तस्मै श्री गुरुवे नमः: 

 गुरु की महिमा अपरंपार

डॉ० घनश्याम बादल

इस बार दस जुलाई को आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा है जिसे जिसे सनातन संस्कृति के अनुसार गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा महाभारत रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास की जयंती भी है । वें संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों एवं अट्ठारह पुराणों की रचना की थी इस कारण उनका नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु भी कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। 

मान्यता है कि ईश्वर प्राप्ति का मार्ग गुरु   ही दिखाते हैं । सच्चे गुरु  शिष्य को गलत मार्ग से हटाकर सही दिशा देते हैं। ऐसे श्रद्धेय गुरुओं के सम्मान में ही आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।

गुरु पूर्णिमा परंपरा :

गुरू पूर्णिमा उन सभी गुरूजनों को समर्पित पर्व है जो कर्मयोग सिखाकर व्यक्तित्व विकास शिष्यों को प्रबुद्ध करते हैं, बिना लालच के  ज्ञान प्रदान करने वाले व्यक्ति को ही गुरु माना जाता है। मुद्रा या तनक लेकर सिखाने वाले को कोच या शिक्षक मात्र कह सकते हैं लेकिन गुरु कोच एवं शिक्षक में आधारभूत अंतर है । 

गुरु व शिक्षक में अंतर : 

जहां कोच किसी खास विधा में प्रशिक्षित करता है और शिक्षक पुस्तकीय ज्ञान  प्रदान करता है वहीं गुरु जीने का गुर सिखाता है । जीवन में संस्कार, संस्कृति, उच्च मूल्य एवं आदर्श का प्रस्थापन करता है । वह गुरु ही है जो मनुष्य को मानव बना कर उसे देवत्व की तरफ ले जाता है तथा  मोक्ष प्राप्त करने का रास्ता दिखाता है। संक्षिप्त रूप में कहे तो गुरु वह है जो ज्ञान के साथ-साथ गुर  भी प्रदान करता है। 

 गुरु पूर्णिमा का पर्व  भारत, नेपाल और भूटान में हिन्दू, जैन और बोद्ध धर्म के अनुयायी उत्सव के रूप में और गुरु के  अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए मनाया जाता है। इस उत्सव को महात्मा गांधी ने अपने आध्यात्मिक गुरू श्रीमद राजचन्द्र को सम्मान देने के लिए पुनर्जीवित किया था ।‌

गुरु पूर्णिमा का महत्व

 भगवान की प्राप्ति का मार्ग गुरु के बताए मार्ग से ही संभव है क्योंकि एक गुरु ही है, जो अपने शिष्य को ग़लत मार्ग पर जाने से रोकते हैं और सही मार्ग पर जाने के लिए प्रेरित करते हैं। गुरु की महिमा का जितना भी वर्णन किया जाए कम है ।

साहित्य में गुरु 

 संत कबीर ने  एक दोहे में गुरु का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा था – 

गुरु सो ज्ञान जु लीजिये,

सीस दीजये दान। 

गुरु की आज्ञा आवै

गुरु की आज्ञा जाय …

अर्थात्  व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म – मरण से पार होने के लिए साधना करता है। गुरु को पारस पत्थर से भी श्रेष्ठ मानते हुए भी कबीर कहते हैं

गुरु पारस को अन्तरो

जानत हैं सब सन्त …

अर्थात  गुरु में और पारस पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु अज्ञानी शिष्य को भी महान बना देता है। वह गुरु ही है जो शिष्य की कुबुद्धि से अज्ञान एवं सांसारिक दुर्गुणों रूपी कीच को ज्ञानरूपी जल से दूर करके उसका भला करता है

कुमति कीच चेला भरा

गुरु ज्ञान जल होय …

गुरु अपने शिष्य के दोष निकालने के लिए वह सब कुछ करता है जो उसे करना चाहिए साम दाम दंड भेद से गुरु शिष्य को दृढ़ बनाता है तभी तो कहा गया है

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है

गढ़ि – गढ़ि काढ़ै खोट …

 गुरु के समान दाता नहीं और शिष्य के समान याचक नहीं : 

गुरु समान दाता नहीं

याचक शीष समान …

तभी तो कबीर की सलाह है कि हमें अपने गुरु की आज्ञा के अनुसार ही चलना चाहिए अगर हम ऐसा करेंगे तो फिर तीनों लोगों में भय होने का कोई कारण ही नहीं है। 

गुरु को सिर राखिये

चलिये आज्ञा माहिं,

कहैं कबीर ता दास को

तीन लोकों भय नाहिं। 

गुरु की महिमा अपरंपार है उसका वर्णन असंभव है कबीर के शब्दों में देखिए :

सब धरती कागज करूँ,

लेखनी सब बनराय,

सात समुद्र मसि करूँ

गुरु गुन लिखा न जाय…

सतगुरु के समान कोई हो ही नहीं सकता है यह दोहा भी यही कहता है

सतगुरु सम कोई नहीं

सात दीप नौ खण्ड,

तीन लोक न पाइये,

अरु इकइस ब्रह्मणड।

अर्थात -सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे।

देव भाषा संस्कृत में तो गुरु को ब्रह्मा विष्णु महेश के साथ-साथ साक्षात परब्रह्म ही मानते हुए उन्हें प्रणाम किया गया है

गुरुर्ब्रह्मा  ग्रुरुर्विष्णुः,‌ गुरुर्देवो  महेश्वर:,  

गुरुःसाक्षात्पर ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः 

अब गुरु किसे कहा जाता है इसकी भी परिभाषा संस्कृत में अद्भुत ढंग से की गई है- 

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।

तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते 

जिस का भाव है – धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करने वाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।

अधिक क्या कहा जाए समस्त शास्त्रों के अध्ययन व अनुसरण से भी क्या होना है चित्त की परम शांति गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है

  आइए, इस गुरु पूर्णिमा पर मन क्रम एवं वचन से अपने आध्यात्मिक, धार्मिक शैक्षणिक या किसी भी क्षेत्र में ज्ञान प्रदान करने वाले हर गुरु को श्रद्धा पूर्वक नमन करें ।

डॉ० घनश्याम बादल 

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