डॉ. ब्रजेश कुमार मिश्र
पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने हाल ही में 1972 के शिमला समझौते को “मृत दस्तावेज़” करार देते हुए कहा कि पाकिस्तान अब कश्मीर पर 1948 की स्थिति पर लौट आया है, जहां नियंत्रण रेखा सिर्फ एक संघर्ष-विराम रेखा है। यह बयान पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत द्वारा ऑपरेशन सिंदूर के स्थगन के पश्चात आया। आसिफ ने कहा कि भारत-पाक द्विपक्षीय ढांचा समाप्त हो चुका है और शिमला समझौता अब लागू नहीं रहा। उन्होंने यह भी जोड़ा कि चाहे सिंधु जल संधि निलंबित हो या नहीं, शिमला समझौते का अंत हो चुका है।वास्तव में ख्वाजा आसिफ के इस बयान के पीछे मकसद क्या है ? क्या यह वास्तव में पाकिस्तान की गीदड़ भभकी है या फिर इसके पीछे कुछ यथार्थता भी है ? वस्तुतः इसे जानने से पूर्व शिमला समझौता और पाकिस्तान का उस पर क्या स्टैंड है जानना आवश्यक है।
पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने एक दूसरे के खिलाफ ठोस कदम उठाए। भारत ने 1960 की सिंधु जल संधि को एकतरफा रूप से स्थगित करने की घोषणा की जो पाकिस्तान की जीवन रेखा मानी जाती है। इस कदम का सीधा प्रभाव पाकिस्तान पर पड़ा और भारत को कूटनीतिक लाभ मिला। इसके प्रत्युत्तर में पाकिस्तान ने भी भारत जैसी ही प्रतिक्रिया दी और 1972 के शिमला समझौते को एकतरफा निलंबित करने की घोषणा कर दी। शिमला समझौता एक युद्धोत्तर समझौता था, जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि 1949 की संघर्ष-विराम रेखा को नियंत्रण रेखा में बदला जाएगा और भारत-पाकिस्तान आपसी विवादों का समाधान शांतिपूर्ण तरीकों से, बिना किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता के करेंगे। भारत और पाकिस्तान के बीच 3 जुलाई 1972 को हुए इस ऐतिहासिक समझौते पर तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने हस्ताक्षर किए थे।
यह समझौता 1971 के युद्ध के बाद हुआ, जब पाकिस्तान से विभाजित होकर बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आया। दोनों देशों भारत तथा पाकिस्तान ने अतीत के संघर्षों और टकरावों को समाप्त कर उपमहाद्वीप में स्थायी शांति और सौहार्दपूर्ण संबंधों की स्थापना का संकल्प लिया। समझौते के तहत, भारत और पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धांतों का पालन करने, आपसी मतभेदों को शांतिपूर्ण द्विपक्षीय वार्ता के माध्यम से हल करने तथा किसी भी विवाद का अंतिम समाधान होने तक यथास्थिति बनाए रखने पर सहमत हुए। दोनों पक्षों ने बल प्रयोग या उसकी धमकी से दूर रहने, एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता, राजनीतिक स्वतंत्रता और आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की प्रतिबद्धता जताई। साथ ही, शत्रुतापूर्ण प्रचार को रोकने और मैत्रीपूर्ण सूचनाओं को प्रोत्साहित करने, डाक, तार, सड़क, समुद्र और वायु संपर्क बहाल करने, नागरिकों की यात्रा सुविधाएँ बढ़ाने तथा विज्ञान व संस्कृति के क्षेत्र में सहयोग को प्रोत्साहन देने पर सहमति बनी। भारतीय और पाकिस्तानी सेनाओं को अंतरराष्ट्रीय सीमा पर अपने-अपने स्थानों पर वापस लौटने और जम्मू-कश्मीर में 17 दिसंबर 1971 की युद्धविराम रेखा (लाइन ऑफ कंट्रोल) का सम्मान करने का निर्णय भी लिया गया। यह समझौता दोनों देशों की संवैधानिक प्रक्रियाओं के तहत अनुमोदन के बाद प्रभावी हुआ और भविष्य में प्रतिनिधि स्तर की वार्ताओं और शीर्ष नेतृत्व की बैठकों के माध्यम से संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में आगे बढ़ने पर इस समझौते के द्वारा सहमति बनी। अंततः, दोनों देश इस बात पर सहमत हुए कि उनके प्रमुख भविष्य में उपयुक्त समय पर फिर मिलेंगे और प्रतिनिधि स्तर की वार्ताओं द्वारा युद्धबंदियों की वापसी, कश्मीर मुद्दे का समाधान और राजनयिक संबंधों की पुनर्बहाली जैसे विषयों पर चर्चा की जाएगी।
इस समझौते के बाद लगभग 93,000 पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों, सैनिकों, अर्धसैनिक बलों के सदस्य और कुछ नागरिकों को जो युद्ध बंदी थे, को 1974 के दिल्ली समझौते के तहत चरणबद्ध तरीके से पाकिस्तान को सौंप दिया गया। साथ ही भारत ने सद्भावना और शांति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए युद्ध के दौरान सिंधु क्षेत्र में कब्जाए गए 13,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्रफल को पाकिस्तान को लौटा दिया। यह कदम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की शांति-प्रिय छवि को दर्शाता है। हालांकि, भारत ने सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण चोरबत घाटी के तुरतुक और चालुंका जैसे इलाकों को अपने नियंत्रण में बनाए रखा। ये क्षेत्र न केवल पाकिस्तान के गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र के करीब स्थित हैं, बल्कि सियाचिन ग्लेशियर की ओर भारत की रणनीतिक पकड़ को और भी मजबूत करते हैं। युद्ध के बाद हुए शिमला समझौते (1972) में इन इलाकों की स्थिति पर भारत की स्थिति स्पष्ट रही और यह क्षेत्र आज भी भारत के प्रशासनिक नियंत्रण में हैं।
यह पहली बार नहीं है जब पाकिस्तान ने शिमला समझौते पर प्रश्न उठाए हैं। उसके द्वारा सियाचीन 1984 और कारगिल 1999 में लाइन ऑफ कंट्रोल को बदलने की कोशिश की गयी थी हालांकि भारत ने पाकिस्तान के दोनों प्रयासों को विफल कर दिया। पिछले कुछ वर्षों से वह इस द्विपक्षीय ढांचे को लेकर असहजता प्रकट करता रहा है। अगस्त 2019 में भारत द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद पाकिस्तान ने शिमला समझौते को निलंबित करने की चेतावनी दी थी। पाकिस्तान लगातार इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहा है, जबकि भारत ने स्पष्ट किया है कि जम्मू-कश्मीर भारत का आंतरिक विषय है। भारत का हमेशा यह रुख रहा है कि कश्मीर मसला द्विपक्षीय है और किसी भी तीसरे पक्ष की इसमें कोई भूमिका नहीं हो सकती। इसके विपरीत पाकिस्तान बार-बार इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने का प्रयास करता रहा है, जिससे क्षेत्रीय स्थिरता पर भी असर पड़ता है।
पाकिस्तान के इस कदम से यह स्पष्ट होता है कि अब वह द्विपक्षीय समझौतों से पीछे हटने की नीति अपना रहा है, जिससे दक्षिण एशिया की स्थिरता पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। हालांकि पाकिस्तान द्वारा शिमला समझौते पर कोई अधिकृत पत्र जारी नही किया गया है जिससे यह ज्ञात हो सके कि पाकिस्तान ने स्वयं को इस संधि से अलग कर लिया हो, जैसा भारत के द्वारा सिंधु नदी संधि पर औपचारिक रूप से ज्ञापन जारी किया गया था। सिंधु समझौते की समाप्ति से लेकर अब तक पाकिस्तान भारत से इस विषय पर वार्ता करने के लिए चार बार गुजारिश कर चुका है किन्तु भारत अभी भी अपने स्टैंड पर कायम है। जहाँ तक ख्वाजा आसिफ के बयान का सवाल है तो इतना तो यह तय है कि पाकिस्तान अपने पुराने रवैये पर कायम है। मतलब पाकिस्तान पर कभी भी विश्वास नही किया जा सकता है। हालांकि ख्वाजा आसिफ यह भूल चुके है कि यदि शिमला समझौते से पाकिस्तान वास्तव में पीछे हट गया है तो इसका लाभ भारत को भी मिलेगा। इससे भारत को गुलाम कश्मीर पर अपना वर्चस्व स्थापित करने का अवसर मिल जाएगा।
पाकिस्तान वस्तुतः रणनीतिक तौर पर अपने को छद्म तरीके से सर्वोच्च साबित करने में लगा है। वह आज इस स्थिति में इस कारण है क्योंकि चीन और तुर्की से उसे ऑपरेशन सिंदूर के दौरान परोक्ष रूप से मदद मिल रही थी। बावजूद इसके भारतीय सेना अभी भी कार्यवाही करने के लिए स्वतंत्र है और यदि पाकिस्तान के द्वारा किसी तरह की नापाक कोशिश की गई तो भारत अब इसका मुहतोड़ जवाब देगा।
डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र