तेलंगाना: नक्शा बदलने का आंदोलन

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p103009map telanganaप्रमोद भार्गव

तेलंगाना आंदोलन एक ऐसे केंद्रीय बिंदु पर आकर टिक गया है,जहां दो विपरीत ध्रुब अपनी संपूर्ण शक्तियों के साथ संघर्षरत हैं। विभाजन के निर्णयात्मक मोड़ पर पहुंच जाने के बावजूद शक्ति का एक केंद्र विभाजन के विरूद्ध खड़ा है तो दूसरा नए तेलंगाना राज्य बनाने के पक्ष में है। तेलुगूदेशम पार्टी के प्रमुख एन चंद्र बाबू नायडू और बार्इएसआर कांग्रेस के नेता जगमोहन रेडडी बटवारे के खिलाफ दिल्ली और हैदराबाद में पिछले 6 दिन से अनशन पर है तो टीआरएस पृथक राज्य तेलंगाना के पक्ष में खड़ी है। हालांकि कैबिनेट द्वारा 29 वें तेलंगाना राज्य-गठन की मंजूरी दे दिए जाने के बाद अब मुमकिन नहींं लगता कि बंटबारे के विरोध में खड़े आंदोलनकारी फैसले को बदलवा पाएंगे ? क्योंकि गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने ऐलान कर दिया है कि तेलंगाना पर पुनर्विचार नहीं होगा। अलबत्ता एकीकृत आंध्र प्रदेश के पक्ष में खड़े जगमोहन रेड्रडी की यह दलील जरूर महत्वपूर्ण है कि जब कैबिनेट की मंजूरी के बाद दागियों पर लाए गए आध्यादेश और विधेयक, महज राहुल गांधी के विरोध के चलते वापस लिए जा सकते हैं तो आंध्र विभाजन की मंजूरी को वापस क्यों नहीं लिया जा सकता ? लेकिन यह स्थिति तब निर्मित होगी जब राहुल बंटबारे के खिलाफ अपनी आवाज बुंलद करें ? जो इस मुद्रदे पर संभव नहीं है। बहरहाल आंध्र में विरोधाभासी हालात कहीं रक्तपात में न बदल जाएं, इस दारूण स्थिति पर निगाह रखने की केंद्र सरकार को जरूरत है।

कैबिनेट द्वारा अलग राज्य की मंजूरी के साथ ही कांग्रेसी मंत्रियों और सांसदों के थोक में इस्तीफों का सिलसिला तेज हो गया है। अलग राज्य के गठन के मसले पर ऐसा पहले कभी हुआ हो,देखने-सुनने में नहीं आया। केंद्र में मानव-संसाधन विकास मंत्री पल्लम राजू और पर्यटन मंत्री चिरंजीवी त्यागपत्र दे चुके हैं। कपड़ा मंत्री केएस राव, रेल राज्यमंत्री ए सूर्यप्रकाश रेड्रडी, वाणिज्य मंत्री डी पुरंदेष्वरी और संचार राज्यमंत्री किल्ली कृपारानी इस्तीफे की पेशकश दे चुके हैं। कांग्रेस के पांच सांसद आरएस राव,अनंत वेंकटरमी रेड्रडी,वी अरूण कुमार,सब्बम हरि और सार्इंप्रताप ने इस्तीफे दे दिए हैं। साथ ही इनमें से  तीन सांसदों ने  पार्टी छोड़ने तक की धमकी दे दी है। आंध्रप्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री किरण कुमार रेडडी को लेकर भी बेहद नाजुक स्थिति बनी हुर्इ है। वे कभी भी कांग्रेस को गच्चा दे सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सोनिया गांधी को पहले ही दो टूक शब्दों में कह दिया था कि वे विभाजन के पक्ष में नही हैं और बंटवारा हुआ तो पद भी छोड़ सकते हैं।

जाहिर है, एक बार फिर कांग्रेस दागियों पर लाए गए आघ्यादेश की तरह जल्दबाजी के संकट से घिर गर्इ है। दरअसल सरकार ने सीमाध्र और रायलसीमा क्षेत्र की समस्याओं से अवगत कराने की दृष्टि से एंटनी समिति का गठन किया था,लेकिन उसकी रिर्पाट का इतंजार करने से पहले ही आनन-फानन में कैबिनेट ने तेलंगाना राज्य को असितत्व में ला दिया। अपने ही घर से उपजी यह फूट आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को ले डूबेगी। ग्रामीण अंचल में प्रचलित कहावत’खेत में उपजे फूट तो सब कोर्इ खाए,घर में उपजे तो घर मिट जाएं’ को चरितार्थ करने वाली है। तय है, कांग्रेस तेलंगाना राज्य के गठन के ऐलान को लेकर सांप छंछूदर की गति को प्राप्त हो गर्इ है उससे न निगलते बन रहा है न उगलते बन रहा है।

हालांकि देश में नए राज्यों का वजूद में आना कोर्इ नर्इ बात नहीं है,लेकिन राज्य गठन के पक्ष एवं विपक्ष में दो समानांतर ध्रुब खड़े हो जाना अनूठी घटना है। 1960 में बृहत्तर बंबर्इ राज्य से गुजरात और महाराष्ट्र वजूद में आए। 1963 में नगालैंड बना। 1966 से पंजाब से हरियाणा और हिमाचल प्रदेश पृथक राज्य बने। असम तो एक ऐसा राज्य है,जिसे दो बार कर्इ-कर्इ टुकड़ां में विभाजन का दंश झेलना पड़ा। बावजूद आंध्र बंटवारे जैसे विद्र्रोही तेवर देखने में नहीं आए। 1972 में असम से माणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा राज्य बनाए गए। 1975 में सिकिकम को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया। 1987 में असम का एक बार फिर पुनर्गठन हुआ। इसके गर्भ से अरूणाचल प्रदेश व मिजोरम निकले। अब इन सात राज्यों को मिलाकर पूर्वोत्तर की सात बहनों की संज्ञा दी गर्इ है,जो इन राज्यों की आंतरिक समरसता की प्रतीक है। अभी भी इस क्षेत्र पृथक बोडोलैंड की आग सुलगी हुर्इ है।

इक्सीवीं सदी के  पहले साल 2001 में अटलबिहारी बजपेयी की नेतृत्व वाली राजग सरकार ने भी राज्यों के पुर्नगठन में अहम भूमिका निभार्इ। उत्तरप्रदेश से उत्राखण्ड,बिहार से झारखण्ड और मघ्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ टूट कर अलग हुए। इन बड़े राज्यों के बंटवारे में  खास बात यह रही कि विरोध के उग्र स्वर मुखर नहीं हुए। जबकि विभाजित दो राज्यों में जुदा दलों की सरकारें थीं। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के दिगिवजय सिंह और बिहार में राजग के लालूप्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे। उत्तर प्रदेश में जरूर भाजपा के राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री थे। विडंबना देखिए केंद्र और आंध्र प्रदेश में कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकारें हैं। आंध्र के छह सांसद केंद्र सरकार में मंत्री है, बावजूद केंद्र्रीय नेतृत्व की अक्षमता के कारण विवाद पर विराम नहीं लग पा रहा है। इस विवाद की जड़ में क्षेत्रीय महत्वकांक्षा भारी है,जो राज्य पुर्नगठन प्रक्रिया में बड़ी बाधा के रूप में पेश आ रही है। मुख्यमंत्री तक बंटवारे के खिलाफ में हैं।

तेलंगाना में स्वंतत्र राज्य का गठन भी इसी क्षेत्रीय महत्वकांक्षा के चलते परवान चढ़ा है। नए राज्य के रूप में चिनिहत किए गए तेलंगाना का क्षेत्रफल 1,14840 वर्ग किलोमीटर में फैला है। इस नए राज्य में आंध्र की कुल आबादी के 42 फीसदी लोग निवासी बनेंगे। कैबिनेट के निर्णय के अनुसार 10 सालों तक दोंनो राज्यों की साझा राजधानी हैदराबाद रहेगी। राज्य की अन्य व्यवस्थाओं के लिए गृहमंत्रालय द्वारा जल्दी ही एक मंत्री समूह का गठन किया जाएगा। यह समीति बंटवारे की बांकी प्रक्रिया का खाका तैयार करेगी। तय है, यह प्रक्रिया अभी   लंबे समय तक विरोध और  अडंगाें से प्रभावित होती रहेगी। कांग्रेस सांसद एल राजगोपाल तो यह तक कह रहे हैं कि आंध्र को बांटने वाला कैबिनेट का फैसला असंवैधानिक और अलोतांत्रिक है। आंध्र के बहुसंख्यक लोग इस फैसले के खिलाफ में  हैं। राजगोपाल इस फैसले को सर्वोच्च न्यायलय में चुनौती देने की तैयारी में हैं। यदि इस चुनौती को न्यायलय स्वीकार कर लेती हैं तो पृथक राज्य तेलंगाना से जुड़ा विधेयक शीतकालीन सत्र में पेश नहीं हो पाएगा। यह स्थिति केंद्र सरकार की सांप छंछूदर की गति बनाए रखेगी।

तेलंगाना को नए राज्य के रूप में लाने के पीछे तेलंगाना राज्य समिति की लंबी मुहिम रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में टीआरएस और कांग्रेस के बीच गठबंधन हुआ था। यह गठबंधन इसलिए मुमकिन हो सका क्योंकि कांग्रेस ने टीआरएस को भरोसा दिया था कि यदि उसे सत्ता में आने का अवसर मिला तो वह तेलंगाना को वजूद में ले आएगी। अब कांग्रेस इसी भरोसे को पूरा करने में लगी है। लेकिन उसने इस प्रक्रिया में उम्मीद से ज्यादा विलंब कर दिया। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक सीटें आंध्रप्रदेश से ही मिली थीं। अब जगन्न रेडडी के मजबूत जनाधार के कारण सीमांर्ध क्षेत्र में आने वाली 25 सीटों पर कांगेस की स्थिति खराब है। इसलिए वह बंटवारे को तरजीह देते हुए चाहती है कि नये राज्य तेलंगाना में जो 17 सीटें आती हैं उनमें से ज्यादातर वह हासिल कर ले। लेकिन आग उगलते तेलंगाना में कांग्रेस की क्या स्थिति बनेगी यह तो भविश्य ही तय करेगा।

किसी छोटे राज्य की परिकल्पना को राजनीतिक दृष्टि से अंजाम देने की बजाय उसे क्षेत्र व देश की जरूरत के हिसाब से असित्तव में लाने की जरूरत है। जिससे वह एक मजबूत इकार्इ के रूप में कायम रहे। हालांकि अब नए राज्यों के गठन में सामाजिक पिछड़ेपन और आर्थिक समृद्धि को भी कसौटी बनाया जा रहा है। लेकिन इस कसौटी की विसंगति यह है कि जिस मूल राज्य से अलग होकर नया राज्य बनता है,वह प्राकृतिक संपदा को अपने साथ लेकर अलग होता है। छत्तीसगढ़, झारखण्ड और उत्तराखण्ड में प्राकृतिक संसाधनों के अकूत भंडार हंै। तेलंगाना भी कुदरती खनिजों से भरे क्षेत्र के साथ पृथक हो रहा है। तय है,आंध्र आर्थिक रूप से कमजोर हो जाएगा। उसे आर्थिक मजबूती  के लिए दिल्ली की ओर हाथ फैलाए रखने पड़ेंगे। ऐसे हालात राश्ट्रीय अर्थव्यवस्था को भी संकट में डालते है। इस लिहाज  से आंध्र को बांटने के विरोध को एकाएक नकारा नहीं जाना चाहिए।

टीडीपी के च्रंदबाबू नायडू भी जगनमोहन रेडडी के साथ कदमताल मिला रहे हेैं। इसलिए इस परिप्रेक्ष्य में पुनर्विचार करने की जरूरत है कि नए तेलंगाना का निर्माण हिंसा और तबाही की बुनियाद पर न हो। ? ऐसा राज्य न तो षांति कायम रख पाएगा और न ही समावेशी विकास को जमीन पर उतार पाएगा। जैसा कि झारखण्ड में देखने में आ रहा है।  ऐसे राज्यों को माओवादी भी अपनी गिरफत में आसानी से ले लेते हैं। तेलंगाना भोगौलिक रूप से नक्सल प्रभावित बस्तर के करीब है,जो माओवादिओं का मजबूत गढ़ है। वैसे भी टीआरएस के अलगाववादी आंदोलन से माओवादियों के जुड़े रहने की खबरें आती रही हैं। इस लिहाज से यदि जगमोहन रेडडी कह रहे हैं कि कैबिनेट के इस फैसले को दागी आध्यादेश की तरह बदला जाए, तो उनकी बात में कुछ तो  वजन हैं।

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