म-अध्यात्म

नवभारत टाइम्स का जवाब, ‘दुनिया है मेला, पर कुंभ अलबेला’

नवभारत टाइम्स के ब्लागर राकेश परमार ने महाकुंभ को 5 करोड़ मूर्खों का मेला कहा है। उनके ब्लाग के प्रत्युत्तर में प्रवक्ता से जुड़े पाठक राकेश कुमार ने निम्नांकित चिट्ठी हमें पोस्ट की है, हम उसे अपने पाठकों के लिए जस का तस प्रस्तुत कर रहे हैं।–संपादक

राकेश परमार भाई,

सादर नमस्कार।

नवभारत टाइम्स.काम के ब्लाग पर आपका कुंभ संबंधी आलेख पढ़ा। आपकी आलोचना मैं नहीं करूंगा लेकिन आपसे बात करने को जरूर जी चाहता है।

क्या है कि आप हिंदुस्तान की उस नस्ल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो सेकुलर वातावरण में हिंदुत्व विरोधी मार्क्स और मैकाले की कार्यशाला से प्रशिक्षित होकर पली-पढ़ी और आगे बढ़ी है। आपके लेखन से तो यही झलकता है।

आपने अपने ब्लाग का नाम लिखा है-बारहमासा। ये बारहमासा शब्द आपको क्या आपके बाप ने दिया है। उत्तर मिलेगा- हां। फिर सवाल उठेगा कि आपके बाप को ये शब्द किसने दिया। ज़ाहिर है कि उनके बाप ने यानी आपके दादा-परदादा ने दिया होगा। और उनको कहां से मिला होगा।

खैर छोड़िए, आपके और बापके दायरे से बाहर निकलते हैं। अंग्रेजी में भी 12 महीने होते हैं। होते हैं ना भाई। आप कहेंगे कि होते तो हैं। मैं कहूंगा कि यदि 12 महीने होते हैं तो अंतिम महीना दिसंबर क्यों? दिसंबर यानी डेसेंबर, यानी दस, तो फिर दिसंबर बारहवां महीना कैसे हुआ। नवंबर यानी नौ, अक्टूबर यानी आठ, सेप्टेंबर यानी सात जबकि असलियत क्या है। नंबर से देखो कि कौन से नवां, आठवां, सातवां महीना पड़ता है।,,,,,,कुछ घुसा दिमाग में भाई कि नहीं! ये दो महीने बढ़ कहां से गए। यदि इसके बारे में पता लग जाए तो फिर से से एक ब्लाग लिख मारना।

अब आप पूछोगे कि इसका महाकुंभ से क्या संबंध। हां सम्बंध है और पूरा सम्बंध है। इतना तो स्वीकार करोगे कि दुनिया में सभी मत-मजहबों के जन्मदाता हैं, सभी मतों और धर्मों की कोई ना कोई एक किताब है, कोई ना कोई एक पूजा-पद्धति है। लेकिन हिंदू धर्म के साथ ऐसी कोई बात जुड़ी नहीं है।

क्यों नहीं जुड़ी है, कभी तुम्हारे दिमाग में आया। आएगा भी तो उल्टा ही सोचोगे क्योंकि इसी तरह से सोचना तुम्हारे भाग्य में लिख गया है और तुम उल्टा-पल्टा लिखने के आदी हो गए हो।

पांच करोड़ लोगों को जुटा सकती है कोई सरकार दुनिया में कहीं पर। दुनिया में किसी रैली में सुना है कि पांच करोड़ लोग जुट गए हों। और वह भी एक दिन नही महीने भर मेला-रेला चलता रहता है। जो नहीं जुट पाते कुंभ में, वे अपने अपने यहां की स्थानीय नदियों के किनारे ही विभिन्न पर्वों पर जुटकर प्रतीक रूप में कुंभ स्नान कर लेते हैं।

पंडित मदनमोहन मालवीय से यही सवाल पूछा था एक ब्रिटिश यात्री ने। पूछा था कि करोड़ों लोग जुटते हैं, मिलता क्या है। इतने लोगों तक इस आयोजन की तिथि के बारे मैं सूचना कैसे पहुंचती है। इस सूचना के प्रचार में खर्च कितना लगता होगा। वह ब्रिटिश नागरिक भारत की परंपरा से अनभिज्ञ था। जैसे तुम….भारत में रहते हुए भी भारत के लोकजीवन से दूर…!

मालवीय जी को तो आप जानते ही होंगे। आप जैसों की शिक्षा के लिए उस महात्मा ने भीख मांग-मांग कर काशी हिंदू विश्वविद्यालय की नींव रखी थी, उसे संसार के श्रेष्ठतम शैक्षिक परिसरों में से एक का दर्जा अपनी आंखों के सामने ही दिलवाया था। जानते हो मालवीय जी ने उस ब्रिटिश नागरिक को क्या उत्तर दिया था। एक पंचांग उठा लाए मालवीय जी। उसके सामने रख दिया। उस समय कीमत थी एक आने यानी एक पैसे, ज्यादा से ज्यादा होगी दो पैसे। मालवीयजी उससे बोले-बस दो-चार पैसे खर्च आता है सूचना देने में। ये देखो, इस पंचांग में अमूक-अमूक तिथि बताई गई है कि इस दिन सूर्य, चंद्र, मंगल, शनि आदि ग्रह अपने आरबिट में कहां-कहां होंगे। और ये पंचांग ऐसा है कि गणना करके आज ही बता देंगे कि सौ साल बाद, हजार साल बाद भी सूर्य, चंद्र आदि ग्रह अपने आरबिट में कहां पर होंगे।

मालवीयजी आगे बोले- तुम्हारे यहां तो सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण की तिथियां बताने के लिए सरकार ने करोड़ों-अरबों रूपए की प्रयोगशालाएं बनाई हैं, हमारे यहां तो यही चवन्नी का पंचांग देख कर हम आज क्या हजार साल बाद का भी बता देंगे कि सूर्य ग्रहण या चंद्र ग्रहण कब-कब पड़ेगा।

मेरे भाई, अब समझे कि कुंभ क्या है। नहीं समझे। ये जो बारहमासा लिखकर बैठे हो ये बारहमास भी दुनिया को इसी देश ने बताए और इन्हीं कुंभों में शास्त्रार्थ के बाद कहा कि चैत्र, बैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, सावन, भादों आदि बारहमहीने होते हैं। तब ये आकाशवाणी, दूरदर्शन, खबरिया चैनल और समाचार पत्र नहीं होते थे। इन्हीं कुंभों में शास्त्रार्थ के बाद निचोड़ रूप में करोड़ों लोगों को नए ज्ञान और विज्ञान की जानकारी दी जाती थी। वहीं से ये ज्ञान एक समय आपके बाप-दादाओं को भी मिला था। मेरे बाप-दादाओं को भी मिला। आप भूल गये, सौभाग्य कि मुझे याद है। अब बोलो कि नमक का कर्ज अदा कौन कर रहा है और नमकहरामी कौन कर रहा है।

और यही ज्ञान जब पश्चिम में पहुंचा तो जो साल वहां कभी दस महीने का होता था, उसे दुरूस्तकर बारह महीने का कर दिया गया। लेकिन महीने बढ़ाते समय फंस गया एक पेच। पेच ये कि जब ये ज्ञान पश्चिम में पहुंचा तो रोमन साम्राज्य का सम्राट था जुलियस सीजर। आप जैसे सेकुलरियाए चाटूकार वहां भी थे सो चाटूकारों के सुझाव पर उसने अपने नाम से एक महीने का नामकरण कर दिया जुलाई, तो दूसरे सम्राट जुलियस सीजर के बाद हुए, उस सम्राट का नाम था, आगस्टस। उसके चाटूकारों ने उसे भरा तो उसने भी जबरन एक महीने का नाम अपने नाम से रखवा दिया और फिर दूसरे वाले महीने का नाम पड़ा अगस्ट।

लेकिन फिर एक पेच फंस गया। वह ये कि मई महीना तो था 31 दिन का, जून था 30 दिन का, जून के बाद जोड़ी गई जुलाई और जुलाई हो गई 31 दिन की, लेकिन अगस्ट में हो रहा था 30 दिन तो सम्राट आगस्टस बिगड़ गया पश्चिम के एस्ट्रोलाजर्स पर। बोला- ये क्या मज़ाक कर रहे हो। जुलियस के जुलाई में 31 दिन और मेरे अगस्ट में 30 दिन! ये नहीं हो सकता। मेरे महीने में भी करो 31 दिन। तो इस तरह जुलाई और आगस्ट दोनों में 31 दिन हो गए। बिचारे फरवरी महीने को इस विवाद में लेने के देने पड़ गए। क्योंकि उसके दिन कम कर दिए गए। आखिर साल में 365 ही दिन तो थे। बाद में फिर गड़बड़झाला हुआ। उसे सुधारने के लिए भी इन्हीं कुंभ से निकले धुरंधर आचार्यों की सेवा लेनी पड़ी समूचे विश्व को। उसकी कहानी फिर कभी बताउंगा, संभव हो तो कहीं खोज लेना, न मिले तो ईमेल पर संपर्क करना। साल में 365 दिन होते हैं और यह भी दुनियां ने यही से जाना। जानते हो अरब में गणित और खगोलशास्त्र को किस दर्जे में रखा गया है। आज भी गणित और अंकों को वे हिंदसां कहते हैं यानी हिंद से सीखी गई। यही गणना धीरे-धीरे संसार में फैलती चली गई। यूरोप में जो रेनेसां हुआ तो जरा शोध कर लो वह रेनेसां भी तब हुआ जब इटली के दार्शनिकों और विज्ञानियों ने यूरोपीय जड़ता को ललकारा। और इटली के लोगों को ये ज्ञान अचानक कहां से मिला तो थोड़ा विश्व इतिहास का अध्ययन करो और जानो की भारत आज क्या है, हजार साल पहले क्या था।

इस देश ने कभी किसी विज्ञानी को सिर्फ इसलिए फांसी चढ़ाने का हुक्म नहीं सुनाया कि वह धरती को गोल बताता है, कहता है कि सूर्य के चारों ओर धरती परिभ्रमण कर रही है। और ये बात तो बाइबिल के विपरीत है। ज़रा गैलिलियो और ब्रूनो के बारे में जान लो कि उन्हें कट्टरपंथियों के कारण कैसे प्राणों के लाले पड़ गए। आज कहां गए बाइबल के समर्थक और गैलिलीयो को फांसी पर चढ़ा देने की आवाज़ लगाने वाले….। और देख… एक देश भारत है जहां धरती के विषय को ही भूगोल से संबोधित किया है। बच्चे को पढ़ाने की जरूरत नहीं, उसके सहज ज्ञान के लिए विषय का नाम ही सदियों से भूगोल चला आ रहा है। इसी भूमि पर और इन्हीं कुंभों में योग, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, विज्ञान, भाषा, व्यवहार. विधि-न्याय, मीमांसा आदि का ज्ञान वेद रूपी अमृत के मंथन से निकाल कर उसे विविध शास्त्रों के रूप में लिपिबद्ध एवं श्रेणीबद्ध किया गया और सर्व समाज को, सभी मत-पंथों को इस वैदिक ज्ञान के बारे में शिक्षित और प्रशिक्षित करने की व्यवस्थाएं दी गईं।

देख भाई, ज्ञान तो बहुत झाड़ लिया मैंने। अब सीधी बात पर आता हूं। आज तारीक है 7 फरवरी,2010। दो दिन पहले ईराक के कर्बला में शिया मुसलमानों पर हमला हुआ। हजारों शिया हजरत ईमाम हुसैन की याद में गमे इजहार कर रहे थे, मातमपुर्सी कर रहे थे, तभी सुन्नी आतंकी गुट ने कहर बरपा दिया। तू शायद जानता होगा या नहीं, एक सप्ताह में तीन बार हमला बोला गया इस गमी के मेले में जहां बामुश्किल 20-25 हजार लोग जुटे थे। अब तक 110 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। जरा सोच भाई, दो मत हैं लेकिन कैसे एक मत दूसरे के खूं का प्यासा हो गया है। और यहां तो तेरे ही शब्दों में पांच करोड़ जुट रहे हैं। इन मेलों में लोग एक दूसरे का खूं क्यों नहीं पीते।

और सुन, ये जो कुंभ है ना,तेरे शब्दों में ‘महामुर्खों का कुंभ’। इसमें भारत में जन्मे जितने पंथ, संप्रदाय आदि हैं, संख्या मत गिन, सैंकड़ों हैं, चाहे वे हिंदू हों या सिख, बौद्ध हों या जैन सभी के गुरू, भक्त जुटेंगे। सारे देश से जुटेंगे, धुर केरल से अरूणाचल तक, द्वारका से जम्मू-कश्मीर तक। विश्वभर में जहां-जहां भारतीय मत-पंथों की शाखाएं हैं, वहां से भी जुटेंगे। इसी कुंभ ने सिखाया है कि भारत को कि कैसे तमाम मतभेदों और आपसी भिन्नताओं के बावजूद एकता के साथ, प्रेम से रहा जा सकता है, जिया जा सकता है। यहीं से वह परंपरा निकली है जो सबके साथ समन्यव का संदेश देती है। अपने के साथ भी पराए के साथ भी, शत्रू से भी और मित्र से भी। इसी पंरपरा ने सिखाया है कि तीज़, त्योहारों, तीर्थों पर, मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरजा घर आदि भक्ति से जुड़े सार्वजनिक स्थानों को अपनी कुंठित मनोवृत्ति से दूषित मत करो वरन् यहां के वातावरण में पवित्र होकर सारी कुंठाओं से मुक्त हो जाओ।

यहां जाओ तो खोपड़े में जो विष है ना संसार को, उसे निकाल दो, संसार के कल्मष-कर्मों को ही पाप कहा है, इसी पाप को मन-बुद्धि से निकालने के लिए जीवन में संकल्प की जरूरत होती है। यह संकल्प तब और प्रगाढ़ हो जाता है जब व्यक्ति अपने आस-पास अपने ही जैसे हाड़-मांस के पुतलों को करोड़ों की संख्या में देखता है। सबको इसी संसार में रहना है, जीना है, खाना है, सुख है, दुख है, उसी के साथ जीना है, तो ये जीने की कला सीखाने वाली जगह है। तू जा के तो देख, तेरे दिमाग का कल्मष दूर ना हो गया तो कहना। पाप-पाप-पाप रटे तो तुम खूब हो, क्या तुम पाप नहीं करते हो, ऐसा तो है नहीं कि आसमान से सीधे उतर आए हो और पुण्य ही पुण्य बांटते रहते हो।

भारतीय दर्शन की जितनी भी शाखाएं हैं, उन सबसे जुड़ी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं महाकुंभ में जुटेंगी, ये महीना भर वहीं रहेंगे, जो कुछ नया-पुराना है, उस पर ये प्रतिभाएं बैठकर चर्चा-परिचर्चा करेंगी, और जो सबके लिये अच्छा होगा, उसे स्वीकार कर, प्रचारित कर भविष्य के जीवन की शांति, खुशहाली का संदेश बिखेरेंगी। इसका अपवाद हो सकता है। क्योंकि तेरे जैसे चार्वाकों को भी ये कुंभ अपने यहां जगह देता है।

अंतिम बात, कहीं से तो पढ़कर तुम भी निकले होगे। किसी एल्युमिनाई टीम से जुड़े हो या नहीं। कभी पुराने साथियों से मिलते हो या नहीं। आजकल तो सारे आईआईटी, आईआईएम, और तुम्हारा ये जो इंडियन इंस्ट्टीयूट ऑफ मास कम्युनिकेशन है, सारे के एल्युमिनाई मुलाकातें होते मैं सुनता रहता हूं। क्यों मिलते रहते हो भाई। अब तो देश के सारे विश्वविद्यालय साल में एक ना एक बार मिलते हैं। और अभी मिली थीं दुनिया की सारी सरकारें। बोल कहां, तू तो वरिष्ठ पत्रकार है। कोपेनहेगेन पर तेरी कलम चली या नहीं। क्यों मिले थे लोग कोपेनहेगन में। पर्यावरण से जुड़ी एक समस्या खड़ी हो गई है तो दुनिया भर की सरकारें एक साथ बैठ गईं। तू जानता है कि कितने दिन वैठे थे। तो 7 दिसंबर, 2009 से 18 दिसंबर, 2009 तक। इसके पहले बाली, बैंकाक, कहां-कहां नहीं बैठे। अभी फिर इसी जुलाई में बैठेंगे। तू लोगों का मिलना-जुलना नहीं देख सकता क्या।

ये हिंदुस्थान है। यहां के लोगों ने मिलने-जुलने और अपनी समस्याओं पर विचार कर उसके समाधान के लिए सनातन काल से, विगत हजारों साल से एक पद्धति बनाई कि हम लोग हर छः साल पर , बारह साल पर एक साथ मिला करेंगे। इसमें भारतीय ज्ञान-विज्ञान की सारी शाखाएं और उनके अनुयायी अनिवार्य रूप से शामिल होते हैं। एक समय था कि इस देश में हर परिवार किसी ना किसी गुरू के आधीन रहता था, गुरू किसी ना किसी संप्रदाय से जुड़ता था। इस प्रकार हर परिवार से कोई ना कोई प्रतिनिधि कुंभ में पहुंचना ही चाहिए, यह नियम था। तू आज की मत सोच, सौ साल पहले अपना दिमाग ले जा। हिंदुस्तान पर हमले दर हमले होते गए लेकिन ये कुंभ, ये परंपराएं कभी रूकी नहीं। ये है हिंदुस्तान की ताकत। कैसे एक-दूसरे से बंधकर, और एक दूसरे के साथ सभी को बांधकर रखा और रहा जाता है हिंदुस्थान से सीख मेरे भाई… सीख तो।

हरिद्वार, उज्जैन, प्रयाग और नाशिक ये चार स्थान तय किए थे हमारे तुम्हारे पुरखों ने परस्पर मिलने के लिए। और सिस्टम या प्रबंधन ऐसा किया कि हर तीन साल बाद इन चार स्थानों पर एक के बाद एक कुंभ आता ही है। हर तीन साल बाद परस्पर मिलने के लिए इतने विशाल देश में कोई ना कोई व्यवस्था क्या बननी नहीं चाहिए थी। एक स्थान पर से सारे देश को क्या सारे विश्व तक सूचना के प्रसारण की इतनी सुंदर व्यवस्था क्या तुझे विश्व इतिहास में देखने को कहीं मिली है। तू तो सूचना और ज्ञान के क्षेत्र का शोधार्थी है ना भाई। तुझसे ये भूल कैसे हो गई कि तू लोगों के एकत्रीकरण के मर्म और महात्म्य को भूल गया।…..इस प्रवक्ता के माध्यम से तुझे बहस की चुनौती देता हूं। तेरे जितनी ही उम्र है, तू आईआईएमसी का पासआउट है और मैंने 2004 में महामना के विश्वविद्यालय से परास्नातक शिक्षा ली है। हिम्मत है तो जवाब दे तो मैं फिर बात आगे बढ़ाऊं।…..जारी

लेखक-राकेश कुमार

संपादकीय टिप्पणीः( जिस प्रकार की अभद्र भाषा कुंभ जैसे पवित्र आयोजन के बारे में राकेश परमार ने नवभारत टाइम्स के ब्लाग में लिखी है, उस कारण से लेखक ने ब्लागर को तू और तुम से संबोधित किया है। लेखक के विचार निजी हैं, प्रवक्ता का अनुरोध है कि लेखन में भाषा का संयम न बिगड़े। लेकिन चूंकि मामला आस्था से जुड़ा है, इसलिए किंचित कठोर भाषा जो पत्र में उल्लिखित है, को संपादकीय अनुमति से प्रकाशित किया गया है।)