क्या हैं आरएसएस के पंच परिवर्तन

  • डॉ. इंदिरा दाँगी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक शताब्दी पुराना एक ऐसा संगठन है जिसे देश सेवा, आपात स्थितियों में नागरिक-सहायता और सांस्कृतिक उत्थान के अगुआ के रूप में भारत क्या, विश्व के नागरिक जानते हैं। राष्ट्रीय का अर्थ हुआ जिसकी सीमा संपूर्ण राष्ट्र हो; लेकिन वास्तव में ये संगठन विश्व पटल पर अपने सेवा कार्य के कारण जाना जाता है। स्वयं सेवक का अर्थ हुआ जो बिना किसी अपेक्षा या लाभ के सेवा करता है जैसे कि संगठन में कुछ लोग अपना पूरा जीवन समर्पित करने आते हैं तो कुछ अपनी व्यस्त जीवन शैली में से कुछ समय सेवा कार्य में देते हैं जिसे Pay back to society कह सकते हैं। संघ शब्द का अर्थ हुआ सभा। इस प्रकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अर्थ हुआ हमारे राष्ट्र की जातीय अस्मिता की पहचान या उत्थान और सनातन धर्म की अंतरराष्ट्रीय पहचान/महत्व के लिए काम करने वाला संगठन। अपनी स्थापना की पिछली एक शती में आरएसएस ने कहीं दुर्गम पहाड़ों में रहकर धर्मांतरण से भोले मूल निवासियों को बचाया …तो कहीं दंगों में जनता की रक्षा की, …बालिकाओं को आत्मरक्षा के गुर सिखाए, …कहीं तूफान में फंसे लोगों तक चिकित्सा और भोजन पहुंचाया। इसी तारतम्य में शताब्दी वर्ष में संगठन ने पंच परिवर्तन से ‘हर गाँव, हर बस्ती, हर घर’ तक जन के गुणवत्तापूर्ण जीवन पर काम करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। ये पंच परिवर्तन हैं :

  1. स्व धारित जीवन शैली
  2. पर्यावरण संरक्षण
  3. सामाजिक समरसता
  4. कुटुंब प्रबोधन
  5. नागरिक कर्तव्य  
  1. स्व धारित जीवन शैली : अपनी स्कूली किताबों में हम स्वाधीनता और इंडिपेंडेंस  का अंतर पढ़ते थे। इंडिपेंडेंट वो जिस पर किसी का नियंत्रण न हो, स्वाधीन वो जो स्वयं के अधीन हो। यही ‘स्वयं के अधीन’ स्व धारित जीवन शैली का मूल है। वास्तव में भारतीय जीवन शैली स्वयं के अधीन जीवन शैली है। एक गाँव की कल्पना कीजिए जहाँ मिट्टी के बर्तन बनाने वाला कुम्हार है, जूते बनाने वाला मोची है, बाँस के सूप और टोकरियाँ बनाने वाला बाँसोर है, विभिन्न अन्न बेचने वाला किसान और उन्हें पीसने को चक्की वाला है। एक आत्म निर्भर संरचना जो बाहर से खरीदने को कम-कम निर्भर है। जहाँ बच्चों को अकादमिक शिक्षा के अलावा हुनर सीखने के भी अवसर हैं। …आप स्वयं ही सोचिए, Nine to five जॉब के योग्य बनने के लिए ही तो अंकों की इतनी प्रतिस्पर्धा है बच्चों में। रोजगार मांगने वाला नहीं बल्कि रोजगार देने वाला बनाना ही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का भी लक्ष्य है, पंच परिवर्तन का भी। स्थानीय कुटीर उद्योगों का तंत्र जब अपने होने में सफल होता है …तो न सिर्फ पलायन रुकता है …बल्कि स्थानीय बोलियाँ भी मरने से बच जाती हैं …और बच जाते हैं वे बच्चे भी जो किताबी पढ़ाई में असफलता के कारण सैकड़ों की संख्या में हर वर्ष आत्महत्या कर लेते हैं ! जिसे ‘क्वालिटी ऑफ़ लाइफ’ कहा जाता है, उसी को जन के जीवन में उतारना यहाँ लक्ष्य है। एक प्रसंग याद आता है। ब्रिटेन में रहने वाली मेरी एक सहेली ने एक बार मुझे कुछ चित्र भेजे। उसके पति को वहाँ की नागरिकता मिल गई थी; और दंपति बेहद प्रसन्न थे। चित्र में दिख रहा था कि वे महाशय घुटनों पर झुककर ब्रिटेन की महारानी के फोटो के सामने शपथ ले चुके थे कि वे उनके प्रति वफादार रहेंगे। इसके बाद घुटनों पर झुके उस भारतीय को एक ब्रिटिश अधिकारी ने नागरिकता का कागज़ दिया। …चित्र देख, मैं दुख से सोचती हूँ, उस प्रतिभाशाली नौजवान के लिए अपने देश में, स्वदेश में क्या कम अवसर रहे होंगे रोजगार के ? व्यापार के ? मुझे गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ की कविता याद आती है,


जिसकी मिट्टी में उगे बढ़े, 
पाया जिसमें दाना-पानी। 
है माता-पिता बंधु जिसमें, 
हम हैं जिसके राजा-रानी॥

वह हृदय नहीं है पत्थर है, 
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥ 

  • पर्यावरण संरक्षण :

                    माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः 

(भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।) मानने वाला यह देश सदा ही अपनी नदियों, वनों और पहाड़ों को पूजता रहा है। आज पर्यावरण के जिस वैश्विक संकट से संसार पीड़ित है, उसका हल भी यही जीवन शैली पुन: अपनाना है जिसमें हम विश्व प्रकृति से अपनी आवश्यकतानुसार न्यूनतम लेते हैं और बदले में अपनी कृतज्ञता भी ज्ञापित करते हैं, पेड़ लगाकर, उनका संरक्षण कर, नदियों को स्वच्छ रखकर और पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली अपनाकर। मैं अपने विद्यार्थियों से कभी कक्षा में पूछती हूँ, आप प्रकृति से सब कुछ लेते हैं; कभी सोचा है पलटकर देते क्या है ? क्या आप पढ़े लिखे मोनस्टर हैं जो जीवन भर नेचर मदर को लूटने के लिए जन्मे हैं ? …बात कुल इतनी-सी है कि अपने आप को धरती की, प्रकृति की संतान मानते ही जीवन दृष्टि ही बदल जाती है। तब पेड़, जंगल, नदी, पहाड़ और पशु-पक्षी हमारे सहोदर और सहोदरायें बन जाते हैं। एक विराट कुटुंब के सदस्य होकर हम अपना भी, और दूसरों का भी जीवन श्रेष्ठ बनाते हैं। प्रसन्न, स्वस्थ और दीर्घायु होने का रहस्य भी यही है। 

  1. सामाजिक समरसता :

             भिन्नता ही योग्यता है। और इस भिन्नता का सम्मान सदैव हमारी संस्कृति में रहा है। वास्तव में दूसरे की भिन्नता यानि ‘अलग होने’ को स्वीकार करने से ही समाज में सौहार्द, शांति और समन्वय संभव है। यहाँ समानता और समरसता की अवधारणाओं के अंतर को समझना आवश्यक है। समानता की अवधारणा कहती है कि सभी को समान अवसर और संसाधन हों। समरसता कहती है कि लोग की आवश्यकताओं और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अवसर और संसाधन हों। समरसता हमारे देश की परिस्थितियों में बहुत व्यवहारिक आवश्यकता है। सीता त्रिजटा को माता कहती हैं तो यह समरसता है। …राम शबरी के झूठे बेर खाते हैं, यह समरसता है।  …कोल-किरात राम का साथ पाते हैं, तो यह समरसता है। समरस शब्द का तिब्बती में अर्थ होता है ‘रोग्यांग’ जिसका अर्थ होता है -एक समान स्वाद। जैसे परिवार में सब विशिष्ट और भिन्न होते हुए भी एक हैं; ऐसे ही समाज में सब एक-दूसरे के लिए सम-रस रहें, इसकी आज के इस समय में और सदैव ही नितांत आवश्यकता है।          

  • कुटुंब प्रबोधन :

            एक संस्कार से अपनी बात शुरू करना चाहूँगी। पुंसवन संस्कार स्वस्थ संतान की प्राप्ति की कामना है और गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क के विकास के लिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है। यह संस्कार, यह व्यवस्था समाज को और देश को श्रेष्ठ और प्रतिभाशाली नागरिक देने के लिए है। माँ के आचार–विचार का प्रभाव होने वाले शिशु पर पड़ता है। शिशु परिवार का हिस्सा बनता है। परिवार कुटुंब का हिस्सा है और कुटुंब समाज का अतः एक-एक शिशु को संस्कारित करने की आवश्यकता है। सोचिये, जब गर्भस्थ शिशु पर माँ के आचार-विचार का प्रभाव पड़ने की इतनी चिंता हमारे पूर्वजों को रही थी, तो जन्म लेने के बाद पूरी परवरिश का कितना महत्व है !! बच्चा अपने परिवार से जो सीखता है, वही बर्ताव वह समाज में करता है। …आज हम सड़कों पर इतने विक्षिप्तों को देखते हैं, …परिवारों में होने वाले अपराधों में बार-बार ‘साइको’ शब्द सुनाई देता है, …समाज में कितने ही लोग आत्महत्या कर लेते हैं और कोई उनकी पीड़ा समझ भी नहीं पाता। इन सब सामाजिक समस्याओं के मूल में परिवार नाम इकाई की टूटन है। माइक्रो परिवारों के इस दौर में माता-पिता दोनों व्यस्त हैं, कुछ काम में, कुछ अपने मोबाइल में; और बच्चों को बताने वाला कोई नहीं कि हमारी बोली, संस्कृति, संस्कार, रीति-रिवाज, पुरखे और मान्यतायें क्या हैं।

                    समाज में बदलाव लाना है तो परिवार पर काम करना होगा क्योंकि अनेक समाजों-समूहों से प्रदेश और देश बनता है और कोई देश तभी श्रेष्ठ बन सकता है जब उसके नागरिक श्रेष्ठ हों। मानव पूंजी पर सबसे अधिक काम किए जाने की आवश्यकता है। बेटे संस्कारित होंगे तो समाज में अपराध घटेंगे और बेटियाँ संस्कारित होंगी तो वे अपराधों का शिकार होने से बचेगीं। बड़ों का सम्मान होगा तो समाज सुखी और सम्पन्न होगा। लोग दीर्घायु होंगे। देश नए-नए प्रयोग, नवाचारों, उपलब्धियों से सम्पन्न होगा और विश्व की प्रगति में योगदान देगा। …पूरे विश्व की प्रगति के लिए अपने एक-एक शिशु को संस्कारित करने पर परिवारों को काम करना होगा। यही कुटुंब प्रबोधन है।

  1. नागरिक कर्तव्य :

               किस देश को इसकी आवश्यकता नहीं ?? नियम तो बहुत हैं जो सरकार ने बनाए हैं, कानून ने बनाए हैं, समाज ने अपने सहज लोक बोध से बनाए हैं लेकिन उनका पालन कितने नागरिक करते हैं ? कितने लोगों में नागरिक बोध है ? मतदान हमारा अत्यंत आवश्यक कर्तव्य हैं लेकिन कितने अधिक नागरिक यह कर्तव्य नहीं निभाते हैं यह चुनाव के बाद, आँकड़ों से पता चलता है। सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है … पर्यावरण की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है … स्वच्छता बनाए रखना हमारा कर्तव्य है। ऐसे न जाने कितने ही कर्तव्य हैं जिन्हें हम जानते तो हैं लेकिन मानते नहीं। एक उदाहरण बताती हूँ। हाईवे पर मैं सदा ही देखती हूँ कि जो कट पॉइंट बने होते हैं, वहाँ लोग आम तौर पर ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं करते। कई एक दुपहिया चालक ऐसे होते हैं जिनके वाहन में न तो साइड-व्यू मिरर होते हैं और न ही सिर पर हेलमेट। तीन से लेकर पाँच और छह तक सवारियाँ एक दुपहिया पर दिखना आम है। इससे दुर्घटनायें होती हैं और सैकड़ों-हज़ारों मनुष्यों की अकाल मृत्यु होती है; फिर भी बहुत लोगों में नागरिक बोध नहीं जागता। वे नागरिक कर्तव्य जिन्हें हम पहले से जानते हैं लेकिन निभाते नहीं, उन्हीं पर काम करने की आवश्यकता है।

   इस तरह संघ के ये पंच परिवर्तन स्व धारित जीवन शैली, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, नागरिक कर्तव्य समाज के आचरण में सुधार लाने, जन का जीवन गुणवत्तापूर्ण बनाने और देश की प्रगति को और और गति देने का प्रयास है। ये वे पंच प्रण हैं जो भारत ही नहीं वरन् विश्व के किसी भी राष्ट्र के आचरण में आ जाएं तो उसकी अखंडता, प्रगति और सौहार्द की नींव तो दृढ़ करते ही हैं; जन का जीवन भी गुणवत्तापूर्ण बना देते हैं। गुणवत्ता पूर्ण जीवन का अर्थ है -स्वस्थ, समृद्ध, सफल, और दीर्घायु होना ! वेद यही तो हमें सिखलाते हैं –

सर्वे भवन्तु सुखिनः …

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