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महंगाई पर हायतौबा न मचायें

rising-food-prices_7548मंहगाई प्रति दिन बढ़ रही है। फिर भी योज़ना आयोग के अध्यक्ष श्री मोंटेक सिंह आहूलवालिया साहब का कहना है कि महंगाई को लेकर आम आदमी बेबज़ह हल्ला-गुल्ला न करें। खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ने से इसका सीधा फायदा किसानों को मिल रहा है। अब दलालों और व्यापारियों के लिए किसानों की जेब में सेंध लगाना असंभव है।

श्री आहूलवालिया का कहना है कि एक तरफ तो हम किसानों को उनकी बदहाल स्थिति से निज़ात दिलाना चाहते हैं और दूसरी तरफ जब उनको फ़ायदा पहुँच रहा है तो हम फ़ालूत में महंगाई का रोना रो रहे हैं। अपने इस दोहरे चरित्र से हम क्या साबित करना चाहते हैं?

आंकड़ों के अनुसार अनाज़ों की कीमत जहाँ 2 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है, वहीं हमारी अर्थव्यवस्था 6 से 8 फ़ीसदी की दर से विकास कर रही है। वर्तमान महंगाई तो बस किसानों के ज़ख्म पर मलहम लगाने का काम कर रही है।

अर्थशास्त्र का ट्रिकल डाऊन सिंद्वात आज भी भारत के संदर्भ में बेमानी है। यहाँ रिस-रिस करके फ़ायदा कभी भी निचले तबके तक नहीं पहुँच पाता है।

इस कड़वी सच्चाई के बावज़ूद भी अगर श्री आहूलवालिया का आकलन सच्चाई के ज़रा सा भी करीब है तो मध्यम शहरी वर्ग अपनी छाती पर ज़रुर पत्थर रख लेगा, पर उन शहरी मज़दूरों और निचले संवर्ग के कर्मचारियों और पेंशनभोगियों का क्या होगा, ज़िनकी आय इस महंगाई को झेलने में पूर्ण रुप से नाकाफ़ी है ? क्या ये इंसान नहीं

हैं ? महंगाई का असर इन पर नहीं होगा क्या ?

आहूलवालिया साहब को शायद पता नहीं है कि अधकचरे ज्ञान से कुछ नहीं होता। सभी पक्षों को ध्यान में रखना आवश्यक है। किसी एक वर्ग पर नज़रें इनायत करने से असमानता और असंतोश ही बढ़ेगा। नक्सल दंश को फिलहाल हम झेल ही रहे हैं।

सच यही है कि सुनहले और सकारात्मक आंकड़ों से घर का चुल्हा नहीं जलता। रोटी पैसों से आती है। आपकी विकास दर भले ही अगले साल 8 फीसदी हो जाएगी, लेकिन इस विकास दर से कितने भूख़ों और नंगों का भला हो पायेगा ? इसे भी सुनिश्चित करना आवश्यक है। इस विकास दर को कभी किसी ने देखा है या फ़िर यह सिर्फ़ कागज़ों पर ही दिखता है ? इसके उत्तार की दरकार भी एक आदमी को है।

फ़सलों का वाज़िब दाम किसानों को मिल रहा है या नहीं , इसे समझने के लिए आपको गाँव जरुर जाना होगा। वातानुकूलित कमरों में बैठकर आप किसी निष्कर्ष पर नहीं पुहँच सकते हैं।

आज भी 30 फ़ीसदी से अधिक किसान सरकारी मंडी तक नहीं पहुँच पाते हैं। दलाल या व्यापारी गाँव जाकर ही किसानों की पैदावार को खरीद लेते हैं और फिर वे उसकी मुहँमांगी कीमत वसूलते हैं। सरकारी मंडियों में भी दलालों की पौ-बारह रहती है। दलाल, महाजनों या सूदखोरों की मदद से किसी तरह से मंडी पहुँचे हुए अनाज़ों को, किसानों के ऊपर दबाव बनाकर, उसे औने-पौने दामों में मंडी में खरीद करके पुन: उसे वहीं ऊँचे दामों में वहीं बेच देते हैं। किसान भी कोई प्रतिरोध नहीं कर पाता है। वह जानता है कि जरुरत पड़ने पर सूदखोर ही उसके काम आयेगा। भले ही उसें 20 रुपये सैकड़ा ब्याज देना पड़े या 30 रुपये। आज़ भी महाज़नों का मकड़ज़ाल अभेद्य है। इस मकड़ज़ाल से किसानों को बाहर निकालना क्या सरकार का कर्तव्य नहीं है?

केवल गन्ना या गेहूँ का समर्थन मूल्य बढ़ाने से किसानों तक लाभ नहीं पहुँच जाता है। किसानों के पास तो समस्याओं का अंबार लगा हुआ है। रबी के फसलों को बोने का समय सिर पर आ चुका है, पर अभी तक किसानों के पास न तो बीज़ है और न ही खाद। बिज़ली की आपूर्ति भी सही तरीके से गाँवों में नहीं हो पा रही है। इन परेशानियों का कोई हल सरकार के पास आज़ भी नहीं है।Price-Rise

स्थानीय एवं दुरंतों दूरभाष की दर कम होने से मंहगाई कम नहीं होती है। गिरावट का दामन छोड़कर शेयर बाज़ार के द्वारा लंबी छलांग लगाने से भी आम आदमी की बदहाली में कोई बदलाव नहीं आता है। होम लोन पर 5 फीसदी ब्याज सब्सिडी देने से भी महंगाई कम नहीं हो सकती। सूचीबद्व सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश करने से भी गरीबों का कोई फ़ायदा नहीं होना है। ध्यातव्य है कि पूर्व में हुए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में हुआ विनिवेश काफ़ी विवादास्पद रहा है।

आश्चर्यजनक रुप से कृषि मंत्री श्री शरद पवार श्री आहूलवालिया के बयान से इत्तिाफ़ाक नहीं रखते हैं। उनके द्वारा हाल ही में दिये गये बयानों से ऐसा लगता है कि सरकार भी महंगाई के आगे बेबस है।

उत्तार भारत में अच्छे मानसून के नहीं आने और दक्षिण भारत में बेवक्त आई बाढ़ के कारण; भले ही ख़रीफ़ क़ी फसलों की अच्छी आवक का नहीं होना इसका एक कारण हो सकता है, लेकिन अन्यान्य कारणों को इसकी आड़ में हम दबा नहीं सकते हैं। कालाबाज़ारी और मुनाफ़ाखोरों पर कौन लगाम लगायेगा ? मंदी से निपटने के लिए सरकार द्वारा बाज़ार में कृत्रिम तरीके से बढायी गई मुद्रा की सप्लाई से हर बार की तरह औद्योगिक क्षेत्र की स्थिति सुधर गई है ,परन्तु महंगाई का स्तर दिन-दूनी रात-चौगुनी की रफ्तार से बढ़ता ही चला जा रहा है। आज़ ज़रुरत है मुद्रास्फीति के मुक्कमल इलाज़ की , न की फ़ालूत की बातों में समय ज़ाया करने की। सरकार रिजर्व बैंक के माध्यम से मुद्रास्फीति पर लगाम कस सकता है। कृत्रिम संकट पैदा करने वाले व्यापारियों की नकेल को भी कसा जा सकता है। बेबसी ज़ताने या फिर उल-ज़ुलूल के तर्कहीन बयानों से सरकार की ही भद पीटेगी।

श्री आहूलवालिया किसी राज़शाही के नौकरशाह नहीं हैं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ इस तरह का गैर जिम्मेदारना बयान देना निश्चित रुप से निंदनीय है। आम जनता की समस्याओं का निवारण सरकार का परम दायित्व है। अपने दायित्व के र्निवहन में ही सरकार की भलाई है। पब्लिक सब जानती है। अगले चुनाव में आपका हस्र क्या होगा? इसकी कल्पना तो आप कर ही सकते हैं।