थिएटर :  दशा, दिशा एवं संभावना

 

विश्व थिएटर दिवस (27 मार्च)

डॉ घनश्याम बादल

एक समय था जब थिएटर न केवल मनोरंजन का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम ही नहीं अब समाज का दर्पण भी था और विभिन्न नाटकों के माध्यम से  समसामयिक मुद्दों को प्रस्तुत करता था मगर आज विभिन्न डिजिटल प्लेटफॉर्म एवं फिल्म जगत तथा सोशल मीडिया के बढ़ते वर्चस्व और बदलते समय के साथ थिएटर भारी चुनौती का सामना कर रहा है, वहीं इसमें नए  प्रयोग एवं सुधार भी हो रहे हैं। परिवर्तन समय चक्र की विशेषता है. समय के बदलाव के साथ-साथ थिएटर की भी हालत एवं हालात दोनों में परिवर्तन हुए हैं। आज के डिजिटल युग में पारंपरिक थिएटर  अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है । सिनेमा, वेब सीरीज़ और डिजिटल कंटेंट लोगों को अधिक लुभा रहे हैं इससे रंगमंच के दर्शकों की संख्या में भारी गिरावट आई है।
आर्थिक कठिनाइयाँ घटते हुए दर्शन मंचन की बढ़ती हुई कीमतें कलाकारों के लिए रोजी-रोटी का संकट, सरकारी अनुदान की कमी, प्रायोजकों की उदासीनता और टिकट बिक्री में गिरावट के कारण आज अधिकांश थिएटर ग्रुप आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं।


सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव –

आज का युग भागमभाग का युग है । छोटे परिवार और बढ़ते खर्च निरंतर काम करने को विवश कर रहे हैं यदि मनोरंजन भी करना है तो घर पर ही टीवी चैनल डिजिटल प्लेटफॉर्म आदि उपलब्ध हैं ऐसे में थिएटर के प्रति रुचि कम हो रही है और इस कला को जिंदा रखने में कठिनाइयाँ हो रही हैं।
नई तकनीक  का प्रभाव – डिजिटल माध्यमों यू ट्यूब , ओ टी टी जैसे प्लेटफॉर्म, वर्चुअल थिएटर आदि के कारण भी नाट्यकला को नई प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। अस्तु कहा जा सकता है कि अब धीरे-धीरे मंच यह नाटकों के दिन खत्म से होते दिख रहे हैं तो इसमें नई तकनीक  का भी भारी रोल है।

दिशा एवं भविष्य

इसमें दो राय नहीं की वही कल जिंदा रही है जिसने अपने आप को समय के साथ अपडेट किया है. उदाहरण के लिए कठपुतली का प्रदर्शन सामने है आज जो बहुत कम ही देखने को मिलता है. यदि थिएटर को अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो ऑनलाइन थिएटर, वर्चुअल परफॉर्मेंस और हाइब्रिड मंचन के माध्यम से  भी प्रयोग एवं प्रयास करने होंगे।


बढे  युवा पीढ़ी की भागीदारी

युवा पीढ़ी किसी भी कला को नया जीवन दे सकती है अतः थिएटर को स्कूल-कॉलेजों में प्रोत्साहित करके युवा पीढ़ी को इससे जोड़ा जाना जरुरी है। अच्छा हो कि विद्यालय स्तर से ही एक विषय के रूप में भी नाटक या थिएटर को पाठ्यक्रम में जगह दी जाए जिससे किशोरावस्था से ही बच्चे कलाकार के रूप में आगे बढ़ें । साथ ही साथ उनके लिए थिएटर में ऐसे प्रबंध भी करने होंगे जिससे उनके आगे रोजगार का संकट न रहे।
उठाएं सामाजिक मुद्दे

यदि थिएटर को  प्रभावी और प्रासंगिक बनाना है तो इसे समसामयिक सामाजिक मुद्दों से जोड़ना होगा और क्षेत्रीय भाषाओं में नाटक प्रस्तुतीकरण पर बल देकर स्थानीय  थिएटर संस्कृति को बढ़ावा दिया जा सकता है।
मिले सरकारी और निजी सहयोग 

थिएटर अपने आप में एक लोक कला है, इसमें दो राय नहीं और लोक कलाओं के संरक्षण एवं संवर्धन की जिम्मेदारी शासन प्रशासन के साथ-साथ समाज पर भी जाती है, इसलिए थिएटर ग्रुप्स को सरकारी अनुदान, कॉर्पोरेट स्पॉन्सरशिप और फंडिंग के माध्यम से सहायता आज की ज़रूरत ही नहीं बल्कि हमारी जिम्मेदारी भी बनती है।
 जहां सरकार एवं समाज की जिम्मेदारी है ,वहीं स्वयं नाटक से जुड़े हुए लेखक को कलाकारों निर्देशकों एवं आयोजकों को भी इस दिशा में आगे कदम बढ़ाना होगा। गाँवों और छोटे शहरों में थिएटर को पुनर्जीवित करने के लिए स्थानीय प्रतिभाओं के लिए अवसर पैदा करने होंगे। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर थिएटर फेस्टिवल्स और वर्कशॉप आयोजित कर थिएटर कलाकारों को  प्रोत्साहन देना होगा। परंपरागत शैली के साथ-साथ प्रयोगधर्मी नाटकों को मंच देना  नए विचारों, विषयों और प्रयोगात्मक नाटकों को भी बढ़ावा भी ज़रूरी है।

आज थिएटर की स्थिति चुनौतीपूर्ण तो है लेकिन सही दिशा में प्रयास करने पर इसका भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। डिजिटल माध्यमों से सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों को मंच पर लाकर, और सरकार एवं निजी संस्थाओं की मदद से थिएटर को पुनर्जीवित किया जा सकता है। विश्व थिएटर दिवस पर हमें नाटकों को बचाने के लिए नाटक की नहीं अपितु कुछ यथार्थपरक करने की आवश्यकता है. तभी थिएटर संस्कृति जिंदा रह सकती है।

डॉ घनश्याम बादल

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