सचिन त्रिपाठी
क्यों न हम बूंदों की खेती करें? यह प्रश्न अब एक सुझाव नहीं बल्कि एक निर्णायक आग्रह है। भारत, जो अपनी पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में करता है, आज उस बिंदु पर खड़ा है जहां उसके खेतों में पानी की कमी, अनियमित वर्षा और सूखते जल स्रोत एक चुपचाप आती हुई आपदा का संकेत दे रहे हैं। देश की 60 प्रतिशत से अधिक खेती अब भी वर्षा पर आधारित है और जब मानसून कभी समय से न आए या कम वर्षा हो जाए तो किसान की पूरी आजीविका डगमगा जाती है। ऐसे में ‘बूंदों की खेती’ यानी माइक्रो इरिगेशन, विशेषतः ड्रिप और स्प्रिंकलर पद्धति केवल विकल्प नहीं बल्कि समय की सख्त मांग बन चुकी है।
बूंदों की खेती एक ऐसी तकनीक है जिसमें पानी को सीधे पौधों की जड़ों तक बहुत धीमी गति से पहुंचाया जाता है जिससे प्रत्येक बूंद का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित होता है। यह पारंपरिक नहर या बाढ़ सिंचाई की तुलना में कई गुना अधिक कुशल पद्धति है। यह तकनीक भारत जैसे जल-अभाव वाले देश के लिए वरदान साबित हो सकती है। औसतन भारत में 1170 मिमी वार्षिक वर्षा होती है लेकिन उसका 80 प्रतिशत हिस्सा मात्र तीन-चार महीनों में गिरता है। बाकी समय खेत सूखे रहते हैं और भूजल पर निर्भर रहते हैं, जो दिन-ब-दिन नीचे खिसक रहा है। नीति आयोग की रिपोर्ट 2023 बताती है कि 2030 तक देश की 40 प्रतिशत आबादी को पीने के पानी तक सीमित पहुंच रह जाएगी। ऐसे में कृषि को पानी का विवेकपूर्ण उपयोग सिखाना होगा।
माइक्रो इरिगेशन से पानी की 30 से 70 प्रतिशत तक बचत होती है। भारत सरकार के अनुसार यदि देश की 50 प्रतिशत खेती इस पद्धति को अपनाएं तो लगभग 65 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की सालाना बचत संभव है। केवल जल ही नहीं, इससे उर्वरकों और बिजली की भी बचत होती है। जब पानी सीधा जड़ तक जाता है, तो खाद भी उसी माध्यम से जड़ों में मिलाई जा सकती है जिससे ‘फर्टीगेशन’ के माध्यम से 30 से 40 प्रतिशत तक उर्वरक की बचत होती है। बिजली की खपत भी घटती है क्योंकि पंपों को लंबे समय तक चलाने की आवश्यकता नहीं होती। इसके अतिरिक्त खरपतवार और फंगल रोगों की आशंका कम होती है क्योंकि खेत के सभी हिस्सों में नमी नहीं फैलती।
इस तकनीक का एक और महत्वपूर्ण पहलू है उत्पादन में बढ़ोतरी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के शोध बताते हैं कि ड्रिप इरिगेशन से टमाटर, मिर्च, अंगूर, केला, कपास जैसी फसलों की उपज में 20 से 90 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की गई है। इसका सीधा लाभ किसान की आय पर पड़ता है, जो प्रधानमंत्री की आय दोगुनी करने की परिकल्पना के अनुरूप है। बावजूद इसके, भारत में केवल 12 प्रतिशत कृषि भूमि ही माइक्रो इरिगेशन के अंतर्गत आती है। यह आंकड़ा खुद ही स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है।
बाधाएं भी अनेक हैं। सबसे बड़ी चुनौती है इसकी प्रारंभिक लागत। एक हेक्टेयर भूमि पर ड्रिप प्रणाली लगाने में 30,000 से 70,000 रूपए तक खर्च आता है जो सीमांत और लघु किसानों के लिए संभव नहीं। सरकार ‘प्रति बूंद अधिक फसल’ योजना के तहत अनुदान देती है, लेकिन यह प्रक्रिया जटिल, कागजी और भेदभावपूर्ण मानी जाती है। वहीं, बहुत से किसानों को इस तकनीक की सही जानकारी नहीं है। उन्हें न मरम्मत आती है, न फिल्टरिंग की समझ। स्थानीय स्तर पर तकनीकी सहयोग की भारी कमी है। इसके अलावा कई ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां पानी का स्रोत ही नहीं है, वहां माइक्रो इरिगेशन की उपयोगिता सीमित रह जाती है। इसलिए यह आवश्यक है कि वर्षा जल संग्रहण, तालाब निर्माण, बंधा प्रणाली और चेक डैम जैसी संरचनाओं को गांवों में प्राथमिकता दी जाए ताकि माइक्रो इरिगेशन को स्थायी आधार मिल सके।
अगर भारत को जल संकट से उबारना है और कृषि को सतत बनाना है तो नीति, प्रोत्साहन और व्यवहार में एक ठोस परिवर्तन की आवश्यकता है। किसानों को सूचनाएं मोबाइल ऐप्स, रेडियो और पंचायतों के माध्यम से सरल भाषा में दी जानी चाहिए। कृषि विज्ञान केंद्रों को माइक्रो इरिगेशन पर मासिक प्रशिक्षण शिविर अनिवार्य रूप से चलाने चाहिए। इसके साथ ही फसलों के चयन में बदलाव आवश्यक है। अत्यधिक जल खपत करने वाली फसलें जैसे धान और गन्ना की जगह कम पानी में उगने वाली फसलें जैसे बाजरा, ज्वार, दालें और सब्जियों को प्रोत्साहित किया जाए। किसानों को फसल विविधीकरण की तरफ प्रेरित करना ही दीर्घकालिक समाधान है।
बूंदों की खेती कोई नवीन विचार नहीं है बल्कि एक परख चुकी तकनीक है जिसे इजराइल जैसे रेगिस्तानी देशों ने अपनाकर खेती को लाभकारी और जल-संरक्षण युक्त बना दिया है। भारत के लिए यह कोई विकल्प नहीं बल्कि आवश्यक विकल्प है। हमें हर खेत तक सिंचाई पहुँचाने के पुराने संकल्प को अब ‘हर बूंद से हर खेत तक’ की नई सोच में बदलना होगा। जब पानी की हर बूंद को बचाया जाएगा, तभी धरती की हर नस में हरियाली बहेगी। इसलिए अब समय आ गया है कि हम केवल नारे न दें, बल्कि ठोस निर्णय लें। क्यों न हम हर खेत में बूंदों से हरियाली बो दें, ताकि भविष्य की पीढ़ियों को पानी और अन्न दोनों की कमी न हो। यही कृषि की सतत यात्रा की शुरुआत होगी – एक बूंद से।
सचिन त्रिपाठी