नसीब हों ‘एकदेश, एकजैसी’ हेल्थ सुविधाएं?

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विश्व स्वास्थ्य दिवस (7अप्रैल) :

डॉ. रमेश ठाकुर

 
दुनिया सालाना 7 अप्रैल को ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ इसलिए मनाती है ताकि लोग स्वास्थ्य के प्रति सतर्क और गंभीर हो सकें। बदलते लाइफस्टाइल में लोगों का शरीर नाना प्रकार के खतरनाक वायरसों और अजन्मी बीमारियां से घिर चुका है। इसके अलावा पारिवारिक जिम्मेदारियां का बोझ, भविष्य की चिंताएं और बच्चों के कैरियर को संभालने की आपाधापी में इंसानों ने अपने स्वास्थ्य की देखरेख को बहुत पीछे छोड़ दिया है। इसे लापरवाही का नतीजा कहें या कुछ और? नौजवानों का हंसते, खेलते नाचते-गाते के दौरान स्टेजों पर दम तोड़ने वाली तस्वीरे सोशल मीडिया पर लगातार देख ही रहे हैं। असमय मौतों का डब्ल्यूएचओ का मौजूदा आंकड़ा रोंगटे खड़े करता है। 25-55 के उम्र के बीच असमय मरने वालों की संख्या पूरी कर चुके बुजुर्गों से कहीं ज्यादा आंकी गई है। इसपर विभिन्न वैश्विक चिकित्सीय रिपोर्ट ‘एक ही बात, एक सुर’ में कहती हैं कि लोग अपने शरीर की देखरेख को लेकर भंयकर लापरवाह हुए हैं। अपने पर ध्यान देना होगा, वरना इन आंकड़ों में यूं ही बढोतरी होती रहेगी। इन गंभीर स्थितियों को देखकर ही ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ जनमानस को स्वास्थ्य को लेकर सतर्क करता है।

 
इतना तय है, अगर इंसान अपनी हेल्थ को बेहतर करने के लिए अच्छी दैनिक आदतें डाल लें, तो अजन्मी बीमारी से काफी हद तक खुद को बचा सकता है। क्योंकि इस तरह की जागरूकता के लिए तमाम देशी और विदेशी स्वास्थ्य संस्था हमारे आसपास सक्रिय हैं। यूनिसेफ और डब्ल्यूएचओ के अलावा ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ संसार के देशों के लिए स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग एवं मानक विकसित करने में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। स्वास्थ्य संगठन में 193 देश मेंबर और दो संबद्ध सदस्य हैं। ये संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अनुषांगिक स्वास्थ्य इकाई है जिसकी स्थापना 7 अप्रैल 1948 में हुई थी। इसके अलावा भारत मेडिकल टूरिज्म के लिहाज से समूची दुनिया में हमेशा से विख्यात ही रहा है? फिर बात चाहें, उच्च गुणवत्ता युक्त देशी-दवाओं की हो, ऋषि-मुनियों की फार्मेसी, प्राचीन चिकित्सा प्रद्वति, सस्ती वैक्सीन व जड़ी-बूटियों का हिमालीय भंडार? सब कुछ हमारे यहां मौजूद है। संसार वाकिफ है, भारत से तमाम गरीब देशों की चिकित्सा जरूरतें पूरी होती रही हैं।


हालांकि दुख की बात ये है कि विगत कुछ दशकों से प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति और दवाओं का प्रचार-प्रसार कुछ धीमा पड़ा है, जिसका खामियाजा भुगत भी रहे हैं। आधुनिक दौर में चिकित्सा के तौर-तरीके, रंग-रूप और मायने कैसे और किस तरह से बदले हैं। सभी जानते हैं, बताने की जरूरत नहीं? इन बदलावों के सभी भुक्तभोगी हैं। कोई ऐसा नहीं जिसका चिकित्सा चुनौतियों से कभी ना कभी सामना न पड़ा हो? महंगी दवाईयों और चिकित्सा सुविधाओं से कितनों को अपनी जाने गवानी पड़ती है, ये भी सब जानते हैं। दवाइयों की कीमत आसमान छूती हैं जो एक गरीब इंसान के लिए किसी सपने से कम नहीं? दरअसल इसी असमानता को मिटाने की अब जरूरत है। फ्री चिकित्सा-सुविधाओं की कागजी बातें खूब होती हैं। पर, सच्चाई हकीकत से कोसों दूर रहती हैं। फ्री-इलाज के नाम पर तो हेल्थ कार्ड धारक अस्पतालों से रपटा तक दिए जाते हैं।

 
गौरतलब है, स्वास्थ्य मामलों की समीक्षा और संपूर्ण चिकित्सा तंत्र को ऑडिट करने की अब सख्त जरूरत है। गगनचुंबी इमारत वाले फाइव स्टार होटल नुमा अस्पताल हेल्थ के नाम पर व्यवसायी बने हुए है। लेकिन इंसानियत कहती है कि इस पेशे को धंधा न समझा जाए। क्योंकि जनमानस आज भी डॉक्टर को भगवान का दर्जा देते हैं। ये दर्जा सदियों से बना है और आगे भी यथावत रहे। इसी में सभी की भलाई है। स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव और सुधार की दरकार बहुत पहले से महसूस हो रही है। केंद्र व राज्य हुकूमतों को प्रत्येक स्तर पर स्वास्थ्य को प्राथमिकताओं में शुमार करना चाहिए और सबसे जरूरी बात प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में रिक्त पदों को भरना चाहिए। नए अस्पताल खोलने की जरूरत तो है ही। जहां प्रिवेंटिव व प्रोमोटिवे हेल्थ सुविधाएं आसानी से जरूरतमंद मरीजों को मिले। बिडंवना देखिए, छोटे से छोटे ऑपरेशन भी ग्रामीण अस्पतालों में नहीं किए जाते, जिसके लिए मरीजों को दूर शहरों में भागना पड़ता है।

हेल्थ सिस्टम में भारतीय चिकित्सकों, शोधकर्ताओं व इससे जुड़ी वैज्ञानिक नामचीन हस्तियों ने अभूतपुर्व उपलब्धियां प्राप्त की हैं। आजादी के बाद तो जैसे क्रांति ही आई। दो दशक पहले तक इस क्रांति ने सीमित हारी-बीमारियों पर चौतरफा नियंत्रण रखा। पोलियो से लेकर, खसरा, रैबीज, दिमागी बुखार तक हर तरह के मौसमी वायरसों पर काबू रखा। लेकिन मौजूदा समय में जितनी चुनौतियां स्वास्थ्य तंत्र के समझ मुंह खोले खड़ी हैं, उतनी पहले कभी नहीं रहीं। नित पनपती नई-नई किस्म की बीमारियां और जानलेवा वायरस ने ना सिर्फ हिंदुस्तान में, बल्कि समूचे संसार को हिलाया हुआ है। कोरोना महामारी का डरावना सच हमेशा हमेशा परेशान करता रहेगा। ये ऐसा दौर था, जहां स्वास्थ्य सिस्टम ने भी घुटने टेक दिए थे। स्वास्थ्य विस्तार को शहरी क्षेत्रों की तरह ग्रामीण अंचलों में भी फैलाना होगा। वहां, चिकित्सा, दवाओं, अस्पतालों, नर्स, स्टाफ आदि का आज भी अभाव है।

 
आदिवासी व नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के दूरदराज गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है। वहां मोबाइल की रोशनी में इलाज करते हैं डॉक्टर। स्वास्थ्य पर केंद्र के आंकड़ों पर गौर करें तो हिंदुस्तान में करीब ढाई लाख सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं जिनमें 750 जिला अस्पताल और 550 मेहिडकल कॉलेजों का नेटवर्क है। बावजूद इसके भारी कमी महसूस होती है। आजादी का अमृतकाल चल रहा है, जिसमें इस नेटवर्क को और मजबूत करने की दरकार हैं। रूटीन व रेफरल कंसल्टेशन के लिए डिजिटल टेक्नोलाजी व टेली कंसल्टेशन के प्रयोगशालाओं को बढ़ाना होगा। आयुर्वेद को सबसे श्रेष्ठ चिकित्सा प्रणाली की संज्ञा दी है जिसकी जड़ें भी हमारे प्राचीनतम उपमहाद्वीप में ही हैं। हिंदुस्तान, नेपाल, भूटान, तिब्बत, पाकिस्तान व श्रीलंका में आयुर्वेद का अत्यधिक प्रचलन आज भी है, जहां आज भी तकरीबन एक तिहाई जनसंख्या इसका उपयोग करती है। इसी के देखा देख अन्य मुल्क भी आयुर्वेद को अपनाते हैं। आयुर्वेद न सिर्फ भारत में, बल्कि संसार की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में अग्रणी है। आज ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ जैसे दिन पर ऐसे ही संकल्पों को लेने की आवश्यकता है ।


डॉ. रमेश ठाकुर

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