संत कबीर दास जी की जयंती 11 जून पर विशेष…
दुनिया में धार्मिक कट्टरता के लिए नहीं है कोई स्थान, देश के सभी धर्म और संप्रदाय हैं एक समान
प्रदीप कुमार वर्मा
संत कबीर दास15 वीं सदी के मध्यकालीन भारत के एक रहस्यवादी कवि और भक्ति आंदोलन की निर्गुण शाखा के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, जो ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम पर जोर देते थे। संत कबीर दास को एक ऐसे समाज सुधारक के तौर पर भी जाना जाता है, जो अपनी रचनाओं के जरिए जीवन भर आडंबर और अंधविश्वास का विरोध करते रहा।वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। यही वजह है कि समाज में संत कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। उनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण शाखा की ज्ञानमार्गी उपशाखा की महानतम कविताओं के रूप में आज भी प्रसिद्ध हैं। इन कविता और साखियों के माध्यम से पता चलता है कि संत कबीर दास जी का एकेश्वरवाद का सिद्धांत दुनिया में आज भी प्रासंगिक है।
माना जाता है कि संत कबीर का जन्म सन 1398 ईस्वी में काशी में हुआ था। कबीर दास निरक्षर थे तथा ऐसी मान्यता है कि उन्हें शास्त्रों का ज्ञान अपने गुरु स्वामी रामानंद द्वारा प्राप्त हुआ था। तत्कालीन भारतीय समाज में कबीर दास ने कर्मकांड और गलत धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ आवाज उठाई और लोगों में भक्ति भाव का बीज बोया। इन्होंने सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त भेद भाव को दूर करने का भी प्रयास किया। वे सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष थे। उन्होंने हिंदू मुसलमानों के बाह्याडंबरों पर समान रूप से प्रहार किया | यदि उन्होंने हिंदुओं से कहा कि-पत्थर पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहाड़,,तासे तो चक्की भली, पीस खाए संसार ||” तो मुसलमानों से भी यह कहने में संकोच नहीं किया कि ” कंकड़ पत्थर जोड़ि के, मस्जिद लियो बनाय,,ता पर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय”?
संत कबीर ने इस बात पर ज़ोर दिया कि सच्ची पूजा दिल से होती है, बाहरी कर्मकांडों की तुलना में ईश्वर के साथ सच्चे संबंध को प्राथमिकता दी जाती है। उन्होंने यह भी सिखाया कि हृदय की पवित्रता और ईश्वर के प्रति प्रेम ही सर्वोपरि है। यजी नहीं संत कबीर ने खुलेआम खोखले कर्मकांडों और अंधविश्वासों की निंदा की और लोगों से सच्ची भक्ति की तलाश करने का आग्रह किया। उनका मानना था कि सच्ची आस्था से रहित कर्मकांडों का कोई मतलब नहीं होता है। उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था और सामाजिक असमानताओं को खारिज किया। संत कबीर ने जाति, पंथ या लिंग की परवाह किए बिना सभी मनुष्यों के बीच समानता की वकालत की। उनके छंदों ने लोगों के बीच सद्भाव की वकालत करते हुए एकता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा दिया
कबीरदास निर्गुण भक्ति के उपासक थे। उन्होंने न तो हिंदू धर्म की मूर्तिपूजा को स्वीकार किया, न ही इस्लाम की कट्टरता को। वे एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे और मानते थे कि ईश्वर एक है तथा सर्वत्र व्याप्त है। उनके अनुसार, आत्मा और परमात्मा के बीच का संबंध प्रेम और भक्ति पर आधारित होना चाहिए। कबीर दास पहले भारतीय कवि और संत हैं जिन्होंने हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म के बीच समन्वय स्थापित किया और दोनों धर्मों के लिए एक सार्वभौमिक मार्ग दिया। उसके बाद हिंदू और मुसलमान दोनों ने मिलकर उनके दर्शन का अनुसरण किया,जो कालांतर में “कबीर पंथ” के नाम से चर्चित हुआ। कहा तो यह भी जाता है की कबीरदास द्वारा काव्यों को कभी भी लिखा नहीं गया, सिर्फ बोला गया है। उनके काव्यों को बाद में उनके शिष्यों द्वारा लिखा गया। कबीर की रचनाओं में मुख्यत: अवधी एवं साधुक्कड़ी भाषा का समावेश मिलता है।
संत कबीर दास ने दोहा और गीत पर आधारित 72 किताबें लिखीं। उनके कुछ महत्वपूर्ण संग्रहों में कबीर बीजक, पवित्र आगम, वसंत, मंगल, सुखनिधान, शब्द, साखियाँ और रेख्ता शामिल हैं।
कबीर दास की रचनाओं का भक्ति आंदोलन पर बहुत प्रभाव पड़ा और इसमें कबीर ग्रंथावली, अनुराग सागर, बीजक और साखी ग्रंथ जैसे ग्रंथ शामिल हैं। उनकी पंक्तियाँ सिख धर्म के धर्मग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में पाई जाती हैं। उनकी प्रमुख रचनात्मक कृतियाँ पाँचवें सिख गुरु अर्जन देव द्वारा संकलित की गईं। कबीर दास अंधविश्वास के खिलाफ थे। कहा जाता है कबीर दास के समय में समाज में एक अंधविश्वास था कि जिसकी मृत्यु काशी में होगी वो स्वर्ग जाएगा और मगहर में होगी वो नर्क। इस भ्रम को तोड़ने के लिए कबीर ने अपना जीवन काशी में गुजारा, जबकि प्राण मगहर में त्यागे थे।
कबीर संपूर्ण जीवन काशी में रहने के बाद, मगहर चले गए। उनके अंतिम समय को लेकर मतांतर रहा है, लेकिन कहा जाता है कि 1518 के आसपास, मगहर में उन्होनें अपनी अंतिम सांस ली और एक विश्वप्रेमी और समाज को अपना सम्पूर्ण जीवन देने वाला दुनिया को अलविदा कह गया…। संत कबीरदास का प्रभाव न केवल उनके समकालीन समाज पर पड़ा, बल्कि आज भी उनके विचार प्रासंगिक हैं। उनकी शिक्षाओं ने नानक, दादू, रैदास और तुलसीदास जैसे संतों को प्रभावित किया। आधुनिक युग में भी उनके विचार धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक समरसता और आत्मज्ञान के लिए प्रेरणा देते हैं। आज के दौर पर जब धर्म और मजहब के नाम पर देश और दुनिया में अशांति और हिंसा का माहौल है। तब संत कबीर दास जी का धार्मिक चिंतन तथा एकेश्वरवाद अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है कि हम धार्मिक कट्टरता और मजहबी उन्माद के नाम पर आपस में ना तो,नफरत करें और ना ही जंग।
प्रदीप कुमार वर्मा