एक पिता, जिसकी 15 साल की बेटी को एक रोड एक्सीडेंट के बाद डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया और फिर उन्होंने फैसला किया कि वह उसकी आंखें, किडनी और लीवर किसी जरूरतमंद को दान कर देंगे.9 अगस्त शाम 4 बजे के आसपास की बात है. मैं रोज की तरह अपनी दुकान पर बैठा था कि वो मनहूस फोन आया, जिसने हमारी दुनिया उजाड़ दी. उस दिन सुबह भी रोज की तरह ही मैं काम पर जाने के लिए तैयार हो रहा था कि बिटिया आकर मुझसे लिपट गई. यह उसका रोज का मामूल था. रोज सुबह वो ऐसे ही मुझे विदा करती, लेकिन उस दिन जब मैंने उसे गले लगाया तो पता नहीं था कि मैं आखिरी बार उसके नाजुक हाथों को अपने हाथों में ले रहा हूं, आखिरी बार उसके गाल थपथपा रहा हूं.
उस दिन दुकान पर व्यस्तता कुछ ज्यादा थी. दो बार फोन की घंटी बजने पर मैंने फोन उठाया तो कुछ सेकेंड तो यह समझने में लगे कि बात क्या है. ऐसा लगा, जैसे दूसरी ओर से आवाज मुझे तक पहुंच ही नहीं पा रही. कान सांय-सांय कर रहा हो. दिमाग की नसें सुन्न हो गई हों.
खबर आई थी कि अंजलि का एक्सीडेंट हो गया है. वो अस्पताल में है. मैं भागा-भागा पहुंचा, पूरे रास्ते खुद से बात करता, खुद को यकीन दिलाता कि मामूली चोटें होंगी, खरोंच होगी, हड्डी टूटी होगी, प्लास्टर बंधेगा, फिर खुल जाएगा. सब ठीक होगा. जब मन खुद को इतनी दिलासा दे रहा हो कि सब ठीक होगा तो अपने ही मन का कोई भीतरी कोना यह जान रहा होता है कि सब ठीक नहीं है.
अस्पताल पहुंचकर ही समझ आया कि सबकुछ ठीक नहीं था. अंजलि बेहोश थी, बाहरी खरोंचें, चोटें कुछ ज्यादा नहीं था. माथे पर हल्का सा खून बहा था, जो अब सूखकर पपड़ी बन चुका था. घुटने और कोहनी में कुछ मामूली चोटें थीं. मैं उससे कहता रहा कि देख, तुझे कुछ नहीं हुआ है, ज्यादा चोट भी नहीं लगी, हड्डी भी नहीं टूटी, अब आंखें खोल दे. लेकिन मेरी बच्ची ने आंखें नहीं खोलीं. डॉक्टर मुझे समझाते रहे, दिलासा देते रहे. लेकिन अंजलि तो कुछ बोल ही नहीं रही थी, मेरा मन कैसे शांत होता, जब तक मैं एक बार उसकी आवाज न सुन लेता. हरदा के उस छोटे से अस्पताल में अफरा-तफरी का माहौल था, कभी डॉक्टर आ रहे थे तो कभी नर्स. नर्स उसे इंजेक्शन लगा रही थी, नाड़ी देख रही थी और अपने कागज पर कलम से कुछ-कुछ लिख रही थी. फिर वो उसे एक बड़े से एसी वाले कमरे में ले गए. वहां एक बड़ी सी मशीन थी. डॉक्टर ने कहा कि उसका सिटी स्कैन होगा. मैं शीशे के इस पार से देखता रहा, सिटी स्कैन मशीन मेरी बच्ची को लील रही थी.
स्कैन की रिपोर्ट आई. डॉक्टर ने कहा, ब्रेन डेड हो चुका है, अब कोई उम्मीद नहीं.
अब जाकर कहानी कुछ-कुछ साफ हुई कि उस 9 अगस्त की शाम दरअसल हुआ क्या था. मेरी बेटी अपनी एक दोस्त के साथ एक्टिवा से कोचिंग जा रही थी, तभी इंदौर रोड पर रांग साइड से आ रही एक अंधाधुंध बस ने उसे टक्कर मार दी. गाड़ी उछली, दोनों सड़क के दूसरी ओर जा पड़ीं. सहेली को ज्यादा चोट नहीं आई. बाहरी चोट तो अंजलि को भी नहीं लगी थी, लेकिन उसके सिर में गहरा जख्म हुआ था.
हरदा में जब डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए तो मैं उसे इंदौर लेकर गया. अस्पताल ने मुझे रिपोर्ट-कागज थमा दिए और मेरी बच्ची का शरीर. हम रातोंरात इंदौर भागे. वहां एमवाय हॉस्पिटल में भी वही कहानी दोहराई गई. डॉक्टर वसंत बोले, कोई उम्मीद नहीं, घर ले जाइए. और मैं डॉक्टर का हाथ थामे अरदास करता रहा कि क्या पता, कोई चमत्कार हो जाए. डॉक्टर वसंत ने कहा कि चमत्कार शब्द सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन जीवन में होता नहीं.
शायद मुझे भी पता था कि चमत्कार नहीं होते, लेकिन मेरा मन मानने को राजी नहीं था. मेरा मन मान भी जाता तो उसकी मां का कैसे मानता. मैं उससे क्या कहता. किस मुंह से बिटिया को घर लेकर जाता. वो कैसे संभालती खुद को.
मैंने डॉक्टरों से विनती की कि आज रात तो उसे यहीं रखें. उसे वेंटिलेटर पर डाला गया, मशीनों के सहारे जिंदा रखने की कोशिश की गई. मैं पूरी रात बिटिया की हाथ थामे इंतजार कर रहा कि क्या पता, अभी नींद से उठ जाए. मैंने जीवन में कभी चमत्कारों पर भरोसा नहीं किया था, जादू-टोनों में मेरा कोई यकीन नहीं. तर्कबुद्धि से जीवन जीने वाला मैं उस पूरी रात किसी चमत्कार की उम्मीद करता रहा. मैं घड़ी की सूइयों को पीछे खींच लेना चाहता था. मैं चाहता था कि लौटकर कल सुबह को जाऊं और सबकुछ फिर से करूं. मैं काम पर न जाऊं, बिटिया को कोचिंग जाने से मना कर दूं, मैं खुद उसे कोचिंग छोड़कर आऊं, कुछ ऐसा हो जाए कि उस दिन वो कोचिंग जाए ही नहीं. मैं पूरी रात यही सोचता रहा कि ऐसा नहीं होता तो कैसा होता.
उस रात उसके सिरहाने बैठे मुझे अंजलि की एक-एक बात याद आत रही. वो दिन, जब डॉक्टर ने पहली बार लाकर उसे मेरी गोद में रखा था. अंजलि से पहले हमारी एक और बेटी हो चुकी थी. अंजलि की मां इस बार बेटे की आस लगाए थी. इस खबर ने उसे थोड़ा उदास कर दिया था कि दूसरी भी लड़की हो गई है. लेडी डॉक्टर उससे बोली, तुम यहां दुखी हो रही हो और तुम्हारा पति तो बिटिया को देखकर झूम रहा है. बिटिया क्या होती है, एक बाप का दिल ही जानता है. मुझे बेटे की कभी आस नहीं रही. मेरी बेटियां ही मेरा सूरज थीं, मेरा सहारा.
मेरा सूरज डूब रहा था.
वक्त जैसे-जैसे बीत रहा था, हमारे हाथ से निकलता जा रहा था. अपने सच को स्वीकारने के अलावा अब कोई रास्ता नहीं था. दूसरी सिटी स्कैन की रिपोर्ट भी आ चुकी थी. हर रिपोर्ट यही कह रही थी कि अब कोई उम्मीद नहीं.
और तभी हमने वह फैसला किया. बिटिया की किडनी, लीवर और आंखें दान करने का फैसला. आसान नहीं था यह निर्णय. उसकी मां के लिए तो बिलकुल भी नहीं. लेकिन अंजलि कोई मामूली लड़की नहीं थी. उसका जीवन यूं अकारथ नहीं जा सकता था. वो गई तो पांच और लोगों को जिंदगियां देकर गई. उसी अस्पताल में डायलिसिस पर पड़े दो लोगों को उसकी किडनी दी गई. लीवर ट्रांसप्लांट ने किसी को जीने की उम्मीद दोबारा लौटाई. उसकी आंखों ने किसी की अंधेरी जिंदगी में उजाला किया. जीवन और मृत्यु क्या है. अंधेरे और रौशनी का सिलसिला. एक दिया बुझा, लेकिन पीछे चार और दिए रौशन कर गया.
कौन कहता है, अंजलि मर गई. मेरे लिए तो वो आज भी जिंदा है. अब एक नहीं, पांच अंजलि हैं, वो पांच जिंदगियों में उजाला कर रही है.