राजनीति

ये स्टालिनवादी वैचारिक बहुलता के विरोधी होते हैं / राकेश सिन्‍हा

राकेश सिन्हा

(जनसत्ता ने अपने चार रविवारीय अंकों में वैचारिक एवं बौद्धिक संवाद पर बहस चलाया. कई न्यूनताओं के बावजूद यह एक सराहनीय एवं अभिनंदनीय सम्पादकीय परियोजन है. इसने संवाद के प्रति सदिच्छा एवं काल्पनिक एवं कालबाह्य प्रवृत्तियों को सार्वजनिक बहस में लाने का काम किया है. बहस का कारण मंगलेश डबराल का भारत नीति प्रतिष्ठान आना निमित्त मात्र है. बहस थानवी जी के हस्तक्षेप आलेख “आवाजाही के हक़ में” (जनसत्ता 29 अप्रैल) से शुरू हुआ. लेकिन तीन वेब पत्रिकाओं (मोहल्ला, जनपथ और जानकीपुल) और फेसबुक पर इस लेख के छपने के दो हफ्ते पहले से चर्चा हो रही थी जिससे मेरे जैसे अनेक लोग अनजान थे. थानवी जी ने वेब दुनिया की बहस को व्यर्थ नहीं जाने दिया और उसकी पृष्ठभूमि में हस्तक्षेप किया. इसी प्रसंग में उठे सवालों पर मैं अपनी बात रख रहा हूँ : लेखक)

बात भारत नीति प्रतिष्ठान की एक गोष्ठी (14 अप्रैल) से शुरू होती है. कवि-पत्रकार मंगलेश डबराल इसकी अध्यक्षता करने आये थे. उनकी स्वीकृति में कही भी अगर मगर नहीं था. गोष्ठी का विषय “समांतर सिनेमा का सामाजिक प्रभाव” था. सुश्री पूजा खिल्लन ने अपना परचा पढ़ा. डबराल जी ने अपना विषय बखूबी से रखा. और जाते-जाते उन्होंने प्रतिष्ठान एवं ‘द पब्लिक एजेंडा’ (जिसके वे संपादक हैं) के बीच बौद्धिक सम्बन्ध का प्रस्ताव देते गए. लगभग तीन घंटे वे प्रतिष्ठान में रहे और इस दौरान वे इसके कार्यों को समझाने बूझने का प्रयास करते रहे. जब उन्होंने प्रतिष्ठान में अपनी उपस्थिति को ‘चूक’ (देखे जनसता “वह एक चूक थी’ 13 मई 2012) बताया तो मैं अचम्भित रह गया. मुझको अचरज इस बात की नहीं हुई कि वे भी अपराध-बोध के शिकार हो गए बल्कि यह जानकर हुई कि वामपंथ से जुड़ी बौद्धिकधारा अभी भी साठ व सत्तर के दशक में ही ठहरी हुई है. इस ठहराव को दूर करने के सभी प्रयासों पर रेड ब्रिगेड का हल्ला-बोल शुरू हो जाता है.

1969 की एक घटना इस सम्बन्ध में अत्यंत ही प्रासंगिक है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के एक बड़े नेता एसएस मिराजकर ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमेन एसएस डांगे को उनके सत्तरवें जन्मदिन पर शुभकामना सन्देश भेजा जिसमें उन्हें ‘क्रान्तिकारी योगदान’ के लिए दीर्घायु होने की कामना की. बस वामपंथी राजनीति में तलवारबाजी शुरू हो गयी. पार्टी ने मिराजकर को इस सामाजिक शिष्टाचार के लिए ‘कारण बताओ नोटिस’ भेज दिया. मिराजकर ने जवाब दिया वह डबरालजी के स्पष्टीकरण से बहुत कुछ मिलता जुलता है. मिराजकर ने लिखा “मैंने इस पर गंभीरता से सोचा और अब भी नहीं समझ पाया कि मुझे क्या स्पषटीकरण देनी चाहिए. बात यह है कि मैंने शुभकामना सन्देश बिना ज्यादा सोचे जल्दीबाजी में भेज दिया. मुझे सन्देश को लिखते समय अधिक सावधान रहना चाहिए था. नि:संदेह मैंने जरुरत से ज्यादा अपना कदम आगे बढ़ा दिया. मैं पार्टी से अनुरोध करता हूँ कि इस राजनीतिक चूक के लिए जो भी उचित हो वह करवाई करे.” पार्टी के महासचिव पी सुंदरय्या आग बबूला हो गए और उन्होंने कुछ इस अंदाज में उन्हें पुनः पत्र भेजा- “आपकी सफाई आपकी चूक से ज्यादा खतरनाक है. आपने राजनीतिक चूक बताकर विषय की गंभीरता को समझने का प्रयास नहीं किया है.” एक साल बाद उन्हें पार्टी से रास्ता दिखा दिया गया. तब और अब में दुनिया में अनेक बदलाव आये हैं. बंद दिमाग और बंद समाज नापसंद किया जा रहा है. तब स्टालिन और ट्रोट्स्की के संघर्ष को वामपंथ आयना मानता था. क्या वही स्थिति भारत के वामपंथ की आज भी है?

मैं हाल में प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता भोगेन्द्र झा का तीन मूर्ति पुस्तकालय में ‘ओरल हिस्ट्री’ के अंतर्गत लिए गए साक्षात्कार को पढ़ रहा था. उसमे झा ने उस वातावरण का जीवंत चित्रण एक प्रसंग सुनाकर किया है. उन्होंने पार्टी में स्टालिन के एक निर्णय (तेहरान से लाल सेना हटाने) का विरोध किया तब नेतृत्व ने उनसे कहा “क्या बोल रहे हो? कम्युनिस्ट पार्टी या स्टालिन के द्वारा गलती?” झा ने प्रतिप्रश्न किया कि “क्या यह संभव नहीं कि स्टालिन भी गलती कर सकता है?” इस पर नेतृत्व ने जो जवाब दिया वह अत्यंत ही मजेदार है” क्या यह संभव नहीं है कि तुम लड़के नहीं लड़की हो?” साठ व सत्तर के दशक क़ी वैचारिक कट्टरता एवं संकीर्णता तीन बातों के द्वारा बौद्धिकता को नियंत्रित करने का काम करता रहा : वैचारिक प्रेरणा जो साहित्यकारों और समाजशास्त्रियों को वैचारिक तरीके से बौद्धिक कार्य करने के लिए उद्वेलित करती रही. यह कुछ हद तक संकीर्णता से मुक्त था. अन्य दो बाते ‘दबाव’ व ‘डर’ था, जो वैचारिक एवं स्वतंत्रता का आत्मसमर्पण करने के लिए वाध्य करती रहीं. आज प्रेरणा लुप्त हो गया और डर एवं दबाव का प्रयोग हो रहा है. साहित्य क़ी व्यापक आधारभूमि कोई विचारधारा तो हो सकती है परन्तु उसे लक्ष्मण रेखा और Mirajakar phenomena के तहत मापना उसकी स्वायत्तता और उद्भव को रोकने जैसा होगा. यही कारण है कि ‘प्रगतिशील’ लेखक संघ पार्टी लेखक संघ में तब्दील होकर रह गई है. ‘रेड ब्रिगेड’ स्वतंत्रता, व्यक्तिकता और सामाजिकता सबको बाँधकर रखना चाहता है. यही कारण है कि चंचल चौहान स्वयं प्रगतिशील लेखक संघ कि विरासत और आज की स्थिति के बीच की खाई महसूस कर सकते हैं. थानवी जी के लेख में उन्हें जिस अंतर्राष्ट्रीय पूँजी का लेखक संघ को बदनाम करने का षड्यंत्र नजर आया वह सत्तर के दशक कि मानसिकता का द्योतक है. यदि हम इस अन्तराष्ट्रीय पूँजी के खतरों और बाजारवादी ताकतों के षड्यन्त्र को समझ जाये तो हमें संवाद की आवश्यकता महसूस होगी. परम्परागत शत्रुता अब लेखागार का विषय बन गया है. असली खतरा तो उसी बाजार की ताकतों से है. लेकिन वामपंथ को तो आरएसएस से लड़ना है यदि कल संघ मार्क्स को पढने लगे तो ये मार्क्स को भी प्रतिक्रियावादी घोषित कर देंगे.

आप जान लीजिये, जब समाजशास्त्री और लेखकों का संघ पार्टी के पूर्णकालिकों के हाथो में चला जाता है तब उसमे नारेबाजों का ही महत्व बढ़ता है. फिर निराला-निर्मल-नामवर घर के भीतर के शत्रु समझ लिए जाते है. देखिये, हाल में नामवर सिंह के प्रति किस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया गया है! रामविलास शर्मा को अंत में ‘संघी’ घोषित कर दिया गया. पूछिए इन नारेबाजों से वामपंथ को उन्होंने किस अंतर्राष्ट्रीय ताकत से मिलकर क्षति पहुचाने का काम किया था?

मुझे आश्चर्य डबरालजी के माफीनामे से इसीलिए हुआ कि वे मिराजकर कि तरह पार्टी कार्यकर्त्ता नहीं हैं. मैंने उन्हें बुलाया था. वे स्वयं नहीं आये थे. उन्होंने बेहिचक अपनी बात रखी थी. मैं वामपंथ के बीच के झगड़े में पड़ना मुनासिब नहीं समझता हूँ. पर बौद्धिक जगत से जुड़ा विषय है अतः इसे नाकारा भी नहीं जा सकता है. वास्तव में उदय प्रकाशजी के साथ जो हुआ वह वैचारिक अनैतिकता का मिसाल है. वे अपने भाई की मृत्यु के बाद उनके लिए आयोजित एक सामाजिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने गए थे और वहां योगी आदित्यनाथ के साथ मंच साझा करने के कारण वे ‘काफ़िर’ घोषित कर दिए गए. इसमें डबराल जी भी शामिल थे. यही असली चूक थी जिसे सही साबित करने के लिए उन्होंने प्रतिष्ठान में अपनी सहर्ष व सहज उपस्थिति को चूक बता दिया.

जनसत्ता के विमर्श में जिस प्रकार से व्यक्तिगत तौर पर भाषा एवं भावनाओं का प्रयोग किया गया उससे विमर्श के वास्तविक लक्ष्य को पीछे छोड़ देने का काम किया है. एक दूसरे के विचारो को समझने या आदान-प्रदान करने की जगह कीचड़ उछालने और दृष्टिकोणों में बहस खो गया. यह वामपंथ जगत में व्याप्त परस्पर अविश्वास, असहिष्णुता के साथ घोर व्यक्तिवाद का प्रमाण है. संघ विरोध के नाम पर कब तक क्षद्म एकता का प्रदर्शन होता रहेगा?

आरएसएस के नाम पर वैचारिक बहस को कितने दिनों तक आप रोक सकते हैं? संघ एक ठोस वैचारिक आधार पर खड़ा है. देश में तमाम जनतांत्रिक परिवर्तनों का सारथी रहा है. सामाजिक-आर्थिक विषयों पर इसका progressive unfoldment जिन्हें नजर नहीं आता है उनपर सिर्फ हैरानी ही व्यक्त किया जा सकता है. अंतर्राष्ट्रीय पूँजी को यदि किसी ताकत से आशंका और भय दोनों है तो वह आरएसएस ही है. इसलिए अमेरिका के निशाने पर वामपंथ से कहीं अधिक संघ है.

मैं दिसम्बर में कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर गया और एक वरिष्ठ नेता से खुलकर इस प्रश्न पर बातचीत की. उनसे मैंने एक सवाल किया: ‘भाजपा में मुस्लिम इक्के-दुक्के हैं यह बात तो समझ में आती है पर कम्युनिस्ट पार्टियाँ जिसका इतिहास मुस्लिम लीग के साथ आजादी के पहले सहयोग का रहा है और जो आजादी के बाद उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हितों की बात सबसे ज्यादा करती आई है. क्यों नहीं वे 1-2% भी मुसलमानों को आकर्षित कर पाने में सक्षम हो पाई हैं?’ मुसलमान उनसे क्यों नहीं जुड़ते हैं? अतः वास्तविक प्रश्न उनके बीच सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण को समझने और समझाने का है जो वर्तमान सामाजिक दर्शन के होते संभव नहीं लगता है. इसी दर्शन ने न सिर्फ तजामुल हुसैन, एमएच बेग, एएए फैजी एवं आरिफ मोहम्मद खान जैसे प्रगतिशील चिंतकों को हाशिये पर रखा है.

विचारधाराओं के बीच विरोध होना स्वाभाविक है पर उनके बीच परस्पर सहयोग और संवाद रोकना बौद्धिक कायरता और मानसिक विकलांगता मानी जाएगी. जेपी ने इसे अच्छी तरह समझा था. इसीलिये वे संवाद के जीवंत प्रतीक माने गये हैं. तीस के दशक में कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी के भीतर कम्यूनिस्टों से मेलजोल करते रहे और अति होने के बाद उनसे नाता तोड़ा था. वे हर तरफ से गाली सुनते रहे पर संवाद की परम्परा को जारी रखा. 1953 की एक घटना है. नेहरु के आग्रह और आमंत्रण पर वे उनसे मिलने गए फिर तो तूफ़ान खड़ा हो गया. लोहिया जी और उनके शिष्य मधु लिमये ने सार्वजनिक रूप से उनकी कटु आलोचना की. जेपी ने 9 मार्च 1953 को जारी बयान में कहा कि यह दुखद साबित हुआ तो नेहरु ने 18 मार्च 1953 को बयान जारी कर जे पी के बारे में फैलाई जा रही गलतफहमियों पर टिपण्णी की,” किसी पर दोषारोपण की मै कड़ी निंदा करता हूँ.” जेपी ने प्रजा सोसलिस्ट पार्टी के बैतूल अधिवेशन में कहा कि “अगर पार्टी का मैं सदस्य नहीं होता तो पूरे देश भर घूमता, कांग्रेस एवं अन्य पार्टियों के नेताओं से मिलता, उन्हें अपने विचार का बनाने की कोशिश करता.” 1973 से 1978 तक वे संघ के करीब बने रहे. यह उनका अवसरवाद था? या लोकतंत्र और परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक? वे मधु लिमये की तरह नारेबाज नहीं थे अतः वैचारिक और राजनीतिक क्षेत्रो में आजीवन योगदान करते रहे.

संवाद उद्देश्यपूर्ण होता है. पहल करने वालों अवश्य आलोचना का शिकार होना पड़ता है. थानवी जी ने मेरे सम्बन्ध में ब्लॉग से अनेक टिप्पणियाँ उद्धृत किया जिसमें से एक में मुझे ‘विषैला विचारक’ कहा गया. मैं विचलित नहीं हुआ. ऐसे तो मैं अपने पिताजी जो वामपंथी रहे और कोमरेड इन्द्रदीप सिन्हा और योगेन्द्र शर्मा के साथी थे, से लगातार वैचारिक बहस करता रहता था. इसे ही वैचारिक लोकतंत्र कहते हैं. मैंने कभी नहीं सोचा था कि वैचारिक कट्टरता विश्वविद्यालयों में इतनी अधिक है कि लोग एक दूसरे को शत्रु भाव से देखते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान की M A के Exam में मैं प्रथम आया. मेरे शैक्षणिक जीवन में तीसरी बार गोल्ड मेडल मिला. मैंने एमए में “POLITICAL IDEAS OF DR K B HEDGEWAR” पर DISSERTATION लिखा था. तब कुछ Faculty members ने मुझे चेताया था कि यह मेरे कैरियर के लिए अच्छा नहीं होगा. पर सब कुछ लाभ-हानि और मान-सम्मान को सामने रखकर ही नहीं किया जाता है. मैं अपनी राह पर चला. एमफिल के साक्षत्कार में एक मार्क्सवादी प्रोफेसर ने मुझसे पूछा कि “What is difference between you and Nathuram Godse?” मैंने बड़ी अस्वाभाविक तरीके से अपनी उत्तेजना को रोक कर आकादमिक मर्यादा को बनाये रखा. पता नहीं मेरा जवाब कितना सटीक था “Every supporter of Anandpur sahib Resolution is not Beant Singh & Satwant Singh, so every adherent of Hindu Rashtra is not Nathuram Godse.” एक वरिष्ठ (महिला) प्राध्यापक ने उठकर मुझे गले लगा लिया मैंने इस प्रसंग को विज्ञान भवन में जब श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने मेरी डॉ हेडगेवार की जीवनी का विमोचन किया था तब अपने संक्षिप्त लेखकीय उद्बोधन में सुनाया था. लेकिन इन चीजो ने मुझे कम से कम sectarian नहीं बनने दिया. इसीलिए समाजवादी एवं मार्क्सवादियो से मैं सतत् विमर्श करता रहता हूँ. बौद्धिक एवं व्यक्तिगत जीवन में ईमानदारी, प्रतिबद्धता और मूल्यों के प्रति निष्ठा यदि नहीं है तो चाहे आप जिस भी विचारधारा के हों और जिस भी अख़बार में स्तंभकार हों या पुस्तकों को छापने का कारखान चलाते हों या जितने भी मंचों पर मुख्य अतिथि बनते हों आप इतिहास के कूड़ेदान में फेक दिए जाएँगे. सच्चरित्रता और जन प्रतिबद्धता बौद्धिकता को स्थायी भाव प्रदान करता है. वामपंथ हो या दक्षिणपंथ, दोनों को इस आयने में अपनी-अपनी स्थिति को मूल्यांकन करना चाहिए.

भारत नीति प्रतिष्ठान ने आरम्भ से (सितम्बर 2008) स्वतंत्र विमर्श को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध रहा है. सभी प्रकार के विचारकों को आमंत्रित किया जाता रहा है. इनमे वामपंथ से जुड़े लोग भी हैं. आना नहीं आना उनके हाथ में है. छल या झूठ का सहारा नहीं लिया गया. सत्य बताकर उन्हें बुलया गया. छल और क्षद्म से बौद्धिक लड़ाई थोड़ी दिनों तक लड़ी जा सकती है परन्तु उसकी आयु सीमीत होती है. प्रो अमिताभ कूंडू जेएनयू के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं, जब उन्हें मैंने प्रतिष्ठान के हस्तक्षेप पत्र में लिखने और श्री जगमोहन जी के साथ उसे IIC में लोकार्पण के लिए आमंत्रित किया तो मुझे आशंका थी कि उन्हें संघ के नाम पर रोकने का प्रयास होगा. इसलिए मैंने उनके चैम्बर में जाकर बता दिया कि मै डॉ हेडगेवार का जीवनी लेखक हूँ तथा सच्चर कमिटी के रिपोर्ट पर मैंने अपने monograph “रोटी, रोजगार और राज्य का साम्प्रदायिकरण” में उसकी वैधानिकता और निष्कर्षो पर सवाल खड़ा किया है. हमारे बीच परस्पर विश्वाश स्थापित हुआ.

वे लोकार्पण करने आये और एक परचा भी लिखा. मेरा अनुमान ठीक निकला. नारेबाजों ने उन्हें रोकने की खूब कोशिश की परंतु असफल रहे. रामशरण जोशी हों या कमर आगा, अभय कुमार दुबे हों या डॉ. रामजी सिंह सब समझ-बूझकर आरंभिक भड़काऊ प्रतिरोधों के बावजूद कार्यक्रमों में शिरकत करते रहे. आशुतोष (आई बी एन 7) जब हाल में आये तो उन्होंने एक tweet किया क़ि “मेरा होसबलेजी (संघ के सहसरकार्यवाह) के साथ मंच साझा करना अनेक मित्रों को अच्छा नहीं लगा होगा.” मुझे लगता है क़ि सभी प्रतिरोधों और विपरीत वातावरण के बावजूद संवाद की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. अभी और भी पत्थर फेके जाएंगे पर प्रक्रिया रूकने वाली नहीं है. उनलोगों को अपनी गलतफहमियां दूर कर लेनी चाहिए क़ि वामपंथ के लोगों के आने से प्रतिष्ठान या संघ को वैधानिकता मिलती है. हेडगेवार-गोलवलकर अधिष्ठान मजबूत धरातल पर है और वैधानिकता का मुंहताज नहीं है. यह संवाद तो नए संदर्भों क़ी आवश्यकता है और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि परम्परागत खांचों में बंद होकर नव साम्राज्यवादियों एवं विदेशी एवं देशी पूँजी के साठ-गांठ का मुकाबला नहीं कर पाएंगे. वे हमारी नादानी पर शायद मुस्कुरा रहे होंगे.

बौद्धिक जगत में तीन बातें होती हैं -perception, interpretation & facts. प्रायः धारणा को जो लोग प्रथम स्थान देकर विमर्श करते हैं वे असफल होते हैं. मेरा मानना है कि तथ्य को प्राथमिकता देना चाहिए फिर व्याख्या को और धारणा का नंबर अंत में आता है. विमर्श में जीत-हार किसी विचारधारा की नहीं होती है, सिर्फ समाजपरक विचार आगे बढ़ता है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने काशी के तीन सौ मूर्तिपूजक ब्राह्मणों के साथ अकेले संवाद किया था. इसने समाज की चेतना को मजबूत बनाने का काम किया था. इसलिए वैचारिक धरातल पर आवाजाही आज और भी जरूरी है. वैचारिक बह़लता (ideological pluralism) और एक दूसरे के प्रति सदिच्‍छा में आस्था होना इसके लिए आवश्यक है. वामपंथ में स्टालिनवाद को आदर्श मानने वाले स्वतंत्र और सदिच्‍छायुक्त विमर्श को वामपंथ की पराजय मानते हैं. इसी विडंबना ने डबराल विवाद को जन्म दिया. संवाद का पहला चरण इसी चक्रव्यूह को तोड़ना था.