गुरुकुल कांगड़ी के आचार्य रामदेव जी के जीवन के कुछ प्रमुख गुण”

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मनमोहन कुमार आर्य

               आचार्य रामदेव जी गुरुकुल कागड़ी के संचालन में स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रमुख सहयोगी थे। आपने स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ मिलकर व उनके गुरुकुल से पृथक हो जाने पर भी गुरुकुल की महत्ता को बनाये रखा था और उसका सफलतापूर्वक संचालन किया था। श्री गंगाप्रसाद चीफ-जज ने उन पर एक प्रभावशाली लेख लिखा था। इसी लेख से हम उनके जीवन व व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।

       श्री आचार्य रामदेव जी आर्यसमाज के एक उज्जवल रत्न थे। पं0 गंगा प्रसाद, रिटायर्ड चीफ जज का परिचय उनके साथ कांगड़ी गुरुकुल की स्थापना से पहले से, अर्थात् लगभग 50 वर्ष से था, जब कि वे जालन्धर में किसी स्कूल के मुख्य अध्यापक थे। पं0 गंगाप्रसाद जी ने यह लेख आचार्य जी मृत्यु के कुछ समय बाद लिखा था। कांगड़ी गुरुकुल की स्थापना के बाद दोनों महापुरुषों में परस्पर परिचय बढ़ता ही गया, क्योंकि उस समय सन् 1902 से 1905 तक पं0 गंगाप्रसाद जी जिला गढ़वाल के लैंसडौन इलाके के डिवीजन अफसर थे, जिसकी सीमा कांगड़ी से मिली हुई है। इसलिए गुरुकुल स्थापित होने के 3 या 4 वर्ष तक वह गुरुकुल के वार्षिक उत्सव में जिसने उस समय आर्य जगत् में अत्यन्त आकर्षक नवीन मेले का रूप धारण कर लिया था, अवश्य सम्मिलित होते थे। इस प्रकार महात्मा मुंशीराम जी तथा आचार्य रामदेव जी से उन्हें अनायास मिलने का अवसर सुलभ होता था।

               आचार्य रामदेव जी अपार विद्वता–आचार्य जी के स्वाध्याय और विद्यता की कोई थाह नहीं थी। गुरुकुल कांगड़ी का विशाल पुस्तकालय, जिसके बनाने में उन का विशेष हाथ था, उन के लिए पर्याप्त न था और उसके बाहर की भी अनेक पुस्तकों का वे पाठ करते रहते थे। जहां कहीं जाते थे वहां वह नवीन पुस्तकों की तलाश में रहते थे और जहां जो पुस्तकें उन्हें मिलती थीं उनको बड़ी रुचि के साथ पढ़ते थे। पं0 गंगा प्रसाद जी ने आगरे में उन्हें रद्दी व पुरानी पुस्तक बेचने वालों के यहां से भी पढ़ने योग्य पुस्तकें निकाल कर संग्रह करते देखा था। स्वाध्याय में उनका बहुत समय लगता था।

               उनकी विचित्र स्मरण-शक्ति–आचार्य जी की स्मरण शक्ति अद्भुत और विलक्षण थी। जो पुस्तकें एक बार पढ़ लीं वह याद हो गईं। पं0 गंगा प्रसाद चीफ जज ने अपने सुदीर्घ काल के अनुभव में केवल एक और ऐसा विद्वान् देखा था जिनकी स्मरणशक्ति की तुलना श्री रामदेव जी से की जा सकती थी। वे थे श्री ए.सी.वाई. चिन्तामणि। वह प्रयाग के सुप्रसिद्ध दैनिक पत्र लीडर के मुख्य सम्पादक थे।

               आचार्य रामदेव जी की विलक्षण भाषण-शक्ति–श्री रामदेव जी को भारतवर्ष के सभी भागों में व्याख्यान देने के लिए जाना पड़ता था। कोई बड़ा आर्यसमाज उनको अपने वार्षिक उत्सव पर अथवा अन्य अवसरों पर निमंत्रित करने से नहीं चूकता था और उनको ऐसे निमंत्रण बहुत अंश में स्वीकार ही करने पड़ते थे। व्याख्यान में प्रमाणों की झड़ी लग जाती थी। उनके व्याख्यानों में बहुधा ऐसे नये प्रमाण मिलते थे, जिनको सुनकर सुशिक्षित श्रोता भी कभी-कभी भौचक्का रह जाता था। यह आचार्य जी के अपार स्वाध्याय और अद्भुत स्मरणशक्ति का ही फल था। किसी बड़ी संस्था या समाज के मुख्य उत्सव पर वे बहुधा कोई नया व्याख्यान तैयार करने का यत्न करते थे।

               उनकी लेखन शक्ति–श्री आचार्य जी की लेखनी में भी कुछ कम शक्ति न थी। उनकी रची हुई पुस्तकों के नाम हैं, 1-पुराणमत पर्यालोचन, 2- भारतवर्ष का इतिहास 3 भागों में एवं 3- आर्य और दस्यु। आचार्य रामदेव जी ने गुरुकुल कांगड़ी से प्रकाशित प्रसिद्ध पत्रिका वैदिक मैगजीन का सम्पादन भी किया था। आचार्य जी अंग्रेजी के भी उच्च कोटि के लेखक थे।

               गुरुकुल कांगड़ी में उनकी सेवा–श्री रामदेव जी ने सन् 1905 से 1932 तक अर्थात् 27 वर्ष गुरुकुल कांगड़ी में कार्य किया। इस बीच में सन् 1927 से 1932 तक अर्थात् 6 वर्ष तक वे गुरुकुल के आचार्य पद पर रहे। श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी के पश्चात गुरुकुल की सेवा में दूसरा स्थान श्री आचार्य जी का ही है। यदि स्वामी श्रद्धानन्द जी गुरुकुल की आत्मा थे तो आचार्य रामदेव उस के प्राण रूप थे।

               आचार्य जी का रहन-सहन–श्री आचार्य जी का रहन-सहन बहुत सीधा-सादा था। दिखावट या बनावट उनको छू तक नहीं गई थी। वेशभूषा और केशों को संवारना आदि काम उन्होंने अपने लिए वर्जित कर रखे थे, शायद उनको ऐसे कामों के लिए अवकाश भी नहीं मिलता था। वे बड़े परिश्रमी थे। कहा जाता है कि आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब में दलबन्दी होने के कारण उनका परिश्रम अन्तिम वर्षों में बहुत बढ़ गया था। पं0 गंगाप्रसाद जी लिखते हैं कि यदि उस के कारण उनका रोग भी बढ़ गया हो तो आश्चर्य की बात नहीं।

               आचार्य रामदेव जी कन्या गुरुकुल देहरादून के प्राण थे। उनका अन्तिम 5 वर्षों का समय इसी गुरुकुल में व्यतीत हुआ। शरीर छोड़ने से पूर्व उनको तीव्र पक्षाघात का रोग हो गया था। कन्या गुरुकुल, देहरादून के उनके जीवन के अन्तिम वार्षिकोत्सव में भी वह एक आराम कुर्सी पर गुरुकुल के वार्षिकोत्सव में लेटे हुए उपस्थित रहे थे। उस अवस्था में उनकी आंखों से आंसु बहते थे। इसका कारण शायद उनकी रुग्णावस्था थी।

               हमने इस लेख की सामग्री पं0 गंगाप्रसाद जी चीफ जज के एक लेख से ली है। यह लेख डाॅ0 विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी द्वारा सम्पादित होकर ‘‘आर्य संस्कृति के संवाहक आचार्य रामदेव” पुस्तक में प्रकाशित हुआ है। पुस्तक हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोन सिटी से प्रकाशित है। पाठको को इस पुस्तक से लाभ उठाना चाहिये। ओ३म् शम्।

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