दलों , दलितों और देश के अंबेडकर

डॉ० घनश्याम बादल

अंबेडकर का राजनीतिक दर्शन भारतीय राजनीति और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाला रहा है। उनका दर्शन सामाजिक न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित था। 

अंबेडकर का मानना था कि जब तक समाज में छुआछूत, जातिवाद और असमानता बनी रहेगी, तब तक लोकतंत्र केवल एक दिखावा होगा। उन्होंने सामाजिक समानता को राजनीतिक स्वतंत्रता से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण माना।

संविधान के शिल्पकार अंबेडकर भारतीय संविधान के शिल्पकार ने संविधान में नागरिकों को समान अधिकार, स्वतंत्रता, शिक्षा, रोजगार और न्याय की गारंटी प्रदान करवाई। उनका विश्वास था कि संविधान के जरिए सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है।

अंबेडकर ने लोकतंत्र को केवल राजनीतिक प्रणाली ही नहीं, बल्कि सामाजिक जीवन का तरीका माना। उनके अनुसार, लोकतंत्र का अर्थ जीने का वह तरीका है जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को आत्मसात करता है। 

अंबेडकर राज्य को समाज में सकारात्मक हस्तक्षेप करने वाला मानते थे। उनका मानना था कि राज्य को शोषित वर्गों के उत्थान के लिए आरक्षण, शिक्षा और सामाजिक सुधार जैसे मुद्दों पर सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए । 

अंबेडकर के लिए धर्म व्यक्तिगत आस्था रही लेकिन सामाजिक न्याय के विरोध में खड़े धर्म का वें विरोध करते थे। उन्होंने अंततः बौद्ध धर्म को अपनाया, जो उनके राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से मेल खाता था।

उनका अंतिम लक्ष्य ऐसा भारत था जहाँ जाति के आधार पर कोई भेदभाव न हो और हर व्यक्ति को समान अवसर मिले

आज भी अंबेडकर का नाम दलित वोटों को किसी चुंबक की तरह खींचता है और दलित, दमित वर्ग वोट बैंक पर कब्जा करने का एक अमोघ अस्त्र है । अंबेडकर के बाद कितने ही दलित नेता आए लेकिन अंबेडकर जैसा तिलिस्म कोई नहीं खड़ा कर पाया. न जगजीवन राम और न काशीराम या रामविलास पासवान और न ही मायावती स्वयं को अंबेडकर में बदल पाए। 

  अंबेडकर जयंती मनाने व उनकी जयंती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित कर देने से से दलित वर्ग भले ही खुश हो मगर अंबेडकर के साथ जीते जी जो व्यवहार हुआ और मृत्यु के पश्चात भी उन पर जिस तरह उंगलियां उठाई गई, उससे  अंबेडकर के प्रति राजनीतिक दलों एवं सरकारों के रवैया एवं उनकी कथनी करनी के अंतर का साफ पता चलता है । 

गरीब दलित परिवार में पैदा हो, फर्श से अर्श का सफर तय करने वाले अंबेडकर भारतीय संविधान के जनक तो हैं ही आज भी सोशल इंजीनियरिंग की धुरी हैं ।

भीमराव अम्बेडकर के चिंतन पर भी बहस की पर्याप्त गुंजाइश है । अंबेडकर की उंगली उठाए हुए लगाई गई प्रतिमाएं जहां समाज एवं सरकारों की मंशा पर उंगली उठा रही लगती हैं, वहीं स्वयं उन पर भी आजीवन उंगलियां उठती रही । तब भी जब अंबेडकर का चुनाव संविधान सभा के अघ्यक्ष के रूप में किया जा रहा था और तब भी जब उनके बनाए कानूनों को दुनिया अचरज भरी नज़र से देख रही थी और तब भी जब उन्हे देश में आरक्षण के नाम पर चल रहे दंगों के लिए सबसे बड़ा गुनहगार बताया जा रहा था और तब भी जब  उन्हे देश के दलित वर्ग का ‘मसीहा’  कहा जा रहा था और तब भी जब उन्हे ‘पैर की जूती’ कह लांछित किए जाने वाले दलित वर्ग  को सर माथे पर बिठाने  का दोषी माना जा रहा था । इतना ही नहीं, जब उन्होंने हिंदू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म स्वीकार किया, तब भी उनके इस निर्णय पर बहुत पैनी एवं कठोर मुद्रा वाली उंगलियां उठीं थी। 

दलितों के मसीहा भीमराव, आज़ाद हिंदुस्तान के गरीब, वंचित व दलित समाज के श्रद्धापात्र  ‘भीम’ भारत के साथ ऐसे जुड़े हैं कि भीम और भारत को अलग करना संभव ही नहीं लगता है । 

आज अंबेड़कर और उनके चिंतन पर सवाल उठते हैं, राजनीतिक रूप से उनके गढ़े संविधान पर भी प्रश्नचिह्न खड़े किए जाते हैं । अब यें सवाल कितने सही, गलत हैं यह तो अलग बात है मगर यह सच है कि आज भी अंबेडकर लाखों दिलों में बसे हैं ।

   भीमराव सिर्फ दलित समस्याओं पर नहीं सोचते थे अपितु ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते थे जिसमें सभी को न्याय मिले । आज चिंतन की आवश्यकता है कि अंबेड़कर को हम केवल दलितों तक ही सीमित रखकर उनका स्थान तय न करें क्योंकि अम्बेडकर ऐसे भारत के बारे में सोचते थे जिसमें जातिगत व आर्थिक तथा सामाजिक विषमताएं न हों ।

    अंबेडकर सामाजिक एकरूपता के पक्षधर थे और वर्गभेद व जाति तथा संप्रदाय रहित भारत के सपने देखते थे । भीम भारत को जडों तक जानते थे । अंतिम समय में उन्होने जातिगत आरक्षण का विरोध भी किया था । वे मानते थे एक बार आरक्षण की बैसाखी पर चलने की आदत होने पर दलित व पिछड़ा समाज हमेशा के लिए उसका आदी हो जाएगा और उसकी उन्नति की जमीन चालाक वर्ग हथिया लेगा और आज ऐसा ही हो रहा है ।  भीमराव ने बहुत पहले ही ताड़ लिया था कि राजनैतिक दल  आरक्षण से वोट बैंक बनाने का लाभ लेंगें और भारतीय समाज और भी ज्यादा टूटन का शिकार हो जाएगा. इसीलिए उन्होंने आरक्षण की अवधि केवल 15 वर्ष रखी थी लेकिन यह 15 वर्ष आने वाले अगले 15 वर्षों में भी पूरे होते नहीं दिखते.

      आज डा० अम्बेडकर के नाम से वोटों की फसल काटने वाले तो बहुत हैं पर उनके दिखाए रास्ते पर कम ही चलते हैं। इसी वजह से अंबेड़कर का दलित-पिछड़ों के समन्वय का अंबेडर का सपना आज भी अधूरा है । दलित अभी भी त्रस्त हैं और जब तक उन्हे गरीबी की रेखा से ऊपर नही लाया जाता, उनके लिए समाज के दूसरे वर्गों में सम्मान व बराबरी का भाव नहीं आ जाता तब तक अंबेडकर का ‘मिशन बराबरी’ का स्वप्न पूरा नहीं होगा ।  

डॉ० घनश्याम बादल

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