
उठो, जागो और लड़ो
खुद के आत्मसम्मान के लिए
खुद के अस्तित्व के लिए।
सुना है न, भगवान भी
उनकी मदद करता है
जो अपनी मदद खुद करते है।
तो फिर इंतजार क्यों
किसी और से उम्मीद क्यों
बहुत बनी तू सीता, द्रोपदी
निरीह बना तुझे लाज सौप दी
जब चाहा प्यार कर लिया
जब चाहा तलवार घोंप दी।
कठुआ, दिल्ली, उन्नाव, हाथरस
बहुत हुआ ये चीत्कार बस
रूक जा ओ पापी संसार।
नम्रता, सहनशीलता, प्यार, समर्पण
सब कमजोरी के गए पर्याय बन
उठ, दिखा ताकत, अपना बल।
शरीर नहीं दिमाग है तू
कमजोर नहीं बलवान है तू
रौद्र रूप तुझको है धरना
देवी नहीं इन्सान है बनना।
फिर रच एक नयी ‘संस्कृति’
बदल दे तू अपनी ‘प्रकृति’।
डॉ. ज्योति सिडाना