
—विनय कुमार विनायक
यदुपति कृष्ण की वही गति थी
जैसी है पिछड़ों की आज
महा मनस्वी यती-तपी थे,
गीता के अमृत वाणी थे,
किन्तु तुम्हारी घृणा भाव से,
वे भी पानी-पानी थे!
तुममें से किसी सहृदय ने
उनका अग्रपूजन किया था
लगे हाथ तुमने ही
उन्हें सौ-सौ गालियां दी थी!
आखिर क्या करते,
करने चले थे सम्मानित
स्वदलित पिछड़े बांधवों को
पर क्या स्वयं अपमानित हो मरते?
आखिर क्या करते?
समझौता किया तुमसे
और जिल्लत भरी जिंदगी से
उन्होंने निजात पायी थी!
पिछड़ों के मसीहा को
तुमने ऐसे सस्ते में अपनाया,
तत्कालीन तमगा देकर
उन्हें अवतारी बनाया!
प्रत्युपकार में तुमने
व्याज सहित वसूला
वैश्य,शुद्र, नारियों को
पाप योनय: कहलाकर
उनके ही श्री मुख से
‘मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य
ये अपिस्यु:पापयोन्य:/
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेअपि
यान्ति परां गतिम्’।।भ.गी.9/32