स्टेशन की सीढियां चढ़ते हुए
हर रोज़
रास्ता रोक लेती हैं
कुछ निगाहें
अजीब से सवाल करती हैं
और मैं
नज़रें बचाते हुए
हर बार की तरह
आगे बढ़ जाता हूं
ऐसा लगता है
जैसे एक बार फिर
ईमान गिरवी रख कर भी
अपना सब कुछ बेच आया हूं
और किसलिए
चंद सिक्कों की खातिर
क्यूं नहीं जाता
मेरा हाथ
अपनी जेब की तरफ
और
क्यूं नहीं निकलती उसमे से
कुछ चिल्लर
जो दबी पड़ी है
हजार के नोटों के बीच में
ठीक वैसे ही
जैसे
मेरा मन दबा है
उन निगाहों के बोझ से
लोगों की हिकारत भरी नज़रों के बोझ से
अनजाने से डर के बोझ से
और शायद
अपनी जेब हल्की होने के बोझ से
क्या कभी ऐसा कर पाऊंगा
बिना डरे
बिना सोचे
बिना झिझके
चंद सिक्के
चुपचाप वहां रख पाऊंगा
पता नहीं
शायद
कभी ये सब सच हो जाये
या फिर
सपना, सपने में ही मर जाये…
Like this:
Like Loading...
Related
सुन्दर रचना ….हार्दिक बधाई ….