
गुलामी से आजादी मिलने के बाद भारत के भाग्य में भूख मिली और हाथ में गरीबी । स्वंत्रत भारत पंचवर्षीय योजनाओं से विकास की रफ्तार पकड़ ही रहा था कि दुनिया में पूंजीवाद निजीकरण व्यक्तिगत पाश्चत्य अर्थव्यवस्था ने वैश्वीकरण के नाम पर विकास की पटरी पर चलने की शुरुआत करने वाले गरीब देशों में अपनी अर्थव्यवस्था थोंपने का काम किया ।इसमें भरपूर सहयोग दिया विदेशों से संचालित होने वाले मीडिया माध्यमों और उनके अधीन कार्य कर रहे मीडिया कर्मियो ने ।जब ये दौर फूल की तरह खिलने वाला था ।तब भारत जैसे देश की बैलगाड़ी वाली मजबूत स्थायी अर्थव्यवस्था जो पर्यावरण के अनुकूल भी थी को इन भौंकने वाले माध्यमों ने धीमा और बेहाल बताकर पाश्चात्य अर्थव्यवस्था को अपनाकर राजनीतिकरण कर निजी हाथों में समेटने का प्रयास किया । इन हाथों की अंधाधुंध काली कमाई विदेशों में जाती रही ।इसमें यहां के संसाधनों का भरपूर दोहन किया जाता रहा । मीडिया का प्रचार महानगरों शहरों तक खूब हुआ। विज्ञापनों से शहरों में बिक्री बढ़ी रोजगार के चलते गांव के गांव शहर में बस गए ।जिससे गांव का रोजगार ,ग्रामीण अर्थव्यवस्था धाराशायी होती चली गई। गांव में पलने वाला हाथकरघा,हस्तशिल्प ,कुटीर उद्योग समाप्त हो गया ।घर घर में घी दूध की डेयरियां हुआ करती थी ।आज पन्नी में पीने लाइक तो छोड़ो जनता को देखने को नसीब नहीं हो रहा ।काल के पहिये के चक्र में चाक का पहिया ऐसे रुका जिससे लाखों लोग जो मिट्टी पर निर्भर होकर अपना रोजगार चलाते घर का पेट पालते अपने बूढ़े माता पिता की सेवा करते और स्वस्थ भी रहते है ।पर्यावरण बेहतर होने के साथ व्यक्तिगत रोजगार का अर्थव्यवस्था में योगदान था ।बैलगाड़ी अर्थव्यवस्था भी धीमी ही सही स्थाई और हर तरह से मजबूत थी ।उसमें बस रफ्तार की जरूरत थी ।जिससे कृषि में उत्पादन की मात्रा बढ़ सके।
भले ही आज हमने उत्पादन बड़ा लिया हो लेकिन देश आज भी भूखा है ।और सबसे ज्यादा भूखा वहाँ है जहाँ सबसे ज्यादा अन्न पैदा होता है ।किसान के खेत की सिंचाई का बहाना लेकर सरकारों द्वारा बनाये गई बांधो की दीवारों ने उसके हिस्से के मिलने वाले पानी को रोककर निजी कंपनियों के साथ साथ शहर की चमक दमक बढ़ाने की ओर मोड़ दिया । जिससे सतत बहने वाला धाराप्रवाह पानी जो किसान परिवार और पर्यावरण को हराभरा रखता ।पानी मोड़ने से किसान का जीवन और पर्यावरण को ताजगी प्रदान करने वाले पेड़ पौधे दोनो सूखे पड़ गए। इस पाश्चात्य व्यवसायीकरण से जो शहरी अर्थव्यवस्था पनपी उसका ग्रामीण आधार अधिक गरीब होता चला गया ।सरकारों ने सिंचाई रोकी चमकती दमकती कंपनियों और शहरों ने रोजगार छीन लिया ।सत्ता की कुर्सी के लक्ष्य में राजनैतिक पार्टियां लालच में अपने समर्थक विशेष राजनैतिक वर्ग को निजी कंपनियों से लाभ पहुंचाते रहे। कंपनियां भी सत्ता से सब्सिडी और पक्षपात नीति बनवाते रहे आलम यह हुआ की सम्पन्न वर्ग गरीब वर्गों का राजनीतिक बल पर शोषण करता रहा ।इन सम्पन्न वर्गो का राजनैतिक पार्टियां शोषण करती रही।इन राजनैतिक पार्टियों के लोगो का केंद्रीय प्रतिनिधित्त्व इस्तेमाल करता रहा। केंद्रीय प्रतिनिधित्त्व पर भी स्वत्रंत भारत के इतिहास में हमेशा से एक व्यक्ति का प्रभाव बना रहा है । और ये प्रभावी व्यक्ति ही कंपनियों के दम पर उनके समर्थन और आपसी सहयोग से सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने में कामयाब हो पाता है ।ये कंपनियां विदेशी होती है और जो नहीं होती वो धन अर्जित कर सत्ता विरोध होने विदेशी बन जाती है । जिससे देश का पैसा विदेश में चला गया । शेष बचे पैसे को सरकारों की गलत अर्थनीति ,दंड नीति और सुरक्षानीति के कारण और राजनीतिक मिलीभगत से भगौड़े लेकर भाग गए।
हमारे देश की व्यवसायिक सरंचना विकसित देशों की तरह नहीं है जिन्होंने अपने अनुसार अपनी परिभाषा परिभाषित कर ली है ।हमारा देश कल भी भूखा था आज भी भूखा है । बस ग्लोबल भूख इंडेक्स में 102 नंबर पर आ गए है ।हमें भूखा रहकर दौड़ती गाड़ी वाली अर्थव्यवस्था को त्याग कर अपनी बैलगाड़ी वाली अर्थात ग्रामीण मजबूत अर्थव्यवस्था पर लौटना होगा ।उसे ही तकनीक और मानव श्रम शक्ति के साथ जोड़कर मजबूती देते हुए स्थायित्त्व और सम्पन्नता की और दौड़ाना होगा ।और आधुनिक दुनिया के सामने फिर से भारत की एक नई तस्वीर पेश करनी होगी। जो चाणक्य के समय चन्द्रगुप्त के राज में थी ।जिसकी तस्वीर महात्मा गांधी और डॉ अम्बेडकर ने सोची थी ।
आनंद जोनवार
आनंद जोनवार जी द्वारा लिखा निबंध एक प्रकार से मुझ बूढ़े के परंपरागत विचारों का अनुनाद ही है लेकिन एक ओर खड़े चिरकाल से बिगड़ी अर्थ-व्यवस्था पर हैतुकी केवल भड़ास बन पाठक को निष्क्रिय बना छोड़ने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाती है| विशेषकर, अंत में लेखक द्वारा कही महात्मा गांधी और डॉ अम्बेडकर की सोच निष्क्रिय पाठक के मन में कुण्ठा व क्रोध पैदा कर उसे विषय से दूर उस बवंडर में ला खड़ा करती है जहां उपाय-रहित वह असहाय कल भी भूखा था आज भी भूखा है|