जब दिल्ली का निरंकुश राज हुआ

सिर औरंगजेब के ताज हुआ
हर तरफ ही क़त्ल-ओ-ग़ारत थी
प्रजा दुःख दर्द से जब आर्त थी
धर्म सुरक्षित ना नारी थी
ये जग वेदना भारी थी
नहीं अत्याचार की कोई सीमा
वह दुःख रजनी थी बड़ी भीमा
तब गुरु वाणी में रोष जगा
सोया वीरत्व होश जगा
गुरु गोविंद सिंह प्रतिरोधी बन
ज़ुल्मों के घोर विरोधी बन
ले खड़्ग हाथ उतरे रण में
एक जोश जगा था जन जन में
थे बने सिंह वो उत्साही
बलिवेदी देख के ललचाई
फिर पुत्रों तक बलिदान किया
इस देश को गौरव महान दिया
वो सौ सौ से एक लड़ाते थे
गोविन्द सिंह नाम धराते थे
खालसा पंथ के नर केहरी
उठते थे पुलक सुन रणभेरी
सिंह सैन्य जिधर भी जाता था
एक मृत्यु भय उपजाता था
सत्य पर तन कुर्बान किये
अपने सिर तक थे दान किये
सरित सरसा अब तक याद करे
गुरु ने तट आबाद करे
चमकौर ने रण वो देखा है
हर रज कण में वो लेखा है
कैसे तलवारें दमकी थी
हर केश से बिजली चमकी थी
दुश्मन चित्कारें विकल रहीं
रुंडों से फुहारें निकल रहीं
अजित, जुझार रणखेत रहे
मुगलों के स्वपन सब रेत रहे
नंदोन, भगाणी और गुलेर
खालसा के वे वीर शेर
उन खड़गों, भालों, तीरों पर
क्या और कहुं उन वीरों पर
उस सिख सुरज की रश्मि से
दुस्सह चंद्र था अस्त हुआ
उस गुरु तेज से टकराकर
था औरंगजेब भी पस्त हुआ
@राजपाल

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