प्रभुदयाल श्रीवास्तव
था गिल्ली डंडे का खेल|
पिलु बनाकर छोटी सी
उसमें गिल्ली को रखते
चारों ओर खिलाड़ी बच्चे
हँसते और फुदकते
हाथ उठाकर डंडे से फिर
गिल्ली को उचकाते
बड़ी जोर से ताकत भर कर
टुल्ला एक जमाते
दूर उचकती जाती गिल्ली
उसको लेते बच्चे झेल|
कितना लोक लुभावन होता
था गिल्ली डंडे का खेल|
कभी कभी उड़ती गिल्ली
चाचाजी को लग जाती
कभी थोबड़े पर चाची के
कसकर धौल जमाती
कभी पांच फुट की निरमलिया
मटका ले आ जाती
मटका तो गिरता ही
अपना सिर भी वह फुड़वाती
सबकी गाली घूंसे मुक्के
हम हसकर जाते थे
कितना लोक लुभावन होता
था गिल्ली डंडेका खेल|
गिल्ली डंडे उत्सव होते
और गोली कंचे त्यौहार
कमल गटों की होती पंगत
या झरबेरी की ज्योनार
किसी बावड़ी की सीढ़ी से
पानी चुल्लू में पीते
हँसते गाते धूम मचाते
कैसे मस्ती में जीते
लगा कान में घूमा करते
दादाजी की इत्र फुलेल|
कितना लोक लुभावन होता
था गिल्ली डंडे का खेल|
अब तो गिल्ली दूर हो गई
जैसे हो गई दिल्ली दूर
राजा लगे मारने डंडे
जनपद पिटने को मजबूर
लोपित हंसी ठिठोली मस्ती
हुई लुप्त आनन मुस्कान
गिल्ली रूपी जनता के अब
डंडे लेते रहते प्राण
कैसे इन पर कसें शिकंजा
कैसे इन पर कसें नकेल|
कितना लोक लुभावन होता
था गिल्ली डंडे का खेल|
“कितना लोक लुभावन होता; था गिल्ली डंडे का खेल|” बहुत सुंदर| धन्यवाद, श्रीवास्तव जी|
Thanks
बचपन की स्मृतियों की सितार को आज आप ने झन झना कर रख दिया.
विषय चयन भी कोई आप से सीखे.
बहुत बहुत धन्यवाद.