डॉ. सरोज चक्रधर
हमने सुनी कहानी थी…भारत वर्ष की आजादी का गौरव गान वर्ष 1947 को आरंभ हुआ था, वह नित्य प्रति हमारी धडक़न बन चुका है। सुप्रभात के साथ हमें स्मरण होता है कि खुली हवा में, बिना किसी बंदिश के हम हैं तो उन पुरोधाओं और पुरखों का संघर्ष है जिन्होंने आज के लिए, हमारे लिए लड़े। स्वाधीनता का संघर्ष कैसा था, यह देखने और उसमें भाग लेने का अवसर मुझे नहीं मिला, मिला तो स्वाधीन भारत में जन्म लेने का गौरव। स्वाधीनता के साढ़े तीन दशक बाद मैं इस दुनिया में आई। बचपन से ही कभी परिवार में तो कभी स्कूल में तो कभी सभा-संगत में आजादी की कहानी सुनने को मिली। वह संघर्ष, त्याग और तपस्या की दास्तां सुनकर मेरे रोंगटे आज भी खड़े हो जाते हैं। एकाएक यह भरोसा करना भी मुश्किल सा हो जाता है कि कितनी पीड़ा के दिन थे वो। हमारी भारत माता का कलेजा कैसे छलनी हुआ जा रहा होगा, जब उनके बच्चों की खून की होली खेली जा रही थी। निर्मम अंग्रेजी शासन की जीवंत दास्तां है जलियां वाला बाग। हालाँकि ऐसे और भी दुखद प्रसंग सामने आ रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम की हमने भी सुनी थी कहानी। आज उसी संघर्ष की कुछ दास्तां सुनाने जा रही हूँ जिनकी वजह से आप और हम हैं।
आज ही के दिन अर्थात 15 अगस्त, 1947 में अंग्रेजों ने भारत को आजादी देने का ऐलान किया था। ये ऐलान ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने किया था। एटली ने कहा था कि 30 जून 1948 से पहले भारत को आजाद कर दिया जाएगा। भारत के आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने 3 जून 1947 को ऐलान किया कि 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी दी जाएगी। इसके पहले की वह कहानी सुनाती हूँ जो मैंने सुनी थी। 1757 में भारत में ब्रिटिश शासन शुरू हुआ, जिसके बाद प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत हुई और उसने देश पर नियंत्रण हासिल कर लिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगभग 100 वर्षों तक भारत पर राज किया। रखा और फिर 1857-58 में भारतीय विद्रोह के माध्यम से ब्रिटिश ताज ने इसकी जगह ले ली। 1876 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री बेंजामिन डिसरायली ने रानी विक्टोरिया को भारत की महारानी घोषित किया। ब्रिटिश उदारवादियों ने इस पर आपत्ति जताई क्योंकि यह शीर्षक ब्रिटिश परम्पराओं के लिए विदेशी था।
भारत के लोगों के लिए की गई एक शाही घोषणा में, रानी विक्टोरिया ने ब्रिटिश कानून के तहत सार्वजनिक सेवा के समान अवसर का वादा किया, और देशी राजकुमारों के अधिकारों का सम्मान करने का भी वादा किया। अंग्रेजों ने राजाओं से जमीन छीनने की नीति बंद कर दी, धार्मिक सहिष्णुता का आदेश दिया और भारतीयों को सिविल सेवा में प्रवेश देना शुरू कर दिया। हालाँकि, उन्होंने मूल भारतीयों की तुलना में ब्रिटिश सैनिकों की संख्या में भी वृद्धि की और केवल ब्रिटिश सैनिकों को तोपखाने संभालने की अनुमति दी।
मैंने सुना और इतिहास के पन्नों में भी दर्ज है कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन शुरू किया गया था और इसका नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया था, जिन्होंने अहिंसक और असहयोग आंदोलन की पद्धति की वकालत की थी, जिसके बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन हुआ। 1857 का भारतीय विद्रोह ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ उत्तरी और मध्य भारत में एक बड़ा विद्रोह था। मंगल पांडे, ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाही थे, जिन्होंने गायों और सुअर की चर्बी से बनी कारतूसों के खिलाफ बगावत किया था। मंगल पांडे एक सिपाही थे, जिन्होंने 1857 के भारतीय विद्रोह से ठीक पहले की घटनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अपने ब्रिटिश वरिष्ठों के प्रति उनकी अवज्ञा और बाद में उनकी फाँसी ने 1857 के भारतीय विद्रोह की आग को प्रज्वलित कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई, झाँसी की रानी, विद्रोह के प्रमुख नेताओं में से एक थीं।
अवध के अन्य हिस्सों और उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में भी विद्रोह भडक़ उठे, जहाँ विद्रोह के बाद नागरिक विद्रोह हुआ, जिससे लोकप्रिय विद्रोह हुआ। प्रारंभ में अंग्रेज़ सतर्क नहीं थे और इस प्रकार प्रतिक्रिया करने में धीमे थे, लेकिन अंतत: बलपूर्वक जवाब दिया। विद्रोहियों के बीच प्रभावी संगठन की कमी और अंग्रेजों की सैन्य श्रेष्ठता के कारण विद्रोह समाप्त हो गया। अंग्रेजों ने दिल्ली के पास विद्रोहियों की मुख्य सेना से लड़ाई की, और लंबी लड़ाई और घेराबंदी के बाद, उन्हें हरा दिया और 20 सितंबर 1857 को शहर पर पुन: कब्जा कर लिया। इसके बाद, अन्य केंद्रों में विद्रोह भी दबा दिए गए। आखिरी महत्वपूर्ण लड़ाई 17 जून 1858 को ग्वालियर में लड़ी गई थी, जिसके दौरान रानी लक्ष्मीबाई की मौत हो गई थी। तात्या टोपे के नेतृत्व में छिटपुट लड़ाई और गुरिल्ला युद्ध 1859 के वसंत तक जारी रहा, लेकिन अंतत: अधिकांश विद्रोहियों को दबा दिया गया। 30 जुलाई, 1857 को लखनऊ में रेडान बैटरी पर विद्रोहियों का हमला 1857 का भारतीय विद्रोह एक निर्णायक मोड़ था। ब्रिटिशों की सैन्य और राजनीतिक शक्ति की पुष्टि करते हुए, इससे भारत को उनके द्वारा नियंत्रित करने के तरीके में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया। भारत सरकार अधिनियम 1858 के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी का क्षेत्र ब्रिटिश सरकार को हस्तांतरित कर दिया गया। 10 मई 1857 को, मेरठ में सिपाहियों ने रैंकों को तोड़ दिया और अपने कमांडिंग अधिकारियों पर हमला कर दिया, जिसमें से कुछ की मौत हो गई। वे 11 मई को दिल्ली पहुँचे, कंपनी के टोल हाउस को आग लगा दी और लाल किले में मार्च किया, जहाँ उन्होंने मुगल सम्राट, बहादुर शाह द्वितीय से अपना नेता बनने और अपने सिंहासन को पुन: प्राप्त करने के लिए कहा। अंतत: सम्राट सहमत हो गए और विद्रोहियों द्वारा उन्हें ‘शहंशाह-ए-हिंदुस्तान’ घोषित किया गया। बहादुर शाह द्वितीय को रंगून में निर्वासित कर दिया गया जहाँ 1862 में उनकी मृत्यु हो गई।
स्वाधीनता के इस स्वर्णिम संघर्ष के बाद जो कुछ घटा, हमने उसकी सुनी कहानी थी। 1946 में ब्रिटेन की लेबर सरकार ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अपनी पूँजी हानि के कारण भारत पर अपना शासन समाप्त करने के बारे में सोचा। फिर, ब्रिटिश सरकार ने 1947 की शुरुआत में जून 1948 तक सभी शक्तियाँ भारतीयों को हस्तांतरित करने की घोषणा की। ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने 20 फरवरी, 1947 को घोषणा की कि भारत में ब्रिटिश शासन 30 जून, 1948 तक समाप्त हो जाएगा, जिसके बाद शक्तियां जिम्मेदार भारतीय हाथों में स्थानांतरित कर दी जाएंगी। इस घोषणा के बाद मुस्लिम लीग द्वारा आंदोलन किया गया और देश के विभाजन की मांग की गई। फिर, 3 जून, 1947 को ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि 1946 में गठित भारतीय संविधान सभा द्वारा बनाया गया कोई भी संविधान देश के उन हिस्सों पर लागू नहीं हो सकता, जो इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। ऐसे में उसी दिन यानी 3 जून, 1947 को भारत के वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने विभाजन योजना सामने रखी, जिसे माउंटबेटन योजना के रूप में जाना जाता है। कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने योजना स्वीकार कर ली। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 को लागू करने की योजना को तत्काल प्रभाव दिया गया। 14-15 अगस्त, 1947 की आधी रात को ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया और सत्ता दो नए स्वतंत्र डोमिनियन भारत और पाकिस्तान को हस्तांतरित कर दी गई। लॉर्ड माउंटबेटन भारत के नए डोमिनियन के पहले गवर्नर-जनरल बने। जवाहर लाल नेहरू स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। 1946 में स्थापित संविधान सभा भारतीय डोमिनियन की संसद बन गई।
स्वाधीनता संग्राम के इस महायज्ञ में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का भी योगदान नहीं भुलाया जा सकता। हमने सुनी कहानी थी कि बस्तर से लेकर सिहावा और बैतूल से लेकर धार-झाबुआ के वीरों ने अंग्रेजों को पस्त कर दिया था। आजादी की हमारी इस स्वर्णिम कहानी में हजारों-हजार वनवासी हैं जिनको भुलाया नहीं जा सकता है। सिहावा के घने जंगलों से जो चिंगारी उठी थी, वह बैतूल के जंगल सत्याग्रह की कहानी बन गई। धार-झाबुआ जैसे इलाकों में तो बस्तर तक वन पुत्रों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। जंगल सत्याग्रह जबलपुर, कटनी और सिहोरा तहसीलों में हुआ। बैतूल और सिवनी जिलों में अंग्रेजी फौज ने वन सत्याग्रहियों पर गोलियां चलाईं। सिवनी जिले के टुरिया गाँव का आंदोलन अकेली ऐसी चिंगारी थी, जिसने अंग्रेजी साम्राज्य को हिला कर रख दिया था. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मूका लुहार, बिरजू भोई और राम प्रसाद के नेतृत्व में टुरिया वन सत्याग्रह का शंखनाद कर दिया गया। बिरजू भोई के साथ मुड्डे बाई, रेनी बाई और देभो बाई देश के लिए शहीद हो गए।
हमले सुनी कहानी थी में यह भी प्रसंग स्मरण करने योग्य है कि दो महान स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद और रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म क्रमश: भाबरा (अलीराजपुर) और मुरैना में हुआ था। सुभद्रा कुमारी चौहान भारत की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्हें झंडा सत्याग्रह में गिरफ्तार किया गया था। 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वाले वीर नारायण सिंह ने छत्तीसगढ़ के पहले शहीद हुए। पं. रविशंकर शुक्ल, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, छेदीलाल सिंह, रघुनंदन सिंगरौल जैसे अनेक नेताओं ने स्वाधीनता संग्राम में आगे आए। पंडित सुंदरलाल शर्मा को छत्तीसगढ़ का गाँधी पुकारा गया।
छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान अलग-अलग समय में सिल्हावा-नगरी, गट्टासिली, रुद्री-नवागांव, महासमुंद, दुर्ग जैसे विभिन्न स्थानों पर जंगल सत्याग्रह हुए। इन सभी जंगल सत्याग्रहों का इन क्षेत्रों के नेताओं द्वारा सफलतापूर्वक नेतृत्व किया गया। स्वाधीनता आंदोलन की हमने सुनी कहानी थी। जो सुना, जो पढ़ा और जितना याद रह गया आपको सुना गई। हमने सुनी कहानी है, यह उतनी ही लम्बी है जितना कि आजादी का हमारा संघर्ष। इसलिए यह कहानी जारी रहेगी जो हमें हमेशा याद दिलाती रहेगी कि हमें स्वतंत्रता मिली है, स्वच्छंदता नहीं।