डॉ. रमेश ठाकुर
लोकतांत्रिक देश में चुनाव की पवित्रता उस बुनियादी भरोसे पर टिकी होती है जहां केवल वैध नागरिक वोट डालते हैं लेकिन जब इस भरोसे की नींव मतदाता सूची ही अविश्वसनीय हो जाए तो पूरा लोकतांत्रिक ढांचा सवालों के घेरे में आ जाता है। बिहार को लेकर हाल ही में सामने आई एक जनसांख्यिकीय रिपोर्ट ने इसी आशंका को चेताया है। रिपोर्ट में यह संकेत मिला है कि राज्य की मतदाता सूची में लाखों ऐसे नाम दर्ज हैं जिनका कोई जनसांख्यिकीय आधार नहीं है। ये न केवल प्रशासनिक उदासीनता का मामला है, बल्कि संभावित रूप से लोकतंत्र की निष्पक्षता पर गंभीर संकट की चेतावनी भी है।
डॉ. विद्यु शेखर और डॉ. मिलन कुमार द्वारा तैयार की गई ‘जनसांख्यिकीय पुनर्निर्माण और मतदाता सूची में फुलाव: बिहार में वैध मतदाता आधार का अनुमान’ रिपोर्ट, विभिन्न सरकारी स्रोतों जिसमें 2011 की जनगणना, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े, सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम, राज्य आर्थिक सर्वेक्षण और प्रवासन के आधिकारिक आंकड़ों को शामिल किया गया है। इस अध्ययन में इन आंकड़ों के आधार पर बिहार में संभावित वैध मतदाताओं की संख्या का अनुमान लगाया गया है। चुनाव आयोग के अनुसार, 2024 के चुनावों के लिए बिहार में कुल 7.89 करोड़ पंजीकृत मतदाता हैं लेकिन जनगणना और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों पर आधारित इस शोध का अनुमान है कि वैध मतदाताओं की संख्या केवल 7.12 करोड़ होनी चाहिए। इसका सीधा अर्थ है कि 77 लाख नाम ऐसे हैं जिन्हें साफ-सुथरी और अद्यतन मतदाता सूची में जगह नहीं मिलनी चाहिए थी। यह फासला न तो सामान्य माना जा सकता है और न ही इसे मात्र तकनीकी चूक करार दिया जा सकता है। 77 लाख का यह अंतर राज्य की कुल मतदाता संख्या का लगभग 10 प्रतिशत है जो किसी भी चुनाव के परिणाम को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त है।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह विसंगति राज्य के सभी हिस्सों में समान नहीं है, कुछ जिले तो ऐसे हैं जहां यह अंतर बेहद गंभीर स्तर तक पहुंच गया है। उदाहरण के लिए, दरभंगा में 21.5 प्रतिशत, मधुबनी में 21.4 प्रतिशत, मुज़फ्फरपुर में 11.9 प्रतिशत और राजधानी पटना में 11.2 प्रतिशत अतिरिक्त मतदाताओं के नाम दर्ज हैं। मात्र तीन जिलों मधुबनी, दरभंगा और मुज़फ्फरपुर में ही लगभग 15 लाख ऐसे मतदाताओं के नाम दर्ज हैं जिन्हें जनसांख्यिकीय तौर पर मौजूद नहीं होना चाहिए। कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि और मतदाता वृद्धि के आंकड़े एक-दूसरे से बिलकुल मेल नहीं खाते। उदाहरण के तौर पर शेखपुरा जिले की जनसंख्या 2011 से 2024 के बीच 2.22 प्रतिशत घटी है लेकिन मतदाताओं की संख्या 11.7 प्रतिशत बढ़ गई। इसी तरह सीतामढ़ी की जनसंख्या में 11.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि मतदाताओं की संख्या 29.3 प्रतिशत बढ़ गई। ऐसी विसंगतियाँ किसी स्वाभाविक जनसंख्या परिवर्तन का परिणाम नहीं हो सकतीं। ये आंकड़े या तो प्रशासनिक लापरवाही की ओर इशारा करते हैं या जानबूझकर किए गए हेरफेर की ओर।
दरअसल बिहार में मतदाता सूची से नाम हटाने की प्रक्रिया काफी कमजोर और ढीली है। यह काम ज़्यादातर लोगों द्वारा खुद फॉर्म भरने और फील्ड वेरिफिकेशन पर निर्भर करता है जो अक्सर अधूरा या अनियमित होता है। कई बार इस तरह की खबरें आती हैं कि कई शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों में घर-घर जाकर या तो अधूरी जांच होती है या होती ही नहीं है। इसके अलावा मतदाता सूची को मृत्यु पंजीकरण या प्रवासन से जुड़े सरकारी आंकड़ों से जोड़ने की कोई तात्कालिक व्यवस्था नहीं है। नतीजतन जो लोग गुजर चुके हैं या राज्य से बाहर चले गए हैं, उनके नाम भी वर्षों तक सूची में बने रहते हैं।
मतदाता सूची की इन विसंगतियों का कुछ दलों को सीधा फायदा होता है। बिहार की राजनीति लंबे समय से पहचान आधारित और जातीय वोट बैंक पर टिकी रही है। ऐसे में जब मतदाता सूची में संदिग्ध या फर्जी नाम बने रहते हैं तो ये पार्टियाँ इसे अपने लिए ‘बैकडोर वोटिंग’ और चुनावी धांधली का जरिया बना लेती हैं। जब कभी सूची की सफाई की माँग उठती है, तो इसे “अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने” जैसा भावनात्मक मुद्दा बनाकर दबा दिया जाता है। बिहार की तरह पश्चिम बंगाल में भी यही पैटर्न दिखता है। सीमावर्ती इलाकों में घुसपैठ की आशंका के चलते वहां मतदाता सूची को लेकर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं मगर तृणमूल कांग्रेस अक्सर इन जिलों में गहन जांच का विरोध करती रही है। यह भी उसी रणनीति का हिस्सा लगता है, जैसा कि बिहार में देखा गया। वहीं असम में एनआरसी प्रक्रिया से यह तो साबित हुआ ही कि अवैध प्रवासियों की पहचान मुश्किल है, लेकिन यह भी दिखा कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो मतदाता सूची को सुधारना नामुमकिन नहीं है।
इस पूरे मामले का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि फर्जी मतदाताओं की इतनी बड़ी संख्या सीधे चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकती है। 2020 के विधानसभा चुनावों में बिहार की 243 सीटों में से 90 सीटें ऐसी थीं जहां जीत-हार का अंतर 10,000 से कम वोटों का था। अब अगर हर विधानसभा क्षेत्र में औसतन 25,000 से 50,000 तक फर्जी नाम दर्ज हैं तो यह निष्पक्ष चुनाव की सोच को ही सवालों के घेरे में डाल देता है। ऐसे में यह पूछना बिल्कुल जायज़ है कि क्या मतदाता सूची में मौजूद ये फर्जी नाम लोकतंत्र की आत्मा को भीतर से खोखला नहीं कर रहे? भले ही यह रिपोर्ट बिहार तक सीमित है लेकिन इसका संदेश पूरे देश के लिए बेहद अहम है। जब एक ऐसा राज्य,जहां आधार लिंकिंग, वोटर आईडी और मतदाता सूची संशोधन जैसी कोशिशें हो चुकी हैं, वहां इतनी बड़ी गड़बड़ी पाई जाती है तो उन राज्यों का क्या हाल होगा जहां पारदर्शिता और निगरानी और भी कमज़ोर है?
यह शोध रिपोर्ट महज़ आंकड़ों का विश्लेषण नहीं है, बल्कि एक गंभीर लोकतांत्रिक चेतावनी है। हर फर्जी नाम, हर मृत या पलायन कर चुके व्यक्ति का नाम जो मतदाता सूची में बना हुआ है, लोकतंत्र को हाईजैक करने का औजार है। यह किसी नकली नोट से भी ज़्यादा खतरनाक है, क्योंकि इसका नुकसान सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और संस्थागत है जो एक पूरे राज्य का प्रतिनिधित्व बदल सकता है।
बिहार की मतदाता सूची में दर्ज ये 77 लाख फर्जी नाम सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही नहीं बल्कि एक लोकतांत्रिक संकट की दस्तक हैं। यदि मतदाता सूची ही अविश्वसनीय हो जाए तो फिर चुनाव की पवित्रता, जनादेश की वैधता और शासन की नैतिक वैधता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। यह न केवल एक राज्य का संकट है बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए चेतावनी है कि लोकतंत्र की रीढ़ की रक्षा अब प्राथमिकता बननी चाहिए। इस संदर्भ में, चुनाव आयोग द्वारा बिहार में चलाया जा रहा स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन एक महत्वपूर्ण और समयोचित हस्तक्षेप है। इस पहल को केवल आँकड़ों की समीक्षा भर न मानकर एक लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व की पूर्ति के रूप में देखा जाना चाहिए। आयोग को चाहिए कि वह इस प्रक्रिया को और व्यापक बनाए, तकनीकी और विधिक उपायों से इसे मजबूत करे और राज्य सरकारों के सहयोग से हर मतदाता सूची को अधिक पारदर्शी, त्रुटिरहित और विश्वसनीय बनाए। बिहार से उठी यह आवाज़ देशभर में मतदाता सूची की शुचिता और पारदर्शिता की माँग को नई ताक़त देती है क्योंकि अगर मतदाता ही नकली हो गया, तो फिर लोकतंत्र असली कैसे रह पाएगा?
डॉ. रमेश ठाकुर