अन्ना -बाबा का यू टर्न उनकी विश्वसनीयता घटा रहा है ?

anna and mamtaइक़बाल हिंदुस्तानी

 

राजनीतिक अनुभव की कमी बार बार उनका इस्तेमाल कराती है!

    शुरू में नज़र तो यह आ रहा था कि योगगुरू बाबा रामदेव और सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनाये जा रहे काहिल रूख़ के खिलाफ एकजुट हो गये हैं। एक दिन के साझा अनशन का हालांकि प्रतीकात्मक  ही महत्व होता है लेकिन पहले बाबा का रामलीला मैदान में शुरू किया गया आंदोलन सरकार ने जिस तरह से कुचलकर उनके खिलाफ कर चोरी का आरोप लगाकर जांच का शिकंजा कसा था उससे लगता था कि अब बाबा अपने बिछाये जाल में खुद फंसकर रह जायेंगे लेकिन जिस तरह से समय ने करवट ली और सरकार एक के बाद एक घोटाले में फंसी और राज्यों से लेकर नगर निगमों के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी उससे चाणक्य के नियमानुसार दुश्मन पर तब हमला करो जब वो चारों तरफ से पहले ही घिरा हो की कहावत को चरितार्थ करते हुए बाबा रामदेव ने भाजपा और मोदी का खुले आम समर्थन करके यूपीए सरकार पर निर्णायक धावा बोल दिया था लेकिन अब ऐसा लगता है कि बाबा की कुछ मांगों को जैसा का तैसा ना मानने पर बाबा भाजपा से कुछ खफा होते जा रहे हैं।

   उनका यह बयान उनकी मोदी से नाराज़गी की तरफ ही इशारा करता है कि वे भाजपा नेतृत्व के गुलाम नहीं हैं। वे उनका समर्थन बिना शर्त नहीं कर सकते । ऐसा लगता है कि बाबा के चहेते कुछ लोगों को भाजपा ने लोकसभा टिकट ना देकर बाबा को यू टर्न लेने के लिये मजबूर कर दिया है। विशेषरूप से बाबा बिजनौर सीट से अपने चहेते स्वामी ओमवेश को भाजपा का टिकट दिलाना चाहते थे, ऐसे ही उत्तराखंड खासतौर पर हरिद्वार सीट पर भी बाबा की पसंद के प्रत्याशी को भाजपा का टिकट नहीं मिला है लेकिन बाबा यहां भूल गये कि एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा की अपनी मजबूरी और कमज़ोरियां हैं जिससे वह चाहकर भी बाबा की हर मांग को पूरा नहीं कर सकती क्योंकि ऐसा करने पर उसके कार्यकर्ताओं में रोष और विद्रोह पैदा हो जायेगा और उसको संभालना भाजपा के लिये असंभव हो सकता है।

   बाबा की सारे कर ख़त्म कर बैंकिंग टैक्स और बड़े नोट बंद करने वाली बात भी उनके दबाव देने पर मोदी ने  बेमन से बिना आर्थिक विशेषज्ञों की अंतिम राय जाने बाबा की नाराज़गी से बचने के लिये मजबूरी में मानने का साझा सभा में ऐलान किया था जबकि सरकार बनने पर इस मांग को लागू करना टेढ़ी खीर साबित हो सकती है। उधर अन्ना हज़ारे का साथ जब से आम आदमी पार्टी बनाने को लेकर अरविंद केजरीवाल ने छोड़ा है तब से अन्ना एक तरह से अंडरग्राउंड हो गये हैं। पहले उन्होंने कांग्रेस के इशारे पर बोगस लोकपाल पास कराने के लिये एक बार फिर अनशन का सुनियोजित प्रोग्राम किया। इसके बाद जब केजरीवाल ने उनको उलाहना दिया कि इस सरकारी लोकपाल से चूहां भी नहीं पकड़ा जा सकेगा तो अन्ना ने दावा किया कि इससे शेर को भी पकड़ा जा सकता है।

   अन्ना ने यू टर्न लेकर जनलोकपाल की बजाये कांग्रेसी दिखावटी लोकपाल पास कराने का श्रेय तो ले लिया लेकिन इससे अन्ना की छवि पहले से और ख़राब हुयी और उन पर आरोप लगा कि वे यूपीए सरकार से मिल गये हैं। इसके बाद इतना ही काफी नहीं था कि अन्ना जो राजनीतिक दल बनाने से मना करते थे और केजरीवाल से इसी बात पर दूरी इतनी बना ली थी कि उनके दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं गये और किरण बेदी व पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह पर पूरा विश्वास करते रहे। इसके बाद बेदी और सिंह भी उनका साथ छोड़कर भाजपा में चले गये तो अन्ना मैदान में अकेले खड़े नज़र आये। शायद इतना कुछ भी कम था जो अन्ना ने केजरीवाल को नीचा दिखाने के लिये ईर्ष्या के भाव से ओतप्रोत होकर महिलाओं के लिये सबसे असुरक्षित बन चुके बंगाल की सीएम ममता बनर्जी का सपोर्ट करने का ऐलान कर दिया।

   उनके समर्थन में टीवी पर अन्ना का एक विज्ञापन भी कई दिन तक चला। इसके बाद बारी आई ममता को पीएम पद का प्रत्याशी बनाने को दिल्ली में साझा रैली की। अन्ना को शायद राजनीतिक अनुभव की कमी की वजह से यह अहसास नहीं था कि ममता का जादू केवल बंगाल में चलता है और उनके नाम पर बिना खाना खर्च और तरह तरह के प्रलोभन दिये दिल्ली रैली में लाखों तो क्या हज़ारों की भीड़ भी नहीं आयेगी। उधर ममता को यह खुशफहमी थी कि अन्ना का नाम ही काफी है और भीड़ उनके नाम से अपने आप एकत्र हो जायेगी। बहरहाल ममता और अन्ना दोनों की इस रैली के असफल होने पर पोल भी खुल गयी और अन्ना के रैली में आने से एनवक्त पर मना करने पर यह भी साबित हो गया कि अब अन्ना का खेल भी ख़त्म हो चुका है।

   कहने का मतलब यह है कि एक दो सप्ताह भूखे रहकर कोई अनशन या आंदोलन सफल बना देना अलग बात है और राजनीतिक फैसला करना बिल्कुल अलग बात है। ऐसा लगता है कि बाबा और अन्ना का आंदोलन कांग्रेस को सत्ता से हटाने के बाद भी ख़त्म नहीं होगा यह बात कम लोगों को पता है। अन्ना व्यवस्था बदलने का आंदोलन चला रहे हैं। उनको चुनाव नहीं लड़ना, उनके पास धन और सम्पत्ति नहीं है और उनका परिवार भी नहीं है जिससे उनपर किसी तरह का आरोप चस्पा नहीं हो पा रहा है। अन्ना का अब तक  का जीवन ईमानदार और संघर्षशील रहा है। अन्ना ने महाराष्ट्र मंे शिवसेना सरकार के रहते आध दर्जन भ्रष्ट मंत्रियों को इस्तीफा देने को मजबूर किया है जिससे शिवसेना नेता संसद में बेशर्मी से कह रहे थे कि लोकपाल की कोई ज़रूरत नहीं है। उधर लालू का यह कहना भी सही था कि लोकपाल उनके लिये डेथ वारंट है।

   मुलायम का डर भी सही है कि अगर लोकपाल पास हुआ तो उनको पुलिस गिरफ़तार कर लेगी। भ्रष्ट नेताओं को अगर कमज़ोर लोकपाल से इतना डर लग रहा है तो समझा जा सकता है कि मज़बूत जनलोकपाल से भ्रष्टाचारी कितना घबरा रहे होंगे। बाबा रामदेव ने भी अपने एक दिन के दिल्ली अनशन के दौरान पुलिस के गिरफतार करने के प्रयास पर महिला वस्त्र पहनकर चुपके भागने के एक गलत फैसले से यू टर्न लेकर अपनी राजनीतिक अनुभवहीनता का परिचय दिया था और अनुमान यह लगाया जा रहा है कि भाजपा के सत्ता में आने पर जिस तरह से जीत के लिये मोदी ने भ्रष्ट और दलबदलू नेताओं को थोक में टिकट दिलाये हैं इस से बनने वाली सरकार से भी अन्ना और बाबा बहुत जल्दी निराश हो सकते हैं जिससे सत्ता की बजाये व्यवस्था बदलने की बार बार मांग करने वाले बाबा और अन्ना एक बार पिफर से नई बनने वाली सरकार के खिलाफ यू टर्न लेकर आंदोलन करते नज़र आ सकते हैं।

 आज ये दीवार पर्दे की तरह हिलने लगी,

  शर्त लेकिन थी कि बुनियाद हिलनी चाहिये।

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

1 COMMENT

  1. १२।०३।२०१४ कोममता बनर्जी के साथ साथ बहुत लोगों की अन्ना हजारे के बारे में गलतफहमियां दूर हो गयी होंगी। ममता और अन्य लोगों को सोचना चाहिये कि जो अन्ना उस अरविंद के नहीं हुये,जो आज भी उनको अपना गुरु मानता है और पिता तुल्य समझता है ,तो वे दूसरे के कैसे हो सकते हैं? अब यह बात लोगों को समझ जाना चाहिये कि अरविंद ने अन्ना को धोखा नहीं दिया,बल्कि अन्ना ने अरविंद को धोखा दिया। आज भी आम आदमी पार्टी को अरविंद का अलिखित आदेश है कि कोई भी किसी भी मंच पर या किसी भी मेडीया में अन्ना के विरुद्ध न एक शब्द बोल सकता है और न लिख सकता है। ऐसे राम लीला मैदान के इस फ्लाप शो से एक अन्य बात भी उभर कर आई है। उन नेताओं के चेहरे भी बेनकाब हो गये हैं ,जो इसको एक परोसी हुई थाली की तरह इस्तेमाल करना चाहते थे। क्म से क्म उनके हजारों समर्थक तो वहां होने चाहिये थे।

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