आंकड़ों की बाजीगरी में पिसता गरीब

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राजीव गुप्ता

आज़ादी के इतने वर्षो बाद भी भारत में गरीबी एक अभिशाप के रूप में मौजूद है अगर ऐसा मान लिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी ! कम से कम नैशनल सैंपल सर्वे 2009-10 के आंकड़ों से तो ऐसे ही लगता है ! इसके मुताबिक अगर जीने के लिए जरूरी “मासिक खर्च” को आधार माना जाए तो शहरों में जो लोग रोज 66.10 रुपये से कम कमाते हैं, उन्हें गरीब माना जा सकता है ! इसी तरह गांवों में प्रतिदिन 35.10 रुपये से कम कमाने वाला शख्स गरीब कहा जा सकता है ! वैसे तो ग्रामीण-गरीबी के उन्मूलन के उद्देश्य तथा योजनाबद्ध विकास को लेकर ही नीतियां और कार्यक्रम ग्रामीण मंत्रालय द्वारा बनाए जाते और इस मंत्रालय ने गरीबी उन्मू‍लन की चिरस्थायी कार्यनीति, प्रगति की प्रक्रिया में रोजगार के सार्थक अवसर बढ़ाने के सिद्धांत पर काम करना शुरू किया ! गरीबी, अज्ञानता, रोगों तथा अवसरों की असमानता को दूर करने के साथ – साथ लोगो को बेहतर तथा उच्च जीवन स्तर प्रदान करने जैसी बुनियादी कार्यनीतियो पर ही विकास की सभी योजनाओं का ताना-बाना बुना गया !

परंतु एनएसएसओ 66वें राउंड के आंकड़ों के मुताबिक देश के गांवों में लोगों का औसत मासिक खर्च 1054 रुपये प्रति व्यक्ति और शहरों में 1984 रुपये प्रति व्यक्ति है ! इस तरह से गांवों में रहने के लिए रोज 35.10 रुपये और शहरों में जीवन जीने के लिए रोज 66.10 रुपये जरूरी हैं ! अगर इसको आधार माना जाए तो गांवों में रहने वाली 64.47 फीसदी आबादी और शहरों में रहने वाली 66.70 फीसदी आबादी इस एवरेज स्टैंडर्ड से नीचे है ! इस तरह से तकरीबन कुल आबादी का 65 हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे होगा ! हालांकि, जब सरकार गरीबी रेखा के बारे में अपने मानदंड पर फिर से विचार कर रही है, ऐसे में गरीबी रेखा की परिभाषा तय करने में यह औसत मासिक खर्च का आंकड़ा फायदेमंद साबित हो सकता है ! अगर राज्यों की बात करें तो सभी राज्यों की लगभग 60 फीसदी आबादी इस औसत मासिक खर्च से कम में गुजर बसर करती है !

मामले चाहे भ्रष्टाचार का हो अथवा योजना आयोग का सरकार हर मुद्दे पर नाकाम होती दिखती है ! योजना आयोग ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर गरीबी रेखा का निर्धारण करने की नाकाम कोशिश की जो कि वर्तमान सरकार के गले हड्डी की फांस बन गयी थी ! ध्यान देने योग्य है कि पिछले साल योजना आयोग ने गरीबी रेखा के लिए जो मानदंड तय किए थे, उस पर काफी विवाद हुआ था ! योजना आयोग ने कहा था कि शहरों में प्रतिदिन 28.65 रुपये और गांवों में 22.42 रुपये से ज्यादा कमाने वाले लोग गरीबी रेखा से नीचे नहीं माने जा सकते हैं ! योजना आयोग की यह दलील तो गले के नीचे तो नहीं उतरी परन्तु यह काला सच जरूर साबित हो गया कि जो लोग “एसी” की हवादार बंद कमरे योजनाये बनाते है उनका वास्तविकता से कोई सरोकार ठीक उसी प्रकार नहीं है जैसे कि जब फ़्रांस में एक समय भुखमरी आई और लोग भूखे मरने लगे तो वहां की महारानी “मेरी एंटोयनेट” ने कहा कि अगर ब्रेड नहीं है तो ये लोग केक क्यों नहीं खाते ?

शहरी इलाके में 28.65 रुपये और ग्रामीण इलाके में 22.42 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है असल में मुद्दा ये नहीं है ! आजादी के समय भारत की जनसँख्या लगभग 33 करोड़ थी परन्तु आज आधी से ज्यादा जनसंख्या रोजाना 22. 42 रुपये से कम पर जीती है अगर इन्हें :गरीबी रेखा के नीचे” रखने की बजाय “भुखमरी रेखा” की श्रेणी में रखा जाय तो कोई हर्ज नहीं होगा ! ये संख्या चीन , वियतनाम जैसे देशो की तरह कम क्यों नहीं हो रही है ? पानी आपे से बाहर जा चुका है अब कहा पर “नियंत्रण रेखा” खीचना है असल मुद्दा तो यह है ! यह मामला संज्ञान में तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली कमेटी के अनुसार 2011 के मूल्य सूचकांक को देखते हुए यह कहा कि 20 और 15 रुपये में 2100 कलोरी प्राप्त करना असंभव है ! जहा एक तरफ तेंदुलकर कमेटी ने देश की कुल आबादी के 37 प्रतिशत लोगो को गरीबी रेखा से नीचे माना है तो वही दूसरी तरफ एन सी सक्सेना कमेटी ( ग्रामीण विकास मंत्रालय ) ने देश की 50 प्रतिशत जनसँख्या को गरीबी रेखा से नीचे माना ! दरअसल ये आकड़ो की बाजीगरी के पीछे सरकार की किसी साजिश की बू आ रही है क्योंकि वर्ल्ड बैंक का सरकार पर सब्सिडी कम करने का लगातार डंडा चल रहा है !

वर्ष 1991 में वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री थे ! उस समय इनकी आर्थिक सुधार की पहल से पिछले दो दशको में भारत की अर्थव्यवस्था की गिनती चुनिन्दा शक्तिशाली देशो में होने लगी ! इसका अंदाजा हम वर्ष 2010 में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा से भी लगा सकते है जिसमे उनके भारत आने का एक उद्देश्य अमेरिका व्यापार के लिए भारतीय -बाजार को खोलना भी शामिल था ! परन्तु वर्तमान सरकार यूंपीए – 2 “आम आदमी का हाथ कॉंग्रेस के साथ” के नारे पर सत्तारूढ़ होने वाली पार्टी आज उस “आम आदमी” को भूल गयी ! डबल डिजिट की जीडीपी ग्रोथ रेट मात्र सपना बनकर रह गयी !

आज वर्ष 1991 के वित्त मंत्री श्री मनमोहन सिंह वर्तमान समय में भारत के प्रधानमंत्री है जो कि एक विश्व विख्यात अर्थशास्त्री भी है अतः इनसे आर्थिक सुधार के मुद्दों पर हर भारतीय कुछ करिश्माई जरूरी कदम लेने की आस से देखता था परन्तु बावजूद उसके भारत की आधी से ज्यादा जनसँख्या एनएसएसओ के ताजा आंकड़ो के आधार पर लगभग 60% जनता गरीबी में रहे तो यह वर्तमान सरकार के कामकाज के तौर तरीको पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है ! इतना ही नहीं अभी हाल में ही अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी स्टैडर्ड एंड पूअर्स ने राजकोषीय घाटे की बिगडती स्थिति तथा नीति-निर्णय के स्तर पर चलते राजनीतिक दिशाहीनता को देखते हुए भारत की रेटिंग को नकारात्मक कर दिया है ! इतना ही नहीं एक अन्य रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भारत की ख़राब होती अर्थव्यवस्था के लिए श्री मनमोहन सिंह को ही जिम्मेदार ठहराया था ! इन एजेंसिया की विश्वव्यापी इतनी बड़ी साख है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इनकी रिपोर्टो के आधार पर ही विदेशी अन्य देशो में निवेश करते है !

इस गंभीर समस्या पर राष्ट्र-व्यापी चिंतन नितांत आवश्यक है न कि किसी हमदर्दी या नैतिक चिंतन का क्योकि यह मुद्दा सीधे – सीधे जनता , शासन – प्रशासन से जुड़ा है ! सरकारी आंकड़े अब नैतिकता के मुंह पर तमाचा मारते है ! केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री , श्री जयराम रमेश के तर्क के अनुसार उनके मंत्रालय द्वारा एक लाख करोड़ रुपये की भरी भरकम राशि खर्च की जाती है जिसमे से मात्र नौ फीसदी अर्थात मात्र नौ हजार करोड़ रूपया बीपीएल के हिस्से में जाता है ! शहरो में तो ये हिस्सेदारी और भी कम होकर मात्र पांच प्रतिशत ही बैठती है ! वो आगे कहते है कि राज्यों के बीच भी बीपीएल को लेकर वितरण ठीक नहीं है ! मसलन केरल में जहा एक तरफ महज तीन फीसदी बीपीएल है और उन्हें दस फीसदी खाद्य सब्सिडी मिलती है तो वही दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में जहा लगभग देश के अट्ठारह फीसदी से भी ज्यादा लोग बीपीएल की कैटेगरी में आते है वहां भी उन्हें केरल के बराबर ही मात्र दस फीसदी खाद्य सब्सिडी मिलती है !

आने वाले समय में जहां हम एक तरफ विकसित देश होने का दंभ भरते है और दूसरी तरफ गरीबी की भयावह तस्वीर से भी रू-ब-रू होते है ! दोनों चीजें एक साथ कैसे हो सकती है यह समझ से परे है ? हाँ ऐसा जरूर माना जा सकता है कि गरीब दिन प्रतिदिन गरीब होता जा रहा है और अमीर दिन प्रतिदिन और अमीर ! लेकिन आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हम इस कलंक से मुक्त क्यों नहीं हो पा रहे है ? स्कूल की पुस्तकों में पढाया जाता है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है परन्तु आज किसान गरीबी के कारण आत्महत्या करते है और किसी के कानो पर जूं तक नहीं रेगती ! वर्तमान समय में अगर गरीबी उन्मूलन को निजी क्षेत्रों के हाथ में दिया जाय तो वो गरीब से भी ज्यादा मुनाफा कमाएगा और सार्वजनिक क्षेत्र भ्रष्टाचार के बिना कुछ करेगा नहीं ! इन आंकड़ो की बाजीगिरी में आज भी गरीब आदमी पिस रहा है ! मूल प्रश्न जस का तस बना है कि भला आम गरीब आदमी जाये तो जाये कहाँ जाये ?

2 COMMENTS

  1. सामयिक विचार-: देवेन्द्र कुमार पाठक (इंडिया नहीँ, बहुसंख्यक गाँव गँवइयोँ मेँ आबाद भारत के आम जन की मौज़ूदा ज़िंदगी का एक कड़वा सच इस जनगीत मेँ उजागर करने का विनम्र प्रयास कर रहा हूँ ) जनगीत : अबै लौँ भाई ! कुहरा छाओ घनेरा, अबै लौँ भाई ! हम न देखेन सबेरा . अबै लौँ भाई ! गज भर बाढ़ैँ, दस गज पिछड़ैँ; शहरी बाढ़ैँ, गँवइया उजड़ैँ; शासन साँप-गुहेरा, अबै लौँ भाई ! काटेन पेट ,पढ़ाएन लरिका ; रहिगा वोऊ गाट न घरिका ; डिगरी लगाय रही फेरा , अबै लौँ भाई ! दाइज बिन को बिटिया बियाही ऋण लै बियाही तौ होइ तबाही सम्बंधी है लुटेरा, अब लौँ भाई! देर -सबेर मदद सरकारी ; आधी हड़पिन नायब पटवारी; हैँ सब चाम- उधेड़ा, अबै लौ भाई ! घाटे का धंधा है खेती-किसानी ; मँहगे परैँ खाद – बीज औ पानी; सब दर विपता का डेरा , अबै लौँ भाई ! सुरसा के जइसी बढ़ै मँहगाई ; ऊँट के मुँह भई जीरा कमाई ; घर बाहर दुख घेरा, अबै लौँ भाई ! = = = = = = = = = = = प्रेषण -11/05/2012; 05.15 P.M.

  2. भारत विशेषतः ग्रामीण भारत के खेतिहर एवँ अन्य असंगठित क्षेत्रोँ के करोड़ोँ गरीब मजदूरोँ के प्रति सच्चे पत्रकार का दायित्व धर्म आपने निभाया अब नए शिक्षा विधेयक की शल्य क्रिया करिए सरकारी शालाओँ मेँ पढ़ाई चौपट है क्योँ कि कोई फेल ही न होगा चौथी दुनिया एवं इंडिया ने सतही रपट छापी है जमीनी सच भयावह है कागजी सफलता के दावे झूठे हैँ कभी अनौपचारिक रूप से सुने जानेँ फोन पर चाहेँ तो बात कर लेँ

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