आयोग की निगरानी में वैकल्पिक मीडिया

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प्रमोद भार्गव 

download (3)पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनावों में वैकल्पिक मीडिया भी चुनावी रंग में रंग गया है। लिहाजा राजनीतिक दल खासकर युवा मतदाताओं को लुभाने के लिए सोशल मीडिया और मोबाइल फोनों का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं। कई प्रत्याशियों ने तो बकायदा अपने खाते भी खोले हुए हैं। लेकिन निर्वाचन आयोग की निगरानी में यह मायावी मीडिया भी आ गया है। गोया, कोई उम्मीदवार आयोग के पूर्व प्रमाणीकरण के बगैर इंटरनेट पर विज्ञापन या अन्य प्रचार सामग्री पोस्ट करता है तो इसका खर्च उसके चुनावी खर्च में जोड़ दिया जाएगा। इसे अनेक बुद्धिजीवी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुष मानकर चल रहे हैं, लिहाजा इस बाबत् बहस – मुवाहिषा तेज हो गए हैं और इस मीडिया को आदर्श आचार संहिता से बाहर रखने की पैरवी की जा रही है।

निर्वाचन आयोग ने अब अंतर्जाल,मसलन इंटरनेट पर वर्चस्व बनाए रखने वाले समाचार माध्यमों पर नजर रखने की कवायद तेज कर दी है। जाहिर है, आदर्ष आचार संहिता के दायरे में फेसबुक,ट्विटर,यू-ट्यूब और एप्स (वर्चुअल गेम्स वर्ल्‍ड) ब्लाग व ब्लॉगर भी आएंगे। जग जहिर है, सोषल वेबसाइटों का इस्तेमाल करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। क्योंकि इस मीडिया पर विचारों की अभिव्यक्ति निःशुल्क की जाने की सुविधा हासिल है। दल और उम्मीदवार भी साइटों पर अपने खाते खोलकर बढ़-चढ़कर भगीदारी करने में लगे है। यही नहीं, टीवी समाचार चैनल और एफएम रेडियो दलीय आधार पर जनमत सर्वेक्षण कर उनके प्रसारण कर रहे हैं। ये स्थितियां दल या उम्मीदवार विशेष के पक्ष में जीत का अप्रत्क्ष माहौल बनाने का काम करती हैं। लिहाजा मतदाता निश्पक्ष बना रहे,इसके लिए जरूरी था कि सोषल मीडिया पर पंबादी लगे। इस लिहाज से आयोग का निर्णय स्वागतयोग्य है। हालांकि चंद लोग आयोग द्वारा की जा रही निगरानी की इस कारवाई को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुष मानकर चल रहे हैं। ऐसे लोगों के संज्ञान में यह बात आनी चाहिए कि समाचार के ये मायावी माध्यम व्यक्तियों के चरित्र हनन के साथ, बेहूदी टिप्पणियां और अफवाह फैलाने का काम भी करते है,इसीलिए इन्हें आदर्ष आचार संहिता के दायरे में लेना कोई असंगति नहीं है। गोया,आयोग की इस पहल को प्रासंगिक ही माना जाना चाहिए।

आयोग ने यह जरूरी पहल जनप्रतिनिधित्व कानून और आदर्श आचारसंहिता के तहत की है। पेडन्यूज के बाद विद्युत समाचार माघ्यामों पर अंकुश की यह निर्वाचन आयोग की दूसरी बड़ी पहल है। अब दल व उम्मीदवारों को सोषल मीडिया पर प्रसारित प्रचार के खर्चे का ब्यौरा नियमानुसार आयोग को देना होगा। चुनाव में प्रत्यक्ष भगीदारी करने वाले जो दल व प्रत्याशी इस आचारसंहिता का उल्लंघन करेंगे,उसे संहिता की विसंगति के रूप में संज्ञान में लिया जाएगा। इसलिए आयोग के निर्देशों के तहत उम्मीदवारों को नामांकन दाखिल करने के साथ, फॉर्म-26 के तहत दिए जाने वाले षपथ पत्र में अपने फोन नंबर,ई-मेल आईडी और सोशल मीडिया से जुड़े खातों की भी पूरी जानकारी देनी जरुरी थी। प्रत्याशियों को इन माघ्यामों के जरिए किए जाने वाले प्रचार का खर्च का हिसाब भी आयोग को देना होगा। कंपनियों को किए गए या किए जाने वाले भुगतान के साथ उन लोगों के भी नाम देने होंगे,जो इन खातों को संचालित करेंगे। यह खर्च प्रत्याषी के खाते में शामिल होगा।

हालांकि इस परिप्रेक्ष्य में यह सवाल जरूर उठता है कि कोई व्यक्ति नितांत स्वेच्छा से दल या उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार अभियान में षिरकत करता है,तो क्या उसके इस श्रमदान की कीमत विज्ञापन-दर के हिसाब से लगाया जाना उचित है? क्योंकि तमाम सामान्य लोग निश्पक्ष स्वप्रेरणा से भी चुनाव में अपनी साम्थ्र्य के अनुसार भागीदारी करते हैं। और यही वह मतदाता होता है, जो वर्तमान सरकारों को बदलता है।

इस संदर्भ में एक अन्य सवाल यह भी उठता है कि यदि कोई व्यक्ति या प्रवासी भारतीय दूसरे देशों में रहते हुए, सोशल मीडिया से जुड़े खातों को विदेशी धरती से ही संचलित करता है,तो वह आचारसंहिता की अवज्ञा के दायरे में कैसे आएगा? उसे नियंत्रित कैसे किया जाएगा?यह एक बड़ी चुनौती है,जिसे काबू में लेना मुश्किल होगा। आजकल दूसरे देशों से इन माघ्यामों का इस्तेमाल खूब हो रहा है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने का सबसे ज्यादा समर्थन प्रवासी भारतीयों ने ही किया है। इस परिप्रेक्ष्य में एक सवाल तकनीकी व्यावहारिकता या उसकी अपनी तरह की बाध्‍यताओं का भी उठता है। क्योंकि इंटरनेट के संजाल में छद्म या फर्जी नामों से खाते खोलना बेहद आसान है। व्यक्गित चिटठे् भी सरलता से बनाए जा सकते हैं। फिर हमारे यहां तो देश के प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति के नामों से खाते खोले जाना व ई-मेल आईडी बनाना सहज है, तो फिर हजारों की तादाद में खड़े होने वाले प्रत्याशियों के खाते खोलने में तो कोई कठिनाई ही पेश नहीं आनी ? कुछ साल पहले गुजरात की एक अदालत से बतौर प्रयोग एक पत्रकार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति के नामों से भी वारंट जारी करा लिए थे। जबकि अदालती काम में चंद लोगों की भागीदारी होती है, और संवैधानिक गारिमा व देश की संप्रभुता से जुड़े ये नाम देषव्यापी होते हैं। तय है, हमारे यहां प्रशासनिक सुस्ती और लापरवाही इतनी है कि आप किसी भी किस्म की हरकत को अंजाम दे सकते हैं। फिर आचार संहिता के दायरें में तो रूपए, शराब और अन्य उपहारों का बांटना भी आता है, बावजूद क्या इनका बाटां जाना रूका ? जबाव है नहीं ? लेकिन अंकुश जरूर लगा है, इस तथ्य से नहीं मुकरा जा सकता है। तय है, इन व्यावहारिक कठिनाईयों पर पाबंदी के कानूनी विकल्प तलाषे जाना जरूरी है, न कि तात्कालिक स्थितियों में इनसे निपटने के कोई कायदे-कानून न होने के बहाने इन्हें नजरअंदाज कर देना?

हालांकि निर्वाचन आयोग द्वारा सोशल मीडिया को आदर्श आचारसंहिता के दायरे में लाने पर कार्मिक, लोक-शिकायत कानून एंव न्यायिक मामलों से संबधित संसदीय स्थायी समिति के अध्यक्ष शांताराम नाइक ने आयोग के इस फैसले पर आपत्ति दर्ज कराई है। उनका मानना है कि ऐसे उपायों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित होगी। और फिलहाल सोशल मीडिया को नियंत्रित करने का देश में कोई कानून भी नहीं है ? लेकिन आयोग ने इंटरनेट माध्यामों को मर्यादित बने रहने के जो दिशा-निर्देश दिए हैं,वे मौजूदा कानून और आचार संहिता के परिप्रेक्ष्य में ही हैं। इन्हीं कानूनों को आधार बनाकर राजनीतिक दलों के आचरण और समाचार माध्यमों में अपनाए जाने वाली पेडन्यूज पर अंकुश लगा है। इन कार्रवाइयों के कारगर नतीजे भी देखने में आए हैं। इसलिए यदि इस दायरे का विस्तार सोशल मीडिया तक किया गया है, तो इस पर आपत्ति क्यों? यहां गौरतलब है कि कथ्य पर निगरानी जिन कानूनों के तहत प्रिंट और इलेक्टोनिक माध्‍यमों पर अब तक की जा रही है, तो फिर सोशल मीडिया को छूट कैसे दी जा सकती है ? वस्तुत: चुनाव सुधार की दिशा में आयोग द्वारा वैकल्पिक मीडिया पर निगरानी की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए।

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