-प्रकाश चंडालिया
कांग्रेस के चिकने चुपड़े युवराज राहुल गाँधी को तीन दिन के बंगाल दौरे से वहां की उबड़-खाबड़ सियासी जमीन का अंदाज जरुर लग गया होगा. पार्क स्ट्रीट के रेस्तरां में मुर्ग मसल्लम उड़ाने से लेकर शांति निकेतन में नौजवान लड़कियों के रा-हुल रा-हुल नारों की मस्ती के बीच राहुल ने फुर्सत के क्षणों के लुत्फ़ जरूर उठाया, लेकिन बात जब सियासी जमीन पर कुछ कहने की आई तो ममता बनर्जी की पार्टी के साथ कांग्रेस के स्वाभिमान की बात उठा कर उन्होंने नयी मुसीबत मोल ले ली. राहुल गाँधी ने यहाँ कहा कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस तृणमूल के साथ हाथ जरूर मिलाएगी पर सर झुका कर नहीं. बंगाल में कांग्रेस के हाल से वाकिफ समझदार लोग सवाल कर रहे हैं कि यहाँ जब कांग्रेस ही नहीं बची है तो स्वाभिमान किसका?
बहरहाल, राहुल का बयान तैयार करने वालों के दिमाग में निश्चित तौर पर इस बयान के पीछे सोचा समझा मकसद रहा होगा. वर्ना दिल्ली से कोलकाता आकर ममता बनर्जी के बारे में कड़वा बयान देने की हिम्मत तो प्रणव मुख़र्जी जैसों में नहीं दिखती. वैसे भी हाल के दिनों में जब भी किसी कांग्रेसी ने ममता से मुटभेड़ लेने की कोशिश की तो उसे कुछ घंटों में ही अपना बयान वापस लेना पड़ा, या फिर उस बयान की बेतरह दुर्गति हुई है. कांग्रेसी दिग्गज अच्छी तरह जानते हैं कि बंगाल में वामपंथियों का सफाया करना कंगाल हो चुकी कांग्रेस के बस की बात हरगिज नहीं है. ऐसी स्थिति में ममता बनर्जी का सहारा अपरिहार्य है.
ममता बनर्जी पिछले एक-डेढ़ साल में जिस आक्रामकता से बंगाल में डटी हुई हैं, उसे देखते हुए अब वहां वामपंथियों का तम्बू उखाड़ना तय माना जा रहा है. आलम यह है कि ममता कांग्रेस की केंद्र सरकार में सहोदर जरूर है, पर बंगाल के मामले में वह सोनिया गाँधी के साथ भी सतर्क होकर समझौता करती हैं. ममता के लिए २०११ के विधान सभा चुनाव जीवन-मरण का आखिरी इम्तिहान हैं. कांग्रेसी स्वाभिमान की बात करने वाले राहुल गाँधी अपनी पार्टी के चिकने चेहरे हैं, और नेहरु ख़ानदान से होने का भरपूर फायदा उठा रहे हैं. पर बंगाल कि राजनीती की पगडण्डी पर चलना इतना आसान भी नहीं है. राहुल के कोलकाता दौरे पर ममता ने हल्की टिपण्णी करते हुए उन्हें बासंती कोयल कह डाला. यानी वह कोयल जो केवल बसंत में कूकती है. ममता के इस बयान के निहितार्थ को हलके से नहीं लिया जा सकता. फिर अपने दौरे के दूसरे दिन जब उन्होंने स्वाभिमान वाली बात कही, तो उस पर तृणमूल के नेता भड़क उठे. एक वरिष्ठ तृणमूल नेता ने कहा कि पहले कांग्रेस अपना घरेलू स्वाभिमान तो जगाये. घरेलू स्वाभिमान का मतलब यह कि जब कांग्रेस के इक्का-दुक्का को छोड़ कर सारे दिग्गज नेता तृणमूल में शामिल हो चुके हैं, तो उस पार्टी का वजन ही कहाँ ठहरता है. और इस मसले पर अभी तीन महीने पहले ही ममता ने दिखा दिया कि वह वामपंथियों से लोहा लेने में अकेले ही काबिल हैं. तमाम आशंकाओं को दरकिनार करते हुए ममता ने निगम चुनाव ना सिर्फ अकेले लड़े, बल्कि अधिसंख्य पालिकाओं पर विजय भी हासिल की. कांग्रेस इन चुनावों में बेतरह पसर गयी, हासिल कुछ नहीं हुआ. हुआ यह जरूर कि उसके कब्जे वाली कई पालिकाओं पर तृणमूल के परचम लहरा गया. अब ऐसे आलम में राहुल किस स्वाभिमान कि बात कर रहे हैं?
एक बात और. राहुल गाँधी को बंगाल दौरे में अपनी पार्टी के खुरदरे चेहरे का एहसास भी खूब हुआ होगा. मानस भुईयां को प्रदेश का अध्यक्ष बनाकर पार्टी ने दीपा दासमुंशी और प्रदीप भट्टाचार्य के गुट को बेवजह नाराज कर दिया. मानस भुईयां का कद प्रदीप और दीपा दोनों से ओछा है. उनका सियासी इतिहास भी कोई दमदार नहीं है. इसके बावजूद प्रणव मुख़र्जी के इशारे पर आलाकमान ने उन्हें प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया. राहुल के बंगाल दौरे में प्रदीप भट्टाचार्य जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेता कहीं नजर नहीं आये. प्रदीप दा की नाराजगी कांग्रेस को आने वाले दिनों में भारी पड़ सकती है. उन्हें खुश करने के लिए फिलहाल इन्टक के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी दी गयी है, पर वे इस दायित्व से जरा भी खुश नहीं हैं.
राहुल ने बंगाल आकर मीडिया के सामने वही बातें की, जो वे पहले करते आये हैं. मसलन- बंगाल के दो चेहरे हैं. एक गरीब बंगाल, और एक अमीर बंगाल. वामपंथियों के खिलाफ उनके आक्रामक बयान ना होने और ममता के मामले में स्वाभिमान की बात करने को लेकर भी लोग अलग-अलग कयास लगा रहे हैं.
सच्चाई क्या है, यह तो वक्त बताएगा, पर लोग यह भी मान रहे हैं कि विधानसभा चुनावों में सीटों के बंटवारे पर ममता के साथ सौदा नहीं पता तो कांग्रेस परोक्ष रूप से वामपंथियों के साथ कड़ी रह सकती है. हालांकि इस तर्क में ज्यादा दम नहीं दिखाई पड़ता, फिर भी तीन के दौरे में राहुल गाँधी यदि अपनी सहोदर पार्टी के साथ संबंधों को उठाते हैं, तो माना जा सकता है कि कहीं ना कहीं उनके अपने घर की दीवार एकदम कमजोर है.
मैं बंगाल से बहुत दुर रहता हुं। हमारे नगर के विकास का ईतिहास जब देखता हुं तो दो बंगालियो ने बडा योगदान दिया यह देखता हुं। बंगाली एक अति उन्नत कौम है। लेकिन वामपंथीयो ने उन्हे बरबाद कर दिया। अगर बंगाल को कुछ वर्षो के लिए वामपंथी पंजो से मुक्त कराया जाए तो वहां युगांतकारी विकास हो सकता है।
वामपंथी कैडरो ने बंगाल मे गुंडा साम्राज्य खडा कर रखा है जिसके बल पर वह चुनाव मे विजय प्राप्त करते है। उनको अपने आकार मे लाने के लिए एक महागठजोड की आवश्यकता है। सभी गैर-वामपंथी दलो को एक मंच पर लाने का फार्मुला जरुरी है। उसके बगैर काम नही बनने वाला है। उस गठजोड की न्युकिलियस ममता बन सकती है।
राहुल के सल्लाहाकार अमेरिका मे बैठे है। अमेरीकी लोक तंत्र का आधार मिडीया है। जिसने अच्छा मिडीया मेनेजमेंट किया वह जीत गया। जिसके मिडीया कंसल्टेंट और ईभेंट मैनेजर ने उत्कृष्ट काम
किया उसे चुनती है अमेरिकी जनता अपने राष्ट्रपति के रुप में।
हमारे देश मे मुश्किल से 15 प्रतिशत जनता टीभी, अखबार, एफ.एम या इंटर्नेट के जरिए अपना विचार निर्माण करती है। इसलिए इस दृष्टी से हमारे यहा एक मजबुत लोकतंत्र है।
लेकिन विदेशी शक्ति सम्पन्न राष्ट्र अब हमारे यहां भी मिडीया मे छदम निवेश बढा रहे है। तो हम यह मान सकते है की भविष्य मे हमारे यहां भी वही जितेगा जिसकी मिडीया मे अच्छी पकड हो। जनता जाए भाड में। हां मिडीया मे तो राहुल की अच्छी पकड अवश्य है। वह सोनिया को रानी तथा राहुल को ईण्डीया के राजकुमार की तरह पेश कर रहे है।
हो सकता है की मिडिया के भरोसे राहुल एक दिन भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति बन बैठे।
प्रकाश चंडालिया जी आपने राहुल को सच्चाई का आइना बताया है. अभी हालात कांग्रेस के लिए ठीक नहीं है. लेकिन ये हालात स्थाई नहीं है. ऊंट कब करवट पलते देर नहीं लगती. आपको पता होगा की यु पी ए 1 के इलेक्शन में कांग्रेस ने ममता को जबरदस्त पटखनी दी थी. तृणमूल सिर्फ एक सिट में सिमट गया था और कांग्रेस ने ६ सिट जीती थी. तृणमूल के नेता कांग्रेस में वापिस जाने लगे थे. ममता एक सनकी महिला हैं और कब सनक भारी पड़ जाये? अजीत कुमार पंजा जसे विद्वान मंत्री को ममता ने रास्ता दिखा दिया था. कांग्रेस, बीजेपी और वामपंथी तीनों से दुश्मनी कहीं ममता को ही भारी न पड़ जाये. हो सकता है की वो तात्कालिक लाभ ले ले लेकिन राजनीती में ज्यादा दुश्मन रखना मोलभाव की क्षमता कम कर देती है और ममता अकेली लड़ाई सिर्फ भावनाओं के सहारे शायद लम्बे समय तक जारी न रख पायें. मेरी शुभकामनाएं
कांग्रेस का इतिहास बताता है की yuse and through .ममता बंगाल में भले ही नाटक नौटंकी से कुछ सीटें कबाड़ ले किन्तु बिना कांग्रेस या बिना वाम पंथ के वह अकेले सरकार कभी नहीं बना पायेगी .वैसे भी लालगढ़ और सिंगुर की घटनाओं में ममता ने माओवादियों का जिस तरह इस्तेमाल किया वह बंगाल की जनता को बखूबी मालूम है .राहुल के लिए बंगाल में खोने के लिए कुछ नहीं है और यदि दाव चल गया तो अगली बार यु पी ऐ -३ को केंद्र में राहुल के नेत्रत्व में वामपंथ के सहयोग की जरुरत फिर पद सकती है .ममता बेनर्जी की कोई विचारधारा नहीं -जैसे की मायावती की है .द्रुमुक की है ,मंडल वालों की है ,कमंडल वालों की है ,कांग्रेस की है वामपंथ की है -वैसी कोई नीति या कार्यक्रम देश के लिए या बंगाल के लिए उसके पास कुछ नहीं -केवल वामपंथ को गरियाने से क्या हासिल हो सकता है ?