हरियाणा के पूर्व डी.जी.पी एस.पी.एस. राठौर के खुले दाँत आजकल मीडिया में चर्चा का विषयबने हुए है। चौदह वर्षीय टेनिस खिलाडी रुचिका के यौन शोषण मामले में राठौर को छ: माह की सज़ा हुयी थी। १० मिन्ट में ज़मानत लेकर ज़नाब हँसते हुए बाहर आ गये थे। उनके खुले दाँत इशारा करते है कि उन्हें अपने किये पर लेशमात्र भी पछ्तावा नहीं है। आज हमारी कानून व्यवस्था पैसौ और पहुँच के चलते कहा जा रही है? कानून अमीरों और राजनेताओं के हाथ की कठ्पुतली जैसा बनता जा रहा है नेता अपने निजी स्वार्थ के लिये अपराधियों को पालते पोसते है देश हित और कानून की अवमानना उनके लिये कोई मायने नहीं रखती है। अपराधियों का बेखौफ आज़ादी से हँसते हुये घूमते देख हमारी न्यायिक व्यवस्था पर संशय गहराने लगता है। यहीकारण है कि पिछ्ले दो दशकों में पुलिस और आम आदमी के बीच की खाई और गहरी होती जा रही है,जब भी किसी बडे नेता का मामला प्रकाश मेंआता है फैसले के बारे मे लोगों को पहले से ही पता होता है कि वो एक कानूनी खानापूर्ती के बाद बडे आराम से बच जायेगा और फिर अपने दुश्मनों से गिन-गिन कर बद्ला लेगा। उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों का छिछोरापन और बौनापन देख आखे शर्म से झुक जाती हैं। बेटियों वाले अभिभावक बच्चियों के बाहर निकलते ही अज़ीब सी निगेटिविटी से घिर जाते है कि पता नहीं कब किसके अन्दर का छुपा ज़ानवर बाहर आ जाये और उनके भी रुचिका जैसे बुरे दिन शुरु हो जाये?
ऎसी खबरे एक अनैतिक समाज की संरचना की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं जो भविष्य की भयंकर तस्बीर की ओर इशारा करती है। आज मीडिया की मेहरवानी से नेता अपने राजभवन से निकलकर रुचिका के केस में कुछ बोलने को राज़ी हुए है वरना उन्नीस साल से कुम्भकर्णी नींद सो रहे थे। भजनलाल,चौटाला या कोई भी नेता तभी कुछ बोलते हैं जब उनकी व्यक्तिगत छवि पर आंच आती है जब नेता अपने को जनता का प्रतिनिधी मान कर वोट मांगते हैं और ऊंचे ओहदे पर आसीन हो जाते हैं फिर ज़नता के बुरे बक्त में साथ क्यों नहीं देते? और साथ देते भी हैं तो अपराधियों का। पुलिस और कानूनी कार्यवाहियों में भी इनका हस्तक्षेप बना रहता है जिससे न्याय नहींहो पाता है यदि राजनेता तट्स्थ
रहें तो पुलिस भी अपना काम पूरी ईमानदारी से बिना किसी दवाब के कर पायेगी।
प्रश्न उठ्ता है कि कानून पुलिस और अदालतें लाचार क्यों हो गयीं, कि आम ज़नता को अपने हक के लिए हो हल्ला मचा कर या कानून हाथ में लेकर अपना दर्द सामने लाना पड्ता है। रुचिका के परिवार पर एक पुलिस अफसर तरह-तरह के ज़ुल्म ढाता रहा, उसके भाई को झूठे आरोप लगा जेल भेजा गया, रुचिका की
सहेली पर केस वापस लेने के लिए डराया धमकाया गया,रुचिका मानसिक दवाव में आत्महत्या तक कर बैठ्ती है। पैसे की ताकत, राजनीतिक रुतबा,बाहुबल के कारण सभी चुपचाप तमाशा देखते रहे। आखिर रुचिका का क्या कुसूर था? उसके भाई और परिजनों को जो शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलना पडा उसका हिसाब कौन चुकायेगा? हमारी कानूनी और अदालती कार्यप्रणाली में कई ऎसे छेद हैं जिनसें न्याय में बहुत लम्बा समय खिंच जाता है, अपराधी को कई पतले गलियारों से भागने का लम्बा समय मिल जाता है। कुछ ऎसे कडे नियम बनने चाहिये जिसमें एक निश्चित समय सीमा में फैसला हो जाना चाहिए। आज हमारे समाज से लिहाज़ नाम की चीज़ बिल्कुल समाप्त हो गयी है घटिया से घटिया हरकतें करके भी लोग हँसते हुये राठौर की तरह मस्ती से घूमते फिरते हैं।
पानी अब सिर से ऊपर गुज़रने वाला है -जागरुक लोंगों, मीडिया समाज सेवकों को अब कुछ सार्थक प्रयास करने ही चाहिऎ ताकि राठौर जैसे खुले घूमते ज़ानवरों पर नकेल कसी जा सके।
-पुनीता सिंह
धन्यवाद , मेरे लेख पर प्रतिक्रिया देने के लिए |
हमें पुनीता सिंह का लेख बहुत अच्चा लगा. हम उनके विचारो से सहमत है. हमारे देश की लड़कियों की सुरक्षा के लिए पुलिस प्रयास तेज करने चैहिये