~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

समय बदल रहा है। आवश्यकताएँ बदल रही हैं। बेहतर से बेहतर संसाधन जुटाने की होड़ मची हुई है। और इस भ्रामक होड़ में कोई भी पीछे नहीं छूटना चाहता है। सबको अव्वल आना है,मगर देश एवं समाज को जहाँ अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । वहाँ न जाने क्यों भीषण अकाल उत्पन्न हो गया है? आधुनिकता का लबादा ओढ़ा हुआ समाज अपने नैसर्गिक विकास एवं मूल दायित्वों को भूलकर, एक ऐसी दुनिया बनाने में जुटा हुआ है जिसकी नींव ही नहीं है।
प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों को अपनी सामर्थ्य एवं उससे आगे जाकर ‘वेल अप टू डेट’ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। उन्हें महँगे खिलौने,महँगे कपड़े,महँगे स्कूल, मोबाइल, कम्प्यूटर जैसे गैजेट्स व तथाकथित आधुनिकता की मानक मानी जाने वाली सभी आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर रहे हैं। लेकिन उन्हें असल में जिसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है उससे वंचित रखने में भी कोई कोताही नहीं बरती जा रही है। बच्चों का बचपन छिनता चला रहा है। बच्चे अब समय से पहले बड़े होते जा रहे हैं। लोरियाँ, किस्से,कहानियाँ,बाल संस्कार व खेलकूद से बचपन दूर होता जा रहा है।
बच्चों का बचपन अब पूर्णतया यन्त्रवादी बनता चला जा रहा है। बच्चों का खेलना , घूमना, बाल मनुहार,जिज्ञासात्मक प्रश्न व कलाओं में रुचि जागृत करने वाली सारी गतिविधियाँ ऑनलाईन गैजेट्स ,बस्ते के बोझ व माता-पिता के शौक व अपेक्षाओं की बलि चढ़ते जा रहे हैं। बच्चे अब रुठते हैं तो उन्हें मोबाइल, कम्प्यूटर सहित अन्य गैजेट्स थमाए जा रहे हैं। यदि बच्चे खाना नहीं खाते हैं तो उन्हें यही लालच देकर मनाया जा रहा है। अपने घर-परिवार,आस -पास के परिवेश में देखें तो लगभग छ: महीने से अधिक आयु के बच्चों के हाथों में मोबाईल फोन सौंप कर माता-पिता ने अपनी समस्त जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा लिया है। इस कारण बच्चों की दुनिया संकटग्रस्त घेरे में कैद होती जा रही है।
बाल्यावस्था में जिस उमङ्ग के साथ बच्चे अपने परिवेश को देखकर स्वयं को गढ़ते हैं,अब उसके स्थान पर उनमें चिड़चिड़ापन, अकेलापन, झुँझलाहट व अवसाद सी! स्थिति देखने को मिल रही है। अधिक नहीं लेकिन आज से लगभग दस से पन्द्रह वर्ष पहले घर-परिवार में रिश्तेदारों व अतिथियों के आने से बच्चों में जो उत्साह व खुशियाँ देखने को मिलती थीं,वह अब बच्चों में कहीं नजर नहीं आती हैं। अधिकाँशतः स्थिति इतनी गम्भीर हो चुकी है कि – अब घर-परिवार में कौन आता है ? इससे उन्हें फर्क ही नहीं पड़ता है। बच्चे अब उसी मोबाइल फोन व गेमिंग में मस्त मिलते हैं। यह स्थिति लगभग सभी जगह होती जा रही है। इतना ही नहीं आगन्तुकों के साथ आने वाले बच्चे भी मोबाइल लेकर उसी में खो! जाते हैं। एक बच्चे को अपने परिवेश से जो सीखना चाहिए, उसके स्थान पर वह तथाकथित इस आधुनिकता का शिकार होकर अपने बचपन को तकनीक को सौंप रहा है।
इसमें बच्चों की कोई गलती नहीं है,बल्कि उनके घर-परिवार के वातावरण ने उन्हें जैसा बनाया,वे ठीक उसी साँचे में ढलते चले जा रहे हैं। जब ममत्व व स्नेह की थाप का स्थान तकनीक व महँगी वस्तु दिलवाने का लालच दिया जाएगा, तो बच्चे आखिर! और क्या बनेंगे? हमारे देश व सम्पूर्ण विश्व में जितने भी महापुरुष या महान कार्य करने वाले हुए हैं,उनके विकास के पीछे उनका सुव्यवस्थित बचपन,माता-पिता,घर-परिवार तथा सामाजिक परिवेश की महनीय भूमिका रही है। बच्चे अपने वातावरण तथा बड़ों से निरन्तर सीखते हैं। उनमें दया,क्षमा,करुणा,प्रेम,समानुभूति, सहानुभूति, वीरता व साहस जैसे अनेकानेक गुणों का क्रमिक विकास अपने परिवेश के आधार पर ही होता है। और बच्चे बचपन में जो कुछ भी सीखते-अपनाते हैं जीवन पर्यन्त उनके जीवन में वही सब परिलक्षित होता है।
देश के विभिन्न कोनों से कम आयु के बच्चों द्वारा आत्महत्या के बढ़ते मामले भी इस संकट की भयावहता की ओर संकेत कर रहे हैं,लेकिन समाज को कोई फर्क ही नहीं पड़ता। माता-पिता,परिजन केवल यह बात कहकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं – समय बहुत खराब है,हम क्या कर सकते हैं? इतना ही नहीं दुर्भाग्य की बात तो यह है कि- आजकल यही माता-पिता, परिजन अपने बच्चों के लिए भी सरकारी कानून के हस्तक्षेप की बात करते हैं। काम-काजी माता -पिता बच्चों को समय देने के स्थान पर उन्हें डिजिटल गैजेट्स व अन्य सभी वस्तुओं की ढेर लगा रहे हैं,लेकिन उनके पालन-पोषण की मूल जिम्मेदारी से सब कोई हाय-तौबा कर रहे हैं।
डिजिटल गैजेट्स लगातार बच्चों की सोचने-समझने की शक्ति, सम्वेदनाएँ व मूल्यबोध छीने जा रहा है,लेकिन समाज इस संकट को दूर करने की बात तो अलग ही है,उसे समझने की भी कोशिश नहीं कर रहा है। लोगों को समझ ही नहीं आ ! रहा है कि भौतिक गतिविधियों, सामाजिक संस्कारों, खेलकूद व मूल्य आधारित मानसिक खुराक की घुट्टी बच्चों के विकास के लिए कितनी अनिवार्य है। बच्चों की बालसुलभ चेष्टाएँ, कल्पनाशीलता, जिज्ञासु वृत्ति व खेल-खेल के माध्यम से सीखने के गुण में इतना बड़ा ह्रास गम्भीर चेतावनी है। किन्तु वर्तमान के विभीषक दौर में किसी को भी बच्चों के लिए सोचने व उन्हें समय देने,सुगठित करने,सँवारने की फुर्सत ही नहीं मिल रही है। सबकुछ रुपयों ,ऐश्वर्य व आधुनिकता की चकाचौंध में नष्ट होता जा रहा है।
वहीं संयुक्त परिवारों के विघटन व फ्लैट वाली जिन्दगी ने यदि सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क किया है,तो वह है बच्चों व उनके भविष्य का।दादा-दादी,नाना-नानी,चाचा-चाची,भाई-बहन सहित संयुक्त परिवारों की अनूठी विरासत लगभग अपने अन्तिम दौर में जाती हुई प्रतीत हो रही है। माताओं की लोरियाँ और बुजुर्गों के अनुभवों से पके हुए किस्से और कहानियाँ गुजरे जमाने की बातें होती जा रही हैं। संयुक्त परिवार के मूल्यों, पारस्परिक सहयोग, अपनत्वता व समन्वय के संस्कार जो बच्चों को संसार की प्रत्येक चुनौती से जूझने व उस पर विजय पाने का साहस प्रदान करते थे । वह सब आज गायब हो चुके हैं।
अब समाज ‘हम’ के स्थान पर ‘मैं’ तक ही सीमित होता चला जा रहा है। बच्चों के कानों में संस्कारों के गीत,धर्मग्रन्थों की सीखें,आदर्श, प्रेरणा ,साहस,अपनत्वता की भावना नहीं घुल मिल रही है। यह इसी का दुष्परिणाम है कि स्वमेव विकसित होने वाले नैतिक एवं मानवीय मूल्य अब दूर की कौड़ी बनते चले जा रहे हैं। समाज तकनीक के सदुपयोग, दुरुपयोग व अपने दायित्वों के विषय में सचेत नहीं हो पा रहा है। बच्चों के हाथों में प्रेरणादायक किताबें, संस्कार, स्नेह की मिठास व सबको साथ लेकर सर्जन करने के स्थान पर पूरी पीढ़ी का समुचित विकास ही अपने आप में यक्षप्रश्न बनता चला जा रहा है।
अतएव आवश्यक है कि समाज बच्चों के बचपन को लौटाए ,बचपन के महत्व को समझते हुए काल सम्यक ढँग से उनके चहुँमुखी विकास व उन्नति के लिए अपना समय दे। दायित्वों को समझकर ऐसी पीढ़ी का निर्माण करे जो सुगठित होकर राष्ट्र के भविष्य की रीढ़ बनें। थोड़ा रुकिए -ठहरिए और स्वयं से पूँछिए आप बच्चों के लिए क्या कर रहे हैं? यदि समाज ऐसा करने में अपनी रुचि नहीं दिखाता तो विश्वास कीजिए धन-दौलत, अभिमान व बच्चों के लिए जुटाने वाले संसाधन कभी काम नहीं आएँगे। बच्चों को उनके भविष्य का उतना ज्ञान नहीं है,इस कारण वे वर्तमान दौर की अन्धी सुरंग में उतरते चले जा रहे हैं। लेकिन जब बहुत देर हो चुकी होगी,और बच्चे जब अपने अतीत की ओर झाँकेंगे तो तय मानिए वे आपको क्षमा नहीं कर पाएँगे!!
कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल