हताश-निराश विपक्ष को ममता से आस क्यों

राजेश कुमार पासी

कभी-कभी हम ऐसी समस्या से घिर जाते हैं जिससे निकलने का कोई अच्छा रास्ता नहीं सूझता तो हम हताश होकर एक नए रास्ते पर चलने लगते हैं। हालात कैसे भी हों लेकिन बिना सोचे समझे उठाया हुआ कदम नुकसान पहुंचाता है । आज हमारे देश का विपक्ष बहुत हताश और निराश हो चुका है। पिछले दस सालों से वो मोदी से लड़ रहा है लेकिन उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाया है ।  4 जून को जब लोकसभा के चुनाव परिणाम आये तो विपक्ष में खुशी की लहर दौड़ गई थी क्योंकि भाजपा को अकेले अपने दम पर बहुमत नहीं मिला था। भाजपा बहुमत से 32 सीटें पीछे रह गई थी। विपक्ष को लगा कि अब मोदी का प्रधानमंत्री बनना मुश्किल है क्योंकि उन्होंने कभी  अल्पमत की सरकार नहीं चलाई है। उन्हें दूसरी उम्मीद यह थी कि एनडीए के घटक दल मोदी के अलावा भाजपा के किसी दूसरे नेता को प्रधानमंत्री बनाना पसंद करेंगे । विपक्ष की उम्मीदों के विपरीत मोदी तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बन गए और किसी भी घटक दल ने उनको प्रधानमंत्री बनाने का विरोध नहीं किया बल्कि पूरे एनडीए ने उन्हें अपना नेता मान लिया। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद विपक्ष में यह उम्मीद पैदा हो गई कि जब सरकार का गठन होगा तो मंत्री पद के लिए एनडीए के घटक दलों में जबरदस्त संघर्ष होगा । उन्हें लगा कि भाजपा कमजोर हो गई है तो घटक दल मोदी को ब्लैकमेल करके ज्यादा से ज्यादा मंत्रीपद लेने में सफल हो जाएंगे । विपक्ष की उम्मीदों के विपरीत कैबिनेट में सभी महत्वपूर्ण मंत्रालय भाजपा ने अपने पास रख लिए और घटक दलों ने कोई एतराज भी जाहिर नहीं किया। विपक्ष को नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू से बहुत उम्मीद थी कि वो मोदी को फ्रीहैण्ड नहीं देंगे और सरकार में दखलंदाजी जरूर करेंगे। सरकार को बने 6 महीने बीत गए हैं लेकिन मोदी सरकार वैसे ही चल रही है जैसे पिछले दस सालों से चल रही थी। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू पूरी तरह से मोदी के समर्थन में खड़े दिखाई दे रहे हैं। 6 महीने जैसे सरकार चली है, उसको देखकर ऐसा लग ही नहीं रहा है कि ये गठबंधन की सरकार है। मोदी सरकार ऐसा आभास पैदा कर रही है जैसे वो एक पार्टी की बहुमत वाली सरकार है। जो विपक्ष इस सरकार के जल्दी गिरने की संभावना देख रहा था, वो अब बहुत निराश हो चुका है क्योंकि उसे अहसास हो गया है कि ये सरकार पांच साल तक कहीं जाने वाली नहीं है।

               लोकसभा में कांग्रेस की सीटें 54 से बढ़कर 99 हो गई हैं तो राहुल गांधी आत्मविश्वास से भरे हुए दिखाई दे रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि बेशक इस बार मोदी सरकार बनाने में कामयाब हो गए हैं लेकिन अब वो दोबारा मोदी को सत्ता में नहीं आने देंगे। लोकसभा के गठन के बाद संसद के मानसून सत्र में राहुल गांधी बेहद आक्रामक अंदाज में दिखाई दे रहे थे। उनके अलावा विपक्ष के दूसरे दल भी भाजपा पर जबरदस्त तरीके से हमलावर थे क्योंकि उन्हें लग रहा था कि अब भाजपा पहले से बहुत कमजोर हो गई है। शीतकालीन सत्र में तस्वीर बदल चुकी है क्योंकि हरियाणा और महाराष्ट्र में बड़ी जीत हासिल करके भाजपा पूरे आत्मविश्वास से संसद में आई है। दूसरी तरफ इन दो राज्यों में मिली करारी हार ने विपक्ष को पस्त कर दिया है। अब विपक्ष में भाजपा से लड़ने का माद्दा ही नहीं बचा है। अब उसकी प्राथमिकता भाजपा से लड़ने की दिखाई नहीं दे रही है। अब विपक्ष  पहले यह फैसला करना चाहता है कि भाजपा से किसके नेतृत्व में लड़ा जाएगा । ऐसा लग रहा है कि विपक्षी दलों को यह अहसास हो गया है कि वो राहुल गांधी के नेतृत्व में मोदी का मुकाबला नहीं कर सकते। वैसे देखा जाए तो विपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में मोदी का मुकाबला कर ही नहीं रहा था। विपक्ष ने राहुल गांधी को कभी अपना नेता नहीं माना है, राहुल गांधी सिर्फ कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे । इंडिया गठबंधन ने पूरे चुनाव के दौरान किसी को अपना नेता नहीं माना था । वास्तव में इंडिया गठबंधन को अपनी जीत पक्की लग रही थी। उसके नेताओं को लग रहा था कि गठबंधन का नेता ही प्रधानमंत्री का स्वाभाविक उम्मीदवार होगा इसलिये वो किसी को नेता मानने को तैयार नहीं हुए। गठबंधन के नेता चाहते थे कि प्रधानमंत्री का फैसला चुनाव परिणाम आने के बाद किया जाए क्योंकि प्रधानमंत्री पद के लिए घटक दलों में चुनाव से पहले ही खींचतान शुरू हो जाती । तीसरी बार मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो गठबंधन के नेता की जरूरत खत्म हो गई । कांग्रेस को लोकसभा में 99 सीटें मिली तो राहुल गांधी को विपक्ष के नेता का पद मिल गया । राहुल गांधी जब विपक्ष के नेता बन गए तो कांग्रेस ने मान लिया कि अब राहुल गांधी पूरे विपक्ष के नेता बन गए हैं। मानसून सत्र में विपक्ष अपनी बढ़ी हुई संख्या से खुश था इसलिए नेता का सवाल ही खड़ा नहीं हुआ । शीतकालीन सत्र में दो राज्यों में मिली बड़ी जीत वाली उत्साहित भाजपा सामने खड़ी है और विपक्ष की जीत का नशा काफूर हो चुका है। विपक्ष इन हालातों के लिए कांग्रेस को दोष दे रहा है इसलिए उसे भाजपा से लड़ने के लिए नए नेता की जरूरत महसूस हो रही है। 

             ममता बनर्जी ने खुद को गठबंधन के नेता के रूप में प्रस्तुत कर दिया है। ममता बनर्जी का कहना है कि उन्होंने ही इंडिया गठबंधन को खड़ा किया था और वो उसका नेतृत्व करने को तैयार हैं । देखा जाये तो यह पूरा सच नहीं है बल्कि इस गठबंधन को खड़ा करने का श्रेय नीतीश कुमार को दिया जाना चाहिए । नीतीश कुमार ने ही कांग्रेस को साथ लेकर नया गठबंधन बनाना शुरू किया था । कई विपक्षी दल कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करना चाहते थे लेकिन उनकी कोशिश के कारण वो कांग्रेस के साथ आने को तैयार हो गए । अब सवाल पैदा होता है कि अगर ममता बनर्जी को गठबंधन का नेता बना दिया जाता है तो क्या गठबंधन मजबूत हो जाएगा।  गठबंधन के नेता के रूप में ममता बनर्जी का  समाजवादी पार्टी, एनसीपी, राजद और आम आदमी पार्टी ने  समर्थन कर दिया है।   कांग्रेस के लिए यह अच्छी खबर नहीं है कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के बावजूद एक राज्य तक सीमित तृणमूल कांग्रेस की नेता को विपक्षी दल राहुल गांधी से बड़ी नेता मानते हैं । वास्तव में इन नेताओं का ममता बनर्जी को समर्थन राहुल गांधी का विरोध है। उन्हें लगता है कि ममता बनर्जी जमीन से संघर्ष करके बंगाल की सर्वोच्च सत्ता पर बैठी हैं। दूसरी तरफ उन्हें यह भी दिखाई दे रहा है कि ममता बनर्जी ने बंगाल में भाजपा को सत्ता से बाहर रखा है और इन चुनावों में उसकी लोकसभा की सीटें भी कम कर दी हैं। विपक्षी नेताओं को यह नहीं दिखाई दे रहा है कि ममता बनर्जी और उनकी पार्टी सिर्फ एक राज्य तक सीमित हैं। अगर ममता बनर्जी ने भाजपा को बंगाल में रोका है तो स्टालिन ने तमिलनाडु और पिनराई विजयन ने केरल में भाजपा को रोका है। क्या विपक्ष उन्हें अपना नेता मानने को तैयार है। दूसरी बात यह है कि ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं इसलिये वो संसद में विपक्ष का नेतृत्व नहीं कर सकती । वो बंगाल में बैठकर कैसे गठबंधन का नेतृत्व करेंगी । देखा जाए तो गठबंधन का नेता ही गठबंधन के प्रधानमंत्री पद का दावेदार होगा तो विपक्ष यह मानता है कि 20-30 सीटें लाने वाली नेता प्रधानमंत्री बनेंगी। यह ठीक है कि ममता बनर्जी पिछले 13 सालों से बंगाल की सत्ता पर काबिज हैं लेकिन बंगाल में उन्होंने ऐसा क्या कमाल किया है जो उन्हें गठबंधन प्रधानमंत्री का पद देना चाहता है। 

               वास्तव में गठबंधन के नेता ममता बनर्जी का समर्थन नहीं कर रहे हैं बल्कि वो राहुल गांधी का विरोध कर रहे हैं। कोई भी नेता ममता बनर्जी को अपना नेता नहीं बनाना चाहता बल्कि वो राहुल गांधी को हटाकर खुद नेता बनना चाहते हैं। ममता बनर्जी ने अपना नाम खुद आगे कर दिया है तो उनका समर्थन कर दिया गया है लेकिन जब गठबंधन का नेता चुनने की बारी आएगी तो यही नेता अपना नाम आगे कर देंगे । राहुल गांधी का विरोध अपनी जगह सही हो सकता है लेकिन ममता बनर्जी ने बंगाल को जिस हालत में पहुंचा दिया है उनसे विपक्ष को उम्मीद नहीं लगानी चाहिए । विपक्ष को बताना चाहिए कि ममता बनर्जी बंगाल को जिस दिशा में ले जा रही हैं क्या देश को भी उसी दिशा में विपक्ष ले जाना चाहता है । फिर सवाल यह भी है कि सौ सीटें जीतने वाली कांग्रेस ममता बनर्जी का समर्थन क्यों करेगी । गठबंधन के चलने की पहली शर्त ही यही है कि उसका नेतृत्व सबसे बड़ी पार्टी करे । जहां तृणमूल कांग्रेस सिर्फ बंगाल तक सीमित है तो वहीं दूसरी तरफ भाजपा के बाद सिर्फ कांग्रेस ही एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है । गठबंधन की बुरी हालत के लिए सिर्फ राहुल गांधी दोषी नहीं हैं बल्कि विपक्ष में कोई और नेता भी मोदी के मुकाबले खड़ा दिखाई नहीं दे रहा है । राहुल गांधी में कमियां हैं लेकिन वो कांग्रेस के सर्वमान्य नेता हैं । विपक्ष के दूसरे नेताओं का प्रभाव एक या दो राज्यों तक सीमित है लेकिन राहुल गांधी आज भी पूरे देश में अपना प्रभाव रखते हैं । राहुल गांधी या कांग्रेस को छोड़कर विपक्ष आगे नहीं बढ़ सकता है । विपक्ष को यह विचार करना है कि वो राहुल गांधी और कांग्रेस को साथ लेकर कैसे आगे बढ़े और मोदी का मुकाबला करें । 

राजेश कुमार पासी

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