
—विनय कुमार विनायक
मित्र कुटुम्ब भले हो ना हो
अपरिचित चेहरों को भले होने चाहिए!
मित्र कुटुम्ब घरों में मिलते
अपरिचित हर चौक चौराहे पर मिलते!
मित्र कुटुम्ब के बगैर रह सकते
पर अपरिचित के बगैर नहीं रह सकते!
जब हम किसी यात्रा पर होते
तब अपरिचित चेहरे ही काम आते!
चाहे हो स्टैंड के आटो रिक्शा, गाड़ी वाले
चाहे हो रेलवे स्टेशन के कर्मचारी,कुली हॉकर
चाहे हो होटल रेस्टोरेंट, सराय-धर्मशाला वाले
सबके सब अपरिचित चेहरे ही तो होते!
ये अपरिचित चेहरे भले होने चाहिए
अपरिचित चेहरों के भले ना होने पर
हम ना घर के और ना घाट के होते!
जब हम यात्रा पर होते तब अकेले
या कुछ अपने रिश्तेदारों के साथ होते!
हमारे साथ कुछ सामान, कुछ पैसे
कुछ महिलाएं और मासूम बच्चे होते
सब अपरिचित चेहरों के रहमों-करम पे!
मित्र कुटुम्ब भले हो ना हो
अपरिचित चेहरों को भले होने चाहिए
अपरिचित चेहरों से भले की उम्मीद होती!
जब स्कूल कालेज पढ़ने को जाती हैं बेटियां,
जब दफ्तर में काम करने जाती हैं महिलाएं,
जब अकेले सफर पर होती मां बहन नारियां,
तब अपरिचित चेहरों का भला होना जरूरी है!
अपरिचित चेहरों की भलमनसाहत पहचान है
एक अच्छे इंसान, समाज और संप्रभु राष्ट्र की!
एक अच्छे इंसान को अच्छी शिक्षा गढ़ती
चाहे शिक्षा हो पारिवारिक या अकादमिक
शिक्षा मनुष्य को जन्म से ही मिलने लगती!
किसी अकादमी से कहीं अधिक समाज
मनुष्य को सभ्य, शिक्षित, सहयोगी बनाता!
अधिकांश महामानव औपचारिक नहीं
अनौपचारिक शिक्षा से सत्पुरुष बनते रहे!
सब अपरिचित चेहरे पढे लिखे नहीं होते,
मगर अधिकांश अपरिचित चेहरे भले होते!
अधिकांश मजदूर किसान अपढ़ पर भले होते
अधिकांश सद्गुरु अकादमिक नहीं स्वाध्यायी होते!
मजहबी मिशनरी अकादमिक शिक्षा मनुष्य को
अधिकांशतः मतलबी स्वार्थी अतिबौद्धिक बनाती!
पारिवारिक संस्कार, मानवीय व्यवहार, राष्ट्र चरित्र
अपरिचित चेहरों की सदाशयता के लिए जरूरी है!
—विनय कुमार विनायक