हास्य अभिनेता ओमप्रकाश को जब गूंगा बनना पड़ा

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रामकृष्ण

हास्य-रस के अनादि सम्राट अभिनेता ओमप्रकाश अभी कुछ ही बरसों पहले भगवान को प्यारे हुए हैं. जैसा कि लोगों को मालूम होगा, स्वभावत: वह बेहद बातूनी किस्म के इंसान थे. अगर आप उनकी अभिनीत किसी फि़ल्म के सेट पर पहुंच जाते तो आपको इस बात का आभास भी नहीं हो पाता कि कब रात छिपी और कब दिन उगा. इतने किस्से, इतनी कहानियां, इतने संस्मरण सुना जाते वह आपको कि क्षण भर के लिये तो आप यह बात भूल ही जाते कि वह शख्श इंसान है या गपशप का पिटारा?

लेकिन किस्से-कहानियों के इस पिटारे को भी जि़ंदगी में एक बार गूंगे का अभिनय करना पड़ा था – और वह भी परदे पर नहीं बलिक परदे से काफ़ी दूर. तब तो फि़ल्म जगत से ओमप्रकाश का कोर्इ संबंध भी नहीं था, सुनहरे या रूपहले परदे का सवाल भी कहां उठ सकता था उनके लिये? वैसे उन दिनों वह अविभाजित भारत के लाहौर रेडियो स्टेशन पर स्थायी कलाकार के रूप में कार्यरत थे, और उनकी आवाज़ के जादू से सारा ज़माना परिचित था.

द्वितीय महायुद्ध के समय की बात है. रावलपिण्डी से लाहौर तक का सफर करना था ओमप्रकाश को. फ़ौज़ी जवानों से ठसाठस भरी रेलगाडि़यां, और उस भीड़ के बावजूद यात्रा की अनिवार्यता. सोच लीजिए, क्या हालत रहती होगी उस ज़माने में हम-आप जैसे सामान्य नागरिकों की?

तीसरे दर्जे़ का रेल-टिकट था ओमप्रकाश के पास, और घुसने की जगह थी मात्र पहले दर्जे़ में – और वह भी तीन-चार अंगरेज़ सैनिकों के मध्य. मजबूरन उसी डिब्बे में घुसकर जगह बनाने की कोशिश कर डाली ओमजी ने, और अपने उन प्रयत्नों में उनको किंचित सफलता भी मिली.  सैनिक अधिकारी अपने अनजाने,  अनचीन्हें लहज़े में गिटपिट किये जा रहे थे उस समय, और ओमप्रकाश उनकी उस टामी अंगरेज़ी से सर्वथा अनभिज्ञ यह नहीं समझ पा रहे थे कि आखि़र किस तरह वह उन लोगों की बातचीत में  कोर्इ हिस्सा लें.

तभी उनके दिमाग़ में आया – क्यों न उन लोगों के सामने गूँगे का अभिनय कर डाला जाये? इज़्ज़त तो कम से कम बच ही जायेगी ऐसा करने से. और किस्सा-कोताह यह कि खानपान, सुरासेवन आदि के बाद फ़ौज़ी अफ़सरों ने जब ओमप्रकाश से पूंछा कि क्या वह जन्म से ही गूंगे हैं तो ओमजी ने इस खबसूरती से अपना सर हिलाया जिससे न यह मालूम हो सकता था कि वह गूंगे हैं और न यही कि वह गूंगे नहीं हैं.

सैनिक अधिकारियों के मन में उनके प्रति सहानुभूति जगी. उन्होंने ओमजी को न सिफऱ् भरपूर खिलाया-पिलाया बलिक लेटने के लिये एक पूरी बर्थ भी उनके हवाले कर दी. सुबह होने पर अँग्रेजी ढंग का ब्रेकफ़स्ट भी उनको मिला और ख़ूब मज़े के साथ उनकी वह यात्रा सम्पन्न हो गयी.

लेकिन लाहौर पहुंचने पर इस अभिनय का पटाक्षेप जब हुआ तो वह सैनिक अधिकारी भी हंसी से सराबोर हो उठे जिन्होंने अपंग समझ कर ओमप्रकाश की इतनी खातिरबाजी की थी. हुआ यह कि जो व्यक्ति ओमजी को लेने स्टेशन आया था उसने पूंछ ही लिया – कहो बर्खुरदार, सफ़र कैसा कटा?

सैनिक अधिकारी घूरघूर कर ओमजी की ओर देखते जा रहे थे, और ओम थे कि उनकी ज़बान ही सिमटती जा रही थी.

तभी, अपने आत्मविश्वास का संचय करते हुए ओमप्रकाश बोल उठे – माफ़ कीजिएगा, बिरादरान. आप लोगों की यह लंगड़ी अँग्रेजी मेरे भेजे के अन्दर नहीं घुस पा रही थी, इसीलिये मुझे गूंगे का अभिनय करना पड़ गया. वैसे यह न समझ लीजिएगा कि अँग्रेजी ज़बान मुझे नहीं आती, मैं भी लाहौर युनिवर्सिटी में पढ़ चुका हूं.

और उनकी इस बात को सुनते ही उपस्थित लोगों के मध्य हंसी का जो दौर-दौरा शुरू हुआ था उसकी समापित ओमजी के स्टेशन छोड़ने के बाद ही हो पायी.