डॉ घनश्याम बादल
आज एक मई है, इस दिन हर साल एक दुनिया भर में मजदूर दिवस मनाया जाता है। अतः कहा जा सकता है कि आज का दिन श्रमिक अधिकारों और उनकी संघर्षगाथा से जुड़ा दिन है।
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत 1886 के शिकागो हेमार्केट आंदोलन से हुई । तब शिकागो में मजदूरों ने 8 घंटे कार्य दिवस की मांग को लेकर प्रदर्शन किया था। पर उद्योगपतियों के षड्यंत्र के चलते यह प्रदर्शन हिंसक हो गया और कई मजदूरों की जान गई। इस तरह मजदूर के अधिकारों के लिए किया गया पहला आंदोलन अच्छा नहीं रहा लेकिन मजदूरों ने हार नहीं मानी और 1889 में अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में एक मई को उन मजदूरों की स्मृति में मजदूर दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत हुई। जहां तक भारत की बात है तो यहां पहली बार मजदूर दिवस 1923 में चेन्नई में मना और तब से लगातार यह दिवस मनाया जा रहा है लेकिन सवाल यह है कि 100 साल से ज़्यादा हो गए मजदूर दिवस मनाते हुए लेकिन मजदूरों की हालत आज भी बहुत अच्छी नहीं कहीं जा सकती।
महंगाई के कारण मजदूरों की वास्तविक क्रयशक्ति बहुत कम है और और स्थिति यह है कि पूरे दिन कमर तोड़ मेहनत करने के बावजूद मज़दूर और उसके परिवार को न भरपेट खाना मिल पाता है और नहीं उसका जीवन स्तर संतोषजनक है। ऐसे में मजदूरों के हित के लिए बहुत से कदम है उठाने की ज़रूरत है आज।
कुछ ऐसा किए जाने की ज़रूरत है कि केवल कानून एवं किताबों में नहीं बल्कि वास्तविक धरातल पर सभी क्षेत्रों में न्यूनतम वेतन अधिनियम को लागू हो और उल्लंघन करने वालों के सख्त खिलाफ कार्रवाई हो। स्वास्थ्य बीमा, पेंशन योजनाएं को दृढ़ता पूर्वक असंगठित क्षेत्रों में भी लागू किया जाए। कौशल विकास जैसी योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन हो ताकि मजदूर अधिक वेतन वाली नौकरियाँ पा सकें। एक मजबूत लेबर इन्फोर्समेंट सिस्टम बनाया जाए जिससे मज़दूरों का शोषण न हो। यूनियनों और मजदूर संगठनों को मजबूत किया जाए ताकि वे अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा सकें।
भारत में मजदूरों की स्थिति पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 56.5 करोड़ लोग कार्यबल का हिस्सा हैं। इनमें से । 45% कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं।11.4% निर्माण क्षेत्र में। 28.9% सेवा क्षेत्र में और 13% निर्माण क्षेत्र में कार्यरत हैं। इनमें से 57.3% लोग स्वरोजगार में लगे हैं जबकि 18.3% लोग घरेलू उद्यमों में बहुत कम वेतन पर कार्यरत हैं। 21.8% लोग आकस्मिक मजदूरी करते हैं। 20.9% नियमित वेतन या वेतनभोगी कर्मचारी हैं।
केंद्र सरकार ने अक्टूबर 2024 से न्यूनतम वेतन दरों में वृद्धि की है:। अत्यधिक कुशल श्रमिकों के लिए: ₹1,035, कुशल श्रमिकों के लिए: ₹954 प्रतिदिन का वेतन तय किया गया है जबकि अर्ध-कुशल श्रमिकों के लिए: ₹868 प्रतिदिन व अकुशल श्रमिकों के ₹783 प्रतिदिन निश्चित किया गया है जो एक अच्छा कदम है। मगर दूसरी सरकारी घोषणाओं की तरह यह घोषणा भी ज़मीन पर कम एवं कागज़ों पर अधिक नजर आती है । हालांकि न्यूनतम वेतन दरें निर्धारित हैं, लेकिन वास्तविकता में अधिकांश श्रमिकों को बहुत कम वेतन मिलता है।
आज भी मजदूरी करने वाले लोग महीने में ज्यादा से ज्यादा 20- 22 दिन कार्य प्राप्त कर पाते हैं वहीं इनमें से एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो शारीरिक एवं मानसिक थकान के चलते हुए अपनी इच्छा से ही 18 दिन से ज्यादा काम नहीं करता इसलिए इनके मासिक वेतन की बात करना ही बेमानी है। असंगठित क्षेत्र का हाल तो और भी खराब है । भारत में लगभग 82% कार्यबल असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है, जहां श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा, नियमित व पूरा वेतन, पेंशन, पी एफ ,ई पी एफ और अन्य लाभ नहीं मिलते।
जहां मजदूरों को कम वेतन मिलता है वहीं विभिन्न कारणों से सदैव ऋणी रहते हैं आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 3 लाख श्रमिक ऋण बंधन की स्थिति में हैं, विशेषकर तमिलनाडु, कर्नाटक और ओडिशा में। यहां श्रमिक औसतन 47 से 52 घंटे प्रति सप्ताह कार्य करते हैं, जो वैश्विक औसत से बहुत अधिक है।
महिला श्रमिकों की स्थिति तो और भी खराब है । महिला श्रमिकों की संख्या भारत में 2017-18 में 23.3% से बढ़कर 2022-23 में 37% हो गई हालांकि महिला श्रम भागीदारी बढ़ी है, लेकिन अधिकांश महिलाएं असंगठित और कम वेतन वाले क्षेत्रों में कार्यरत हैं।
आज के हालात देखते हुए भारत को 2030 तक हर साल लगभग 78.5 लाख गैर-कृषि नौकरियों की आवश्यकता है।
आज यह आवश्यक है कि भारत में श्रमिकों की स्थिति पर गंभीरता से विचार हो । सरकार, उद्योग और समाज को मिलकर श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा, उचित वेतन, सामाजिक सुरक्षा और बेहतर कार्य परिस्थितियों को सुनिश्चित करना चाहिए। इससे न केवल श्रमिकों का जीवन स्तर सुधरेगा, बल्कि देश की आर्थिक प्रगति भी सुनिश्चित होगी।
भारत में केवल वयस्क एवं महिला श्रमिक ही नहीं अपितु बाल श्रमिकों की भी भारी तादाद है और उनकी हालत भी अच्छी नहीं है। यहां बाल श्रम एक गंभीर सामाजिक व आर्थिक समस्या है, जो बच्चों के बचपन, शिक्षा और भविष्य को प्रभावित करती है।
राष्ट्रीय बाल श्रम सर्वेक्षण (2011 जनगणना) के अनुसार 5 से 14 वर्ष की आयु के लगभग 1 करोड़ से अधिक बच्चे श्रम में लगे हुए थे। इन बच्चों में से 70% से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों से हैं। यूनिसेफ के अनुसार भारत में बाल श्रम में कमी आई है, लेकिन अभी भी 8-10 मिलियन बच्चे अलग-अलग रूपों में श्रम कर रहे हैं। बाल मज़दूर यहां घरेलू नौकर, चाय की दुकान, रेस्तरां, निर्माण स्थल, ईंट भट्टा, खेतों, फैक्ट्रियों, और खतरनाक उद्योगों में खूब काम करते हैं जो अवैधानिक होते हुए भी लगातार जारी है। कई बार मानव तस्करी और बंधुआ मजदूरी के तहत भी बच्चों को काम कराया जाता है।
दरअसल मेहनत मजदूरी करना इन बच्चों की मज़बूरी है जिसका मुख्य कारण है
गरीबी । माता-पिता की आय कम होने से बच्चे काम करने को मजबूर होते हैं। अशिक्षा और जागरूकता की कमी भी इसकी जिम्मेदार है। परिवारों को नहीं पता कि सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा का अधिकार है।
यहां बच्चों से कम पैसों में काम कराया जाता है क्योंकि यहां बालश्रम कानून का पालन न के बराबर किया जाता है निगरानी और सजा की प्रक्रिया भी कमजोर है।बाल श्रम को समाप्त किया जा सकता है बशर्ते कि शिक्षा को यथार्थ के धरातल पर अनिवार्य और आकर्षक बना दें ।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम सख्ती से लागू हो, स्कूलों में मिड-डे मील, मुफ्त किताबें और वर्दी जैसी योजनाओं को सुधारा जाए व उनके परिवारों की आर्थिक स्थिति को सबल किया जाए और माता-पिता को जागरूक किया।
इसके लिए जरूरी है कि गांव एवं शहरों में जनजागरूकता अभियान चलाया जाए।
ग्बाल अधिकारों और शिक्षा के महत्व का प्रचार-प्रसार किया जाए, स्वयंसेवी संस्थाओं की भागीदारी बढ़े, । बाल श्रमिकों को छुड़ाने के बाद उन्हें स्कूलों में दाखिला, मनोवैज्ञानिक परामर्श, और कौशल प्रशिक्षण देना समय की मांग है। ।
बालश्रम केवल एक सामाजिक अपराध ही नहीं, बल्कि देश के भविष्य से खिलवाड़ है। जब हर बच्चा स्कूल में होगा, तभी भारत सही मायनों में विकासशील से विकसित देश बन सकेगा।
डॉ घनश्याम बादल