डा. विनोद बब्बर
जागरण अर्थात चेतना जीवंतता की पहली शर्त है। यूं तो सभी जीवों में चेतना होती है लेकिन जागृत चेतना केवल मनुष्य में ही संभव है। जागृत चेतना का अभिप्राय अपने परिवेश की हलचल के प्रति सजग रहते हुए अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के गौरव को सुरक्षित रखने का चिंतन के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो ही नहीं सकता? यह भी सत्य है कि अपने चिंतन, सजगता और कर्मठता से मानव सदियों से यह उपक्रम लगातार करता आ रहा है। यहाँ निजहित के लिए समाज और राष्ट्र को क्षति पहुंचाने वाली मानसिकता आत्मकेन्द्रित अधिनायकवाद मानी जाती है। उसे भ्रष्टाचार घोषित किया गया है। दुराचार माना गया है। …
और सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसा मानवता विरोधी है। अनैतिक है। हाँ, कुछ लोग अनैतिकता और असंवैधानिकता की चर्चा करते हुए अनैतिकता को छोटी सी भूल और असंवैधानिकता को महान अपराध घोषित कर सकते हैं जबकि अनैतिकता से बड़ा अपराध कोई हो ही नहीं सकता। गैरकानूनी को तो थोड़े से दण्ड के साथ बदला भी जा सकता है लेकिन अनैतिकता का प्रायश्चित आसान नहीं है। इसीलिए तो अनैतिक लोगों का अन्यायी और क्रूर हो जाना आम बात है। रावण और कंस के कृत्य असंवैधानिक शायद ही हों क्योंकि वे स्वयं को अपना और दूसरों का संविधान समझते थे। भाग्य विधाता मानते थे लेकिन इतिहास उन्हें अनैतिक तथा अन्यायी मानता है।
… और यह भी इतिहास के स्वर्णिम अध्यायों में दर्ज है कि इन आततायियों से जनसाधारण को बचाने के लिए भगवान ने स्वयं अवतार लिया। ‘यदा यदा हि धर्मस्य…’ का उद्बोध करने वाले योगेश्वर श्रीकृष्ण की समस्त लीलाएं अन्याय और अत्याचार का नाश करने के लिए ही हुई।
जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण के प्रकटोत्सव का पावन दिवस है तो जागरण का पर्व भी। श्रीकृष्ण को दुनिया का प्रथम सत्याग्रही, प्रथम समाजवादी, प्रथम अवज्ञा आन्दोलनकर्ता माना जा सकता है। ब्रज के समस्त ग्वालों को अपना दूध, दही, मक्खन आततायी कंस को भेजने की विवशता थी लेकिन मेहनतकश भूखा रहे और अन्यायी माखन खाये, यह अवधारणा बाल कृष्ण को कदापि स्वीकार नहीं थी। दुनिया उसे लाख माखन चोर, मटकी फोड़ कहें लेकिन उनका दर्शन स्पष्ट था- मेहनत करने वाले का संसाधनों पर पहला हक है। यह द्वापर युग की विशेषता थी कि उन्हें वोट बैंक की चिंता नहीं थी वरना वे भी आज के राजनेताओं की तरह संसाधनों पर मेहनतकश की बजाय एक जमात का पहला हक बताते। यह उनका सत्याग्रह था अथवा अवज्ञा आंदोलन, इसका फैसला आप स्वयं करें कि उन्होंने अपने ग्वाल-बाल सखाओं सहित उस क्षेत्र से बाहर जा रहे दही-माखन की मटकी फोड़कर कंस के अन्याय, भ्रष्टाचार का विरोध किया था।
इस दृष्टि में श्रीकृष्ण प्रथम धरती पुत्र भी कहे जा सकते हैं। उन्होंने अपनी लीलाओं से ‘भागो मत- मुकाबला करो और स्वयं के भाग्य विधाता बनो’ का संदेश दिया जो आज भी उतना ही प्रासंगिक एवं सार्थक है। लोकतंत्र को बेशक कुछ लोग आधुनिक शासन प्रणाली घोषित करते हों लेकिन ‘स्वयं के भाग्य विधाता बनने’ की श्रीकृष्ण की इस अवधारणा को लोकतंत्र के अतिरिक्त और कहा भी जाए तो क्या?
श्रीकृष्ण को सबसे पहले उन्हें जानना होगा। वे भारतीय संस्कृति की जीवंतता के प्रियतम प्रतीक हैं जिसमें आनंद है, सरसता है, उमंग व उल्लास है. जीवन के प्रत्येक क्षण में नवीनता है। जहा दुर्भावनाओं और निराशाओं के लिए स्थान नहीं है। इस धरा पर पर कृष्ण का अवतरण मनोहरम् घटना हैं क्योंकि वे पूर्णता के प्रतीक हैं। एक ओर जहां उन्होंने मानव जन्म की सीमाओं को स्वयं जीकर दिखाया है, वहीं गीता के शाश्वत संदेश को सबके समक्ष प्रस्तुत किया है। कर्म की महत्ता बताने वाले योगीराज कृष्ण के जन्म से जुड़ी हुई रोमांचक घटनाएं, उनका बाल्यकाल, उनका यौवन, उनका स्वधाम गमन सभी कुछ मन व आत्मा को आनंदित तो करता ही है, साथ ही आश्चर्य में डालकर विस्मित भी कर देता है। योग योगेश्वर श्रीकृष्ण निष्काम कर्म के प्रणेता हैं . जिन रासलीलाओं को वर्तमान दौर में सतही प्रेम के नजरिए से देखा जाता है वो वास्तव मे अध्यात्म का अनंत आकाश है , निष्काम कर्म की विस्तृत व्याख्या है , आत्मा की अनंत यात्रा है।
श्रीकृष्ण अन्याय और अपमान को एक सीमा तक ही सहन करते हैं. उसके बाद अपनी अंगुली पर सुदर्शन चक्र धारण कर दुष्टों का विनाश किया। आज की व्यवस्था में व्याप्त राक्षशी प्रवृतियों का सफाया करने की शक्ति हम सभी में भी है बशर्ते हम गलत के विरुद्ध अपनी आवाज उठाने से न चूको । आज तो सोशल मीडिया का युग है. यदि कुछ देश विरुद्ध, धर्म विरुद्ध, दिखाई देता है तो अपनी आवाज बुलंद करो। अपने स्मार्टफोन से ईवीएम तक हमारी उंगली को सुदर्शन चक्र जैसी चेतना और मारक क्षमता धारण करनी चाहिए। अन्यायी, अत्याचारी, भ्रष्ट चाहे किसी भी दल का हो उसका जड़ मूल छेदन करने की कृष्ण चेतना हमारे हृदयों में भी स्थायी रूप से प्रतिष्ठित रहनी चाहिए। यह काम किसी दूसरे पर नहीं छोड़ा जा सकता लेकिन जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने बाल गोपाल को अपने साथ जोड़ा, हमें भी दूसरों को अपने साथ जोड़ने की पात्रता विकसित करनी चाहिए। यह श्रीकृष्ण की दूरदर्शिता और कूटनीति थी कि उन्होंने इन्द्र के अहंकार को तोड़ने के लिए अपनी अंगुली पर गोवर्धन उठा लिया था लेकिन आम जनता में विश्वास उत्पन्न करने के लिए सभी से अपनी-अपनी लाठी लगाने को कहा था।
श्रीकृष्ण द्वारा कालिया दलन पवित्र संसाधनों के शुद्धिकरण का अभियान था। नदी पर काबिज कालिया से यमुना को मुक्त करवाने निहित संदेश को समझना जरूरी है। आज भी यमुना, गंगा, सहित सभी पवित्र नदियों पर फिर से काबिज कालिया (प्रदूषण) से मुक्ति की युक्ति लगाये बिना हम कृष्ण के उत्तराधिकारी अथवा उनके भक्त होने का दावा नहीं कर सकते। श्रीमद्भागवत गीता के 12वें अध्याय में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भक्त की विशेषता दर्शाते हुए स्पष्ट कहा है- उसे निरपेक्ष शुद्ध और दक्ष होना चाहिए। मैत्री और करूण से युक्त होना चाहिए अर्थात, किसी अंधभक्त, पागल, नासमझ को वे अपना भक्त स्वीकार नहीं करते।
श्रीकृष्ण जहाँ अत्यन्त सरल हैं, सत्याग्रही हैं वही दुष्टों के प्रति अत्यन्त कठोर भी हैं। वे जानते हैं कि आततायी शक्तियों के असीमित बल को तोड़ने के लिए ‘नरों वा कुंजरो वा’ भी आवश्यक है। आलोचक इसे सच-झूठ के द्वंद्व में उलझाते रहें लेकिन श्रीकृष्ण तिनके को चीरकर दुर्योधन पर प्रहार का उपाय बताने से भी पीछे नहीं हटते क्योंकि सभी के लिए सुख और शांति उनका ध्येय है।
उन्होंने कभी सत्ता का लोभ नहीं किया। कंस की वध किया तो राजपाट अपने पिता या भाई को नहीं बल्कि कंस के परिजनों को सौंपा। ऐसे अनेक अवसर आये लेकिन कृष्ण कभी छोटे नहीं हुए। रणछोड़ कहलाना स्वीकार लेकिन अपने प्रिय बृजवासियों को जरासंध के बार-बार होने वाले आक्रमणों से बचाने के लिए ब्रज छोड़ द्वारका चले गये। स्वयं शिशुपाल की सौ गालियां सुनकर भी खामोश बने रहे लेकिन शिशुपाल ने रुक्मिणी को अपनी वाग्दत्ता पत्नी कहा तो श्रीकृष्ण ने तत्काल उसका शीश काट डाला। यह नारी सम्मान के प्रति उनकी भावना थी जो द्रोपदी के चीरहरण से हजारो रानियों को रिहा करवाने तक बार-बार सामने आता है।
श्रीकृष्ण जहां ऋषि मुनियों तक को अपने रहस्य को जानने में छकाते, तड़पाते हैं , वहीं वें प्रेम में बंध बृजवासियो व गोकुल के अपढ़, भोले-भाले गोपी, ग्वालों को बिना किसी तप जप के ही अपने दर्शन देकर उन्हे अपने धाम बुला लेते हैं। रसखान तो स्पष्ट कहते हैं-
शेष गणेश महेश दिनेश सुरेशहू जाही निरंतर गावै।
जाही अनादि अनंत अखंड अखेद अभेद सूबेद बतावै।
नारद से सुक व्यास रटें पछियारे ताऊ पुनि पार न पावै।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पे नाच नचावै।।
द्वापर में मथुरा के नंदनंदन, कुरुक्षेत्र में महाभारत के कूटनीतिज्ञ हृषिकेश, गोकुल में यशोदा के कान्हा ,कंस की जेल में देवकी के दिव्य पुत्र कृष्ण, गोपियों के माखनचोर और भक्तो के सुदर्शन चक्रधारी कृष्ण या फिर राधा के दीवाने कान्हा हैं श्री कृष्ण। उसके नाम ऐसा आकर्षण कि रुप में अपनी तरफ खींचता है, वह नटखट भी है और मर्मज्ञ भी। भोले हैं तो चतुर भी इतना कि पार पाना असंभव लगता है।
कृष्ण के कितने और कैसे -कैसे रूप हैं यह जानना साधारण मानव तो क्या बड़े- बड़े ऋषि मुनियों के बस की बात भी नहीं रही, वे कभी कर्मयोगी कभी छलिया, कभी भगवान तो कभी एक साधारण से मानव नजर आते हैं। सच कहें तो चतुरों को श्रीकृष्ण कभी समझ में नहीं आते। उन्हें समझने के लिये सारे पोथे अपर्याप्त रह जाते हैं परंतु निष्कपट हृदय के प्रेम के ढाई अक्षर उन्हें सहजता से अपना बना लेते हैं। अनेक नाम से पुकारे जाने वाले ह्रदयेश्वर की तेजस्विता का एक अंश प्रत्येक सनातन प्रेमी भारतीय के हृदय में चेतना का संचार करती रहे !
डा. विनोद बब्बर